थोड़ी-सी लिपस्टिक आपके लिए भी
- शोभा डे
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पिछले दिनों हमारे कुछ राजनीतिज्ञ अपने बयानों के कारण चर्चा में रहे. एक बयान दिया भाजपा नेता मुख्तार अब्बास नक़वी ने. उनके बयान पर जानी-मानी लेखिका शोभा डे ने एक तल्ख टिप्पणी की हिन्दुस्तान टाइम्स में. मुझे उनकी ज़्यादातर बातें सही लगीं. शोभा डे की टिप्पणी वे लोग भी पढ़ें जो हिन्दुस्तान टाइम्स नहीं पढ़ते, इसी खयाल से मैं उस टिप्पणी का अनुवाद यहाँ दे रहा हूँ: - दुर्गाप्रसाद
हाँ, मुख्तार नक़वी जी, मैं लिपस्टिक लगाती हूँ. लेकिन, पाउडर नहीं लगाती. और हाँ, मैं उस दक्षिण मुम्बई में रहती हूँ जिसे एक अभिजात रिहायश माना जाता है (हालाँकि उसे एक अभिजात स्लम कहना ज़्यादा सही होगा). मैं अक्सर पाँच सितारा होटलों में जाती हूँ, खास तौर पर भव्य ताज महल होटल में. मैं बिना किसी संकोच के उसे अपना दूसरा घर कहती हूँ, क्योंकि वो मेरा दूसरा घर है.
ज़्यादातर मानदण्डों के अनुसार मेरी जीवन शैली को विशिष्ट कहा जा सकता है.
तो?
इन सुख सुविधाओं के लिए मैंने लम्बे समय तक कठिन श्रम किया है. इन सबको मैंने ईमानदार साधनों से जुटाया है. मुझे अमीरी विरासत में नहीं मिली और मेरा पालन-पोषण एक मध्यम वर्गीय घर-परिवार में हुआ. सभी भारतीय अभिभावकों की तरह मेरे माँ-बाप ने भी शिक्षा के माध्यम से अपने बच्चों को एक बेहतर ज़िन्दगी देने का ख्वाब देखा. हमने उनके सपनों को, और कुछ अपने सपनों को भी, साकार किया. क्या यह कोई ज़ुर्म है?
मैं गर्व पूर्वक अपना टैक्स अदा करती हूँ और अपने तमाम बिल भरती हूँ. लेकिन क्या ऐसा ही आपकी बिरादरी के अधिकाँश लोगों, जो वर्तमान समय के असली अभिजन हैं, के लिए भी कहा जा सकता है? मेरा इशारा राजनीतिज्ञों की तरफ है जिनकी जवाबदेही शून्य है लेकिन जो उन तमाम सुविधाओं का भोग करते हैं जिनके लिए वे अन्यों की आलोचना करते हैं. अपनी जीवन शैली के लिए लज्जित होने से मैं इंकार करती हूँ. कहावत है न कि बदला लेने का सबसे बढिया तरीका है बेहतर ज़िन्दगी जीना.
बहुतेरे तथाकथित नेताओं के विपरीत मेरा कोई आपराधिक रिकॉर्ड नहीं है. जब मैं घर से बाहर निकलती हूँ तो उम्दा कार में निकलती हूँ, लेकिन वह कार कोई चलता फिरता दुर्ग नहीं होती जिसकी रक्षा सरकारी खर्च पर पलने वाले बन्दूक धारियों का समूह किया करता है. जब मैं निकलती हूँ तो मेरे कारण ट्रैफिक को दूसरे रास्तों पर मोड़ कर औरों के लिए असुविधा पैदा नहीं की जाती. हवाई अड्डों पर दूसरों की तरह मेरी भी तलाशी ली जाती है.
