शुक्रवार, 27 जून 2008

जितने बंधन, उतनी मुक्ति (एकालाप : स्त्रीविमर्श)

एकालाप : जितने बंधन, उतनी मुक्ति

ऊपर से यह सवाल कि कैसी मुक्ति?

किससे मुक्ति??

कितनी मुक्ति???

नहीं,
व्याख्या की ज़रूरत नहीं।

मुक्ति चाहिए वहाँ वहाँ ,जहाँ जहाँ बंधन हैं !!!

~~ ऋषभ देव शर्मा

मेरे पिताजी संस्कृत के अध्यापक थे।
आचार्य थे, ज्योतिषी थे.
अनेक शिष्य थे उनके , पुरूष भी, महिलाएं भी।
सभी उनके चरण स्पर्श करते थे आदर से॥
पर महिलाओं को - लड़कियों को - वे मना कर देते थे चरण छूने से।
सदा कहते - स्त्रियों को किसी के चरण नहीं छूने चाहिए - पति और ससुराल पक्ष के वरिष्ठों के अलावा।
कभी किसी ने पूछ लिया - गुरु जी के चरण स्पर्श में कैसी आपत्ति?
आपत्ति है, बेटा। मैं नहीं हूँ आपका गुरु. स्त्री का गुरु है उसका पति.-कहा था उन्होंने

बार बार याद आती है वह बात ; स्त्री का गुरु है उसका पति !!
मन ही मन कई बार पूछा पिताजी से - यह कैसा न्याय है आपका?
पति चुनने का अधिकार तो आपके समाज ने स्त्री से पहले ही छीन लिया था,
आपने गुरु चुनने का अधिकार भी छीन लिया?
आपने तो अपनी ओर से सम्मान दिया स्त्री जातक को, स्त्री जाति को

- चाहे वह किसी भी आयु की हो चरण छूने से रोक दिया; आशीर्वाद दिया, शुभ कामनाएँ दीं ।

अच्छा किया।
पर पति को गुरु घोषित करके कहीं स्त्री के लिए विद्या,ज्ञान और साधना द्वार पर एक स्थायी पहरेदार तो नहीं खड़ा कर दिया ?

वह जिज्ञासा मन में रही - बाल मन की जिज्ञासा थी।
पर आज भी जब कोई छात्रा चरण स्पर्श के लिए झुकती है तो उस आचरण का संस्कार द्विविधा में डाल देता है मुझे।
नहीं, नहीं; लड़कियाँ पैर नहीं छूतीं हमारे यहाँ
- सहज ही मुंह से निकल जाता है उन्हें बरजता यह वाक्य.
कई बार समझाना भी पड़ा है -
मैं आपकी श्रद्धा को समझता हूँ, लेकिन स्त्री पूजनीय है हमारे लिए;
अरे, हम तो कन्या के चरण स्पर्श करते हैं।
[कई बार अपने को टटोला तो यह भी लगा कि दम्भी हूँ - शायद इस तरह अपनी छवि बनाता होऊँगा।]कई बार सोचता हूँ - कैसा दोहरा व्यवहार है हमारा!
एक और हम उनके चरण स्पर्श करते हैं और दूसरी और आज भी पैर की जूती समझते हैं।
गृह लक्ष्मियों की जूतों से पूजा आज भी हो रही है- गाँव ही नहीं, शहर में भी; अशिक्षित घरों में ही नहीं, उच्च शिक्षित घरानों में भी।
जब तक अपना गुरु, अपना मार्ग, अपना मुक्ति पथ स्वयं चुनने की अनुमति नहीं, तब तक इस घरेलू हिंसा से बचना कैसे सम्भव है?
कहते हैं , एक समय की बात है
लोग भगवान बुद्ध के पास पहुंचे और शिकायत की कि यदि स्त्रियाँ बौद्ध भिक्षु बन जायेंगी तो हमारे घर कैसे चलेंगे ?
और तब महिलाओं के सम्बन्ध में तथागत ने यह व्यवस्था दी कि स्त्रियों को पिता,पति और पुत्र के आदेश से चलना चाहिए और उनकी अनुमति से ही संघ में सम्मिलित होना चाहिए।
यानि, मुक्ति पथ है स्त्रियों के लिए भी - पर सशर्त !
जब तक पुरूष न चाहे तब तक स्त्री को बंधन में रहना ही है!
ऊपर से यह सवाल कि कैसी मुक्ति?
किससे मुक्ति??
कितनी मुक्ति???
नहीं, व्याख्या की ज़रूरत नहीं।
मुक्ति चाहिए वहाँ वहाँ, जहाँ जहाँ बंधन हैं !!!
किसी के हाथ बंधे हों, पैर भी मुंह भी, आँख नाक कान भी।
और कोई किसी एक बंधन की कोई एक गाँठ खोलकर पूछे -
और कितनी गांठें खोलनी हूँगी?
मसीहा बनने चले हो तो सारी गांठें खोलो न !
एक भी गाँठ कहीं बंधी रह गई तो मुक्ति तो अधूरी रहेगी न?

2 टिप्‍पणियां:

  1. आप के पिता जी की धारणाएँ पूरी तरह से सामंतवादी थीं। सामंतवाद में स्त्री-पुरूष समानता संभव नहीं थी। हमारे दोनों महाकाव्य और तमाम पुराण सामंतवादी अवधारणाओं को लेकर लिखे गए हैं। उन का आज तक असर है। आप को नए जमाने के नए काव्य रचने होंगे जिन में स्त्री-पुरुष समानता का बिगुल बजाना होगा।

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  2. दिनेश राय द्विवेदी जी की विशेषज्ञ-टिप्पणी वास्तव में ज्ञान वर्धक है..
    उनकी सदाशयता के लिए स्तंभकार आभारी है.

    जवाब देंहटाएं

आपकी प्रतिक्रियाएँ मेरे लिए महत्वपूर्ण हैं।अग्रिम आभार जैसे शब्द कहकर भी आपकी सदाशयता का मूल्यांकन नहीं कर सकती।आपकी इन प्रतिक्रियाओं की सार्थकता बनी रहे इसके लिए आवश्यक है कि संयतभाषा व शालीनता को न छोड़ें.

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