परत-दर-परत
इन्हें चाँद चाहिए
राजकिशोर
अलोकप्रिय या अलोकप्रिय बना देनेवाली बात कहने से घबराना नहीं चाहिए, यह सिद्धांत 'हितोपदेश' से जरा आगे का है। प्रस्ताव यह है कि 'सत्य वही बोलो जो प्रिय भी हो' की नीति व्यक्तिगत मामलों के लिए तो ठीक है, पर सामाजिक मामलों में कटुतम सत्य बोलने की जरूरत हो तो संकोच नहीं करना चाहिए। इसी आधार पर स्त्रियों के यौन शोषण के एक तकलीफदेह पहलू की ओर ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ। आशा है, मेरी नीयत पर शक नहीं किया जाएगा। लेकिन कोई शक करता भी है, तो मुझे परवाह नहीं है। यह लड़ाई सच की है और सच के मामले में निजी फायदा-नुकसान नहीं देखा जाता।
तो किस्सा यह है कि यौन शोषण के हर मामले में पुरुष ही सब तरह से दोषी नहीं होता। यह सच है कि पुरुष से भी हम वैसे ही संयम की उम्मीद करते है जैसे स्त्री से। किसी स्त्री की स्थिति का लाभ उठाना महापाप है। यह हर स्त्री जानती है कि वह जैसी भी है, पुरुष कामना का विषय है। भगवान ने उसे ऐसा ही बनाया है। यदि ऐसा नहीं होता, तो इस सृष्टि या जगत के जारी रहने में गंभीर बाधा आ जाती। यह स्त्री की शक्ति भी है। प्रेम या विवाह में स्त्री की इस शक्ति और पुरुष की कामना का सुंदर समागम होता है। स्त्री-पुरुष के साहचर्य में यह समागम केंद्रीय होना चाहिए। बाकी सब छल या माया है।
स्त्री पर भी इस छल या माया का आरोप लगाया गया है। अनेक मामलों में पाया गया है कि पुरुष ही स्त्री को प्रदूषित नहीं करता, स्त्री भी पुरुष को प्रदूषित करती है। यौन जीवन के सभी सर्वेक्षणों में यह तथ्य उजागर होता रहा है कि कई पुरुषों ने स्त्रीत्व का पहला स्वाद अपने से ज्यादा उम्र की भाभी, चाची या मामी से प्राप्त किया था। मैं यह नहीं कह सकता कि यह अनैतिक है। जो बहुत-से मामले नैतिक-अनैतिक के वर्गीकरण से परे हैं, उन्हीं में एक यह है। सभी मनुस्मति या भारतीय दंड संहिता को कंठस्थ करने के बाद जीवन के गुह्य पहलुओं का ज्ञान या अनुभव प्राप्त नहीं करते। संस्कृति के साथ-साथ प्रकृति के भी दबाव होते हैं। संत वही है जो इस दबाव से मुक्त हो गया है। बाकी सभी लोग कामना और कर्तव्य के बीच झूलते रहते हैं तथा पारी-पारी से आनंद का सुख और ग्लानि का दंश महसूस करते हैं।
इसीलिए दुनिया में सच है तो धोखा भी है। कोई गुरु अपनी शिष्या को, मैनेजर अपनी अधीनस्थ कर्मचारी को और नेता अपनी अनुयायी को धोखे में रख कर यौन सुख हासिल करता है, तो वह इसलिए अपराधी है कि उसने अपनी उच्चतर स्थिति का नाजायज फायदा उठाया है। किसी अत्यंत पवित्रतावादी समाज में ऐसे अपराधियों को गोली से उड़ा दिया जाएगा। कुछ मामलों में सच्चा प्रेम भी हो सकता है, जिसका अपना आनंद और अपनी समस्याएँ हैं, पर अधिकतर मामलों में किस्सा शोषण का ही होता है। माओ जे दुंग की सीमाहीन बहुगामिता का खुला रहस्य यही है। भारत में जनतंत्र है, पर यहाँ भी ऐसे किस्से अनंत हैं। यहाँ तक कि साधु, योगी, तांत्रिक और मठाधीश भी संदेह के घेरे से बाहर नहीं निकल पाते।
लेकिन ऐसी स्त्रियों की उपस्थिति से कौन इनकार कर सकता है जो अपने स्त्रीत्व के आकर्षण का अवसरवादी लाभ उठाती हैं? वे जानती हैं कि पुरुष की नजर में वे काम्य हैं और इस काम्यता का लाभ उठाने की लालसा का दयनीय शिकार हो जाती हैं। किसी को एमए में फर्स्ट होना है, किसी को, अपात्र होने पर भी, लेक्चररशिप चाहिए, कोई चुनाव का टिकट पाने के लिए लालायित है तो किसी को, परिवार की आय कम होने के बावजूद, ऐयाशी और मौज-मस्ती का जीवन चाहिए। किसी को टीवी पर एंकर बनना है, कोई फिल्म में रोल पाने के लिए बेताब है, कोई अपनी कमजोर रचनाएँ छपवाना चाहती हैं, किसी को जल्दी-जल्दी प्रमोशन चाहिए तो कोई लाइन तोड़ कर आगे बढ़ना चाहती है। कोई-कोई ऐसी भी होती है जो खुद पीएचडी का शोध प्रबंध नहीं लिख सकती और अपने प्रोफेसर-सुपरवाइजर से लिखवा कर अपने नाम के पहले डॉक्टर लिखना चाहती है। ज्यादा उदाहरण देना इसलिए ठीक नहीं है कि हमें समाज का बखिया उधेड़ने में कोई दिलचस्पी नहीं है। पर यह जरूर याद दिलाना चाहते हैं कि जिस स्त्री शक्ति के परिणामस्वरूप ये सारी इच्छाएँ आनन-फानन में पूरी की जा सकती हैं, उसी का राजनीतिक उपयोग करते हुए सामंती काल में सुंदर कान्याओं को विष का क्रमिक आहार देते हुए और उसकी मात्रा बढ़ाते हुए विषकन्या का करियर अपनाने के लिए बाध्य किया जाता था। आज भी जासूसी के काम में स्त्रियों को लगाया जाता है। जिस आकर्षण का दुरुपयोग वे राज्य के काम के लिए कर सकती हैं, उसका अनैतिक इस्तेमाल वे अपने अवैध स्वार्थों की पूर्ति के लिए क्यों नहीं कर सकतीं?
एक बात तो तय है। किसी भी स्त्री से उसकी सहमति के बगैर संबंध नहीं बनाया जा सकता। बहुत-सी ऐसी स्त्रियाँ भी यौन हेरेसमेंट का शिकार बनाए जाने की शिकायत करती हैं जिन्होंने यह हरेसमेंट काफी दिनों तक इस उम्मीद में सहन किया कि उनका काम हो जाएगा। जब काम नहीं बनता, तो वे शिकायत करने लगती हैं कि मेरा शोषण हुआ है या मुझे परेशान किया गया है। मुझे रत्ती भर भी संदेह नहीं कि ऐसे मामलों में भी पुरुष ही अपराधी है। लेकिन यह सोच कर कम दुख नहीं होता कि कि हमारी बेटियाँ-बहनें इस जाल में अपनी मर्जी से दाखिल ही क्यों होती हैं। 'हम प्यार में धोखा खा बैठे' -- यह एक स्थिति है। दूसरी स्थिति यह है कि यह धोखा जान-बूझ कर खाया गया, क्योंकि नजर कहीं और थी। यह एक ऐसा मायावी संबंध है, जिसमें दोनों शिकार होते हैं और दोनों ही शिकारी।
कुल मिला कर स्थिति बहुत ही पेचीदा है। पुरुष की ओर से पेच ज्यादा हैं, पर कभी-कभी स्त्री भी पेच पैदा करती है। इसलिए 'सब धान तेइस पसेरी' का सोच एकांगी है। फिर भी, स्त्रियों का दोष कम करके आँका जाना चाहिए, क्योंकि वे जन्म से ही अन्याय और भेदभाव का शिकार होती हैं तथा अनुचित तरीके से अवैध लाभ हासिल करने के लालच में पड़ जाती हैं। ये अगर चाँद की कामना न करें, तो इनकी गरिमा को कौन ठेस पहुंचा सकता है?