इसलिए मिस्टर नक़वी, आपकी हिम्मत कैसे हुई इस तरह की अनुपयुक्त और अवांछित टिप्पणी करके मुझे (और अन्य स्त्रियों को) नीचा दिखाने की? हम लोग प्रोफेशनल हैं जो अपनी भरपूर क्षमता का प्रयोग करते हुए अपने दायित्वों का निर्वहन कर रहे हैं. क्या आप भी ऐसा ही दावा कर सकते हैं? हम लोग चाहें लिपस्टिक लगायें, अपने चेहरों पर पाउडर पोतें, विग लगायें या कृत्रिम भौंहें लगायें, यह हमारा अपना निजी मामला और विशेषाधिकार है. आपकी यह टिप्पणी सिर्फ महिलाओं और विशेष रूप से उन शहरी कामकाजी महिलाओं के बारे में, जो कि आप जैसों के द्वारा निर्धारित पारम्परिक छवियों की अवहेलना करती हैं, आपके एकांगी और पक्षपातपूर्ण रवैये का दयनीय प्रदर्शन मात्र है.
आपकी और आप जैसे उन स्व-घोषित बुद्धिजीवियों जिन्होंने अभिजात लोगों को गरियाने का एक नया खेल तलाशा है, की यह टिप्पणी ऐसे वक़्त में आई है जब हमारा ध्यान अधिक महत्व के मुद्दों, जैसे घेरेबन्दी के समय में जीवित रहने की चुनौती पर, केन्द्रित होना चाहिए था. समाज के अधिक समृद्ध/शिक्षित लोगों पर इस प्रहार से एक रुग्ण संकीर्ण मानसिकता का पता चलता है.
मेरी आवाज़ की भी वही वैधता है जो एक अनाम सब्ज़ी विक्रेता की आवाज़ की है, क्योंकि हम दोनों भारत के नागरिक हैं. क्या आप यह कहना चाहते हैं कि वे टी वी एंकर जो लिपस्टिक या पाउडर का इस्तेमाल नहीं करतीं, अपने काम में दूसरों से बेहतर हैं? क्या राजनीति के क्षेत्र में काम करने वाली औरतों को इसलिए सौन्दर्य प्रसाधनों से परहेज़ करना चाहिए ताकि उन्हें (निश्चय ही मर्दों द्वारा) अधिक ‘गम्भीरता’ से लिया जा सके? क्या सार्वजनिक जीवन में काम करने वाली महिलाओं को इसलिए घटिया कपड़े पहनने चाहियें कि उनकी विश्वसनीयता अधिक बढी हुई नज़र आए और समाज द्वारा उन्हें जो भूमिका प्रदान की गई है वे उसके उपयुक्त दिखाई दें? क्या लिपस्टिक उनके योगदान और योग्यता का अपहरण कर लेती है?
सवाल उस महिला कोण्डोलिज़ा राइस से भी पूछा जाना चाहिए जो सालों से दुनिया की मोस्ट स्टाइलिश सूची में जगह पाती रही हैं. पूछा सोनिया गाँधी से भी जाना चाहिए जो हर वक़्त त्रुटिहीन वेशभूषा में नज़र आती हैं, और लिपस्टिक भी ज़रूर ही लगाती हैं. और हाँ, मैं अपनी नई करीबी दोस्त जयंती नटराजन को भला कैसे भूल सकती हूँ?
बहुत दुख की बात है कि वर्तमान संकट के दौरान लैंगिक भेद का मुद्दा बीच में लाकर श्री नक़वी ने सारे मुद्दों को इतना छोटा बना दिया. जॉर्ज़ फर्नाण्डीज़ ने अपनी ज़मीन उस वक़्त खो दी थी जब उन्होंने कोका कोला के विरुद्ध लड़ाई शुरू करने का फैसला किया था. नक़वी शायद अपनी लड़ाई लिपस्टिक के खिलाफ लड़ रहे हैं.
