गालियाँ, चरित्रहनन, आत्मस्वीकृतियाँ : कलंक : मानसिकता व भाषा के बहाने स्त्रीविमर्श
- (डॉ.) कविता वाचक्नवी
हिन्दी की लेखिकाओं के लिए जिस भाषा-व्यवहार का प्रसंग भारत व हिन्दी साहित्य में अभी चला, वह नवीनतम उदाहरण है ; जो हमें किन्हीं चीजों पर विचार करने और अपने को समझने (+बदलने) का अवसर देता है |
इस पूरे प्रकरण में दो बातें परस्पर गुँथी हैं। पहली है - वर्तमान साहित्य पर टिप्पणी और दूसरी है - टिप्पणी का महिला- केन्द्रित होना, जेंडर मूलक / आधारित होना | गलती टिप्पणी में नहीं टिप्पणी के लिंग (जेंडर) आधारित होने में हैं |
क्या यह सच नहीं कि इधर गत कुछ वर्षों में साहित्य में यथार्थ के नाम पर अथवा सन्स्मरणों के नाम पर या आत्मस्वीकृतियों के नाम पर जो कुछ लिखा जाता रहा है , वह इतना वाहियात, घटिया व लज्जास्पद है कि उसे साहित्य कहना साहित्य का अपमान है?
विचारणीय यह है कि क्या यह सब मात्र स्त्रियाँ ही लिख रही हैं ? एक वास्तविक चरित्र को जब ‘हंस’ में द्रौपदी कह कर अपमानित किया जाता है, जब छत्तीसगढ़ की सद्यप्रसवा आदिवासी युवती को एक शेयर्डकक्ष में आधी रात को कामक्रीडा के लिए खरीद कर बुलाए जाने व स्तनपान के लक्षण दिखाई देने आदि के घिनौने यथार्थ की आत्मस्वीकृतियों के बहाने सस्ती लोकप्रियता बटोरते हुए महान् बनने की कवायद की जाती है, तब कहाँ सो जाते हैं साहित्य के पहरुए ? ... और कहाँ चली जाती हैं महिला के सम्मान के लिए लड़ने वाली स्त्री- पुरुष आवाजें ? तब साहित्य को पतनोन्मुख करने ( अपितु साहित्य से अधिक निजी पतनशीलता के प्रमाण देने में ) कोई पक्ष कमतर नहीं ठहरा | आज जो लोग साहित्य के पतन के लिए चिंतित हो टहल गए , कहाँ सो गए थे तब वे ? और जो इस टहला टहली से खिन्न रुष्ट हो अपनी इज्जत के लिए लड़ रहे हैं तब वे कहाँ सोए थे ? क्या उन प्रसंगों में तार तार हुई स्त्रियों की इज्जत, इज्जत नहीं थी ? क्या उन्हीं स्तंभों में स्त्रियाँ भी उसी तर्ज पर नहीं लिखती रहीं ? तो फिर मलाल कैसा ? दोनों तरह वालों को अब सुध आई ? .... तो आई क्यों ?
साहित्य का चीर हरण करने वालों की भीड़ में किसी का भी पक्ष लेना कदापि न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता | स्थिति एक दम वही है, जो द्रौपदी के सम्मान की राजदरबार में हुई थी | चीरहरण और भरे दरबार में अपमानित करने के जितने दोषी कौरव थे, उतने ही वे पांडव भी, जिन्होंने कुलवधू को दाँव पर लगा दिया था | मेरे जैसा व्यक्ति उस पतन पर लज्जित है, साहित्यिक द्रौपदी की पीड़ा और त्रास पर दुखी है, दोनों दलों द्वारा अपने अपने स्वार्थ अथवा मनोरंजन के लिए राजदरबार में प्रयोग की जाती लेखन रूपी पाँचाली के क्रंदन से विचलित है |
अब ज़रा आगे बढ़ें तो इस घटना के बहाने और चीजें साफ़ हुई हों या न हुई हों किन्तु यह बात एकदम साफ़ हुई कि सबसे इज़ी टार्गेट हैं महिलाएँ | एक पक्ष का बस चला और अवसर मिला तो वह दूसरे को छोटा दिखाने के लिए स्त्री को अपमानित करती, व्यभिचारिणी सिद्ध करती हुई गाली देगा और जब दूसरे को अवसर मिला तब भी गाली स्त्रियों को दी जाएगी, उन्हीं का चरित्र हनन किया जाएगा |
मामला इतना-भर नहीं है; अपितु मजेदार बात तो यह है कि एक पक्ष की गाली के विरोध में उठे स्वर भी दूसरे पक्ष की स्त्री को गाली देते आगे बढ़ते हैं | कुलपति के शब्द प्रयोग पर धिक्कारने व गाली देने के सिलसिले में जहाँ लेखकों व लेखिकाओं तक ने ममता कालिया व श्रीमती नारायण सहित उक्त वि. वि. में किसी भी प्रसंग या कारण से भूमिका निभाने वाली स्त्रियों तक को अपमानित किया व वही सब ठहराने की चेष्टा में आरोप प्रत्यारोप बरते, वे उसी मानसिकता का परिचय देते हैं कि आपसी युद्धों में भारतीय समाज स्त्री को ही कलंकित करता है , स्वयं स्त्रियाँ तक भी | हिन्दी के ब्लॉग जगत् में भी यहाँ तक कह दिया गया कि अमुक अमुक अवसर पर अमुक अमुक ( कोई न कोई ) स्त्री उक्त वि वि में भागीदारी के लिए पहुँच जाएगी, वह वहाँ कैसे पहुँची ..... आदि आदि आदि | जिस प्रकार के शब्द के लिए एक पक्ष को कोसा और आरोपित किया जाता है, उसी तरह का काम दूसरा पक्ष स्वयं कर रहा होता है |
क्यों जी, यह कहाँ का न्याय है कि दोष किसी का भी हो, किन्तु कलंकित की जाएगी स्त्री ही , चरित्रहनन होगा स्त्री का, गाली मिलेगी स्त्री को ?
समाज में सदा से यही होता आया है | युद्ध करेगा पुरुष; कभी मद में, कभी उन्मत्त हो कर, कभी क्रोध में, कभी लोभ में, कभी शौकिया या आदतन किन्तु भोगी जाएँगी स्त्रियाँ, या भेंट में दी जाएँगी | आधुनिक युद्धों में भी यही स्थिति है , भले ही वे साम्प्रदायिक हों अथवा इतर |
क्या ऐसा इसीलिए कि स्त्री ही सबसे कमजोर प्राणी है समाज का ? या इसलिए कि स्त्री की समाज में स्थिति सबसे बुरी है, सबसे घटिया |
निस्संदेह कभी न कभी अपने आसपास के लोगों की निकृष्टता देख उन्हें गालियाँ देने का मन सब का होता है किन्तु क्या यह विचार का विषय नहीं है कि गालियाँ स्त्री-केन्द्रित ही क्यों हों, लैंगिक ही क्यों हों ? संस्कृत में कभी कोई गाली लैंगिक नहीं रही | न ही मात्र स्त्री केन्द्रित | अपितु सीधे सीधे उसे दोषी या आरोपित करने वाली गाली होती रही हैं, जो सीधे स्वयं उत्तरदायी है या कह लें जिसे गाली दी जा रही है | यही स्थिति आज भी पूर्वोत्तर भारत की बोलियों में है.
हम लोग जब गुरुकुल में पढ़ा करते थे तो ऐसी ऐसी गालियाँ प्रयोग करते थे कि आज भी उनकी संरचना व सृजनात्मकता को लेकर मन से वाह निकलती है; किन्तु कभी कोई गाली लैंगिक शब्दावली की नहीं थी. लैंगिक शब्दावली कि गालियों का निहितार्थ ही यह है कि एक पक्ष दूसरे पक्ष की स्त्रियों के प्रति कुत्साभाव से ग्रस्त है व सब से `ईज़ी टार्गेट' (अर्थात् स्त्री) को निशाना बनाकर, अपमानित कर के अपने क्रोध को शांत करना चाहते हैं |
साहस हो तो यह हो कि कोई भी पक्ष बिना किसी भी पक्ष की स्त्री के प्रति कुत्सा लिए स्वयं आपस में निपटे | सीधे सीधे दोषी या दुष्ट को धिक्कारें, न कि एक दूसरे पक्ष की स्त्री को व्यभिचारिणी सिद्ध करें या अश्लील भाषा से कलंकित करें |
इस गाली पुराण का एक दूसरा पक्ष यह भी है कि हिन्दी- समाज में सारी की सारी गालियाँ स्त्री को लगती हैं ( उन पर केन्द्रित होती हैं) चाहे दी भले वे पुरुष को जा रही हों ; और सारे के सारे आशीर्वाद पुरुष को लगते है ( उसके लिए सुरक्षित होते हैं ) भले ही दिए वे चाहे स्त्री को जा रहे हों |
उस समाज पर आप क्या कहिएगा जिसकी सारी गालियाँ स्त्री के लिए सुरक्षित हैं व सारी आशीर्वाद पुरुष के लिए |
मुझे चिंता इस समाज की है; न कि इस पक्ष या उस पक्ष की |
आपकी चिंता का विषय कौन व क्या है ? ...... बताइयेगा ?
कविता जी,
जवाब देंहटाएंचिंता का कोई विषय ही नहीं है। जब तक समाज में स्त्रियों के साथ गैर बराबरी रहेगी, यह सब चलता रहेगा। गैर बराबरी के वजूद की वजह है निजि संपत्ति और उस के उत्तराधिकार का अधिकार। प्रकृति ने पुरुष को यह अधिकार नहीं दिया कि वह जाने की उस की संतान कौन है। आधुनिक साधन विकसित होने तक। इस के लिए वह स्त्री पर ही निर्भर रहा। अपनी इस स्त्री-निर्भरता को तोड़ने के लिए उस ने ऐसे समाज का निर्माण कर डाला जिस में स्त्री पूर्णतः उस के अधीन थी। इस पराधीनता को केवल व्यक्तिगत संपत्ति के अधिकार को नष्ट कर के समाप्त किया जा सकता है।
उस समाज का आप क्या कहिएगा जहां सभी गालियां स्त्रियों को दी जाती हं और और आशीर्वाद पुरूषों को ...
जवाब देंहटाएंबहुत सही लिखा है आपने .. कोई भी जमाना आ जाए .. स्त्रियों की स्थिति वही रहेगी .. आंचल में है दूध और आंखों में पानी !!
विरोध व्यक्ति विरोध नहीं है.ये एक सोच के विरुद्ध विरोध है ....असहमतिया जताने के शालीन तरीके भी होते है ....ओर कुछ प्रबुद्ध विद्वानों से इसकी अपेक्षा ज्यादा होती है .जाहिर है झुग्गी झोपड़े वाले के स्तर ओर .पढ़े लिखे व्यक्ति के बीच कोई अंतर तो होगा ....पर वे ये प्रूव करते है के हम कागजो से अलग है जी ....इस मुद्दे पे दोनों ओर से जो भाषा इस्तेमाल हुई उससे हिंदी साहित्य का जो क्षति हुई है.....शायद उसकी भरपाई में वक़्त लग जाये....
जवाब देंहटाएंकभी कभी सोचता हूँ उर्दू में जितना खुला लेखन इस्मत चुगताई ओर दूसरी मोहतरमायो ने किया है ...हिन्दीमे क्यों नहीं हो पाया .अब कारण पता चलता है ..लेखको के भीतर का पुरुष मरा नहीं है .......
युद्ध में लक्ष्य दुश्मन का अपमान करना होता है , सामने वाले के सबसे कमज़ोर पक्ष पर प्रहार किया जाता है चूंकि घर की स्त्रिया, दुश्मन के द्वारा रक्षित होती हैं और सीधे सीधे उसके सम्मान से जुडी होती हैं अतः अगर स्त्रियों को दासी बनाया जाए अथवा उनपर कब्ज़ा जमाया जाये ...तो युद्ध का लक्ष्य प्राप्त हो जाता था ! यही दुश्मन की सबसे बड़ी पराजय मानी जाती रही है !
जवाब देंहटाएंकट्टर दुश्मनी की परिणिति आज भी यहीं होती है और कष्ट इन निरपराधों को भुगतना पड़ता है !
समय भले बदल जाये मगर न यह युद्ध बदलेंगे न या मानसिकता ! एक अच्छे लेख के लिए आपको शुभकामनायें !
स्त्री बनाम पुरुष सरोकारों की बहस को मानवीय और सामाजिक सरोकारों पर केंद्रित करने का सत्प्रयास इस प्रस्तुति को दस्तावेजी महत्व प्रदान करता है.
जवाब देंहटाएंइस बार आपके लिए कुछ विशेष है...आइये जानिये आज के चर्चा मंच पर ..
जवाब देंहटाएंआप की रचना 06 अगस्त, शुक्रवार के चर्चा मंच के लिए ली जा रही है, कृप्या नीचे दिए लिंक पर आ कर अपने सुझाव देकर हमें प्रोत्साहित करें.
http://charchamanch.blogspot.com
आभार
अनामिका
एक बेहद संवेदनशील मुद्दा उठाया है आपने और जरूरी भी है और इसके लिये हम स्त्रियों को ही पहल करनी होगी बिना ये सोचे कि समाज क्या सोचता है तभी इसका परिदृश्य बदलेगा और स्त्रियों को उनका सम्मान मिलेगा।
जवाब देंहटाएंबहुत सार्थक लेख है....विचारणीय बात कही है...सच है की सारी गलियां स्त्री से ही जुडी होती हैं भले ही वो किसी को भी दी जा रही हों ...मानसिकता कब बदलेगी..?
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