अफसोस की बात है कि मुम्बई ने जो यातना झेली उसे एक तरह के ऐसे वर्ग युद्ध तक सिकोड़ दिया गया जिसमें बेचारे अभिजन से यह आशा की जा रही है कि वे यह कहते हुए अपना बचाव करें कि “नहीं, नहीं, इस हमले में जान देने वालों के लिए हमें भी कम अफसोस नहीं है.” अब तो बड़े हो जाइए. यह एक भयावह ट्रेजेडी थी. ट्रेजेडी को भी एक ऐसे चेहरे या छवि की ज़रूरत होती है जो सामूहिक वेदना को व्यक्त कर सके. और इसी कारण ताजमहल होटल ने उस छवि, उस प्रतीक का रूप धारण किया जो पूरे देश के उस त्रास, उस वेदना, उस पीड़ा को अभिव्यक्त करता है. आप क्यों उसे वर्ग में बाँट रहे हैं?
ज़्यादातर मानदण्डों के अनुसार मेरी जीवन शैली को विशिष्ट कहा जा सकता है.
तो?
इन सुख सुविधाओं के लिए मैंने लम्बे समय तक कठिन श्रम किया है. इन सबको मैंने ईमानदार साधनों से जुटाया है. मुझे अमीरी विरासत में नहीं मिली और मेरा पालन-पोषण एक मध्यम वर्गीय घर-परिवार में हुआ. सभी भारतीय अभिभावकों की तरह मेरे माँ-बाप ने भी शिक्षा के माध्यम से अपने बच्चों को एक बेहतर ज़िन्दगी देने का ख्वाब देखा. हमने उनके सपनों को, और कुछ अपने सपनों को भी, साकार किया. क्या यह कोई ज़ुर्म है?
मैं गर्व पूर्वक अपना टैक्स अदा करती हूँ और अपने तमाम बिल भरती हूँ. लेकिन क्या ऐसा ही आपकी बिरादरी के अधिकाँश लोगों, जो वर्तमान समय के असली अभिजन हैं, के लिए भी कहा जा सकता है? मेरा इशारा राजनीतिज्ञों की तरफ है जिनकी जवाबदेही शून्य है लेकिन जो उन तमाम सुविधाओं का भोग करते हैं जिनके लिए वे अन्यों की आलोचना करते हैं. अपनी जीवन शैली के लिए लज्जित होने से मैं इंकार करती हूँ. कहावत है न कि बदला लेने का सबसे बढिया तरीका है बेहतर ज़िन्दगी जीना.
बहुतेरे तथाकथित नेताओं के विपरीत मेरा कोई आपराधिक रिकॉर्ड नहीं है. जब मैं घर से बाहर निकलती हूँ तो उम्दा कार में निकलती हूँ, लेकिन वह कार कोई चलता फिरता दुर्ग नहीं होती जिसकी रक्षा सरकारी खर्च पर पलने वाले बन्दूक धारियों का समूह किया करता है. जब मैं निकलती हूँ तो मेरे कारण ट्रैफिक को दूसरे रास्तों पर मोड़ कर औरों के लिए असुविधा पैदा नहीं की जाती. हवाई अड्डों पर दूसरों की तरह मेरी भी तलाशी ली जाती है.
इसलिए मिस्टर नक़वी, आपकी हिम्मत कैसे हुई इस तरह की अनुपयुक्त और अवांछित टिप्पणी करके मुझे (और अन्य स्त्रियों को) नीचा दिखाने की? हम लोग प्रोफेशनल हैं जो अपनी भरपूर क्षमता का प्रयोग करते हुए अपने दायित्वों का निर्वहन कर रहे हैं. क्या आप भी ऐसा ही दावा कर सकते हैं? हम लोग चाहें लिपस्टिक लगायें, अपने चेहरों पर पाउडर पोतें, विग लगायें या कृत्रिम भौंहें लगायें, यह हमारा अपना निजी मामला और विशेषाधिकार है. आपकी यह टिप्पणी सिर्फ महिलाओं और विशेष रूप से उन शहरी कामकाजी महिलाओं के बारे में, जो कि आप जैसों के द्वारा निर्धारित पारम्परिक छवियों की अवहेलना करती हैं, आपके एकांगी और पक्षपातपूर्ण रवैये का दयनीय प्रदर्शन मात्र है.
आपकी और आप जैसे उन स्व-घोषित बुद्धिजीवियों जिन्होंने अभिजात लोगों को गरियाने का एक नया खेल तलाशा है, की यह टिप्पणी ऐसे वक़्त में आई है जब हमारा ध्यान अधिक महत्व के मुद्दों, जैसे घेरेबन्दी के समय में जीवित रहने की चुनौती पर, केन्द्रित होना चाहिए था. समाज के अधिक समृद्ध/शिक्षित लोगों पर इस प्रहार से एक रुग्ण संकीर्ण मानसिकता का पता चलता है.
मेरी आवाज़ की भी वही वैधता है जो एक अनाम सब्ज़ी विक्रेता की आवाज़ की है, क्योंकि हम दोनों भारत के नागरिक हैं. क्या आप यह कहना चाहते हैं कि वे टी वी एंकर जो लिपस्टिक या पाउडर का इस्तेमाल नहीं करतीं, अपने काम में दूसरों से बेहतर हैं? क्या राजनीति के क्षेत्र में काम करने वाली औरतों को इसलिए सौन्दर्य प्रसाधनों से परहेज़ करना चाहिए ताकि उन्हें (निश्चय ही मर्दों द्वारा) अधिक ‘गम्भीरता’ से लिया जा सके? क्या सार्वजनिक जीवन में काम करने वाली महिलाओं को इसलिए घटिया कपड़े पहनने चाहियें कि उनकी विश्वसनीयता अधिक बढी हुई नज़र आए और समाज द्वारा उन्हें जो भूमिका प्रदान की गई है वे उसके उपयुक्त दिखाई दें? क्या लिपस्टिक उनके योगदान और योग्यता का अपहरण कर लेती है?
सवाल उस महिला कोण्डोलिज़ा राइस से भी पूछा जाना चाहिए जो सालों से दुनिया की मोस्ट स्टाइलिश सूची में जगह पाती रही हैं. पूछा सोनिया गाँधी से भी जाना चाहिए जो हर वक़्त त्रुटिहीन वेशभूषा में नज़र आती हैं, और लिपस्टिक भी ज़रूर ही लगाती हैं. और हाँ, मैं अपनी नई करीबी दोस्त जयंती नटराजन को भला कैसे भूल सकती हूँ?
बहुत दुख की बात है कि वर्तमान संकट के दौरान लैंगिक भेद का मुद्दा बीच में लाकर श्री नक़वी ने सारे मुद्दों को इतना छोटा बना दिया. जॉर्ज़ फर्नाण्डीज़ ने अपनी ज़मीन उस वक़्त खो दी थी जब उन्होंने कोका कोला के विरुद्ध लड़ाई शुरू करने का फैसला किया था. नक़वी शायद अपनी लड़ाई लिपस्टिक के खिलाफ लड़ रहे हैं.
अफसोस की बात है कि मुम्बई ने जो यातना झेली उसे एक तरह के ऐसे वर्ग युद्ध तक सिकोड़ दिया गया जिसमें बेचारे अभिजन से यह आशा की जा रही है कि वे यह कहते हुए अपना बचाव करें कि “नहीं, नहीं, इस हमले में जान देने वालों के लिए हमें भी कम अफसोस नहीं है.” अब तो बड़े हो जाइए. यह एक भयावह ट्रेजेडी थी. ट्रेजेडी को भी एक ऐसे चेहरे या छवि की ज़रूरत होती है जो सामूहिक वेदना को व्यक्त कर सके. और इसी कारण ताजमहल होटल ने उस छवि, उस प्रतीक का रूप धारण किया जो पूरे देश के उस त्रास, उस वेदना, उस पीड़ा को अभिव्यक्त करता है. आप क्यों उसे वर्ग में बाँट रहे हैं?
क्या हमारे राजनीतिज्ञ पाँच सितारा होटलों में सबसे बढ़िया कमरों (और वह भी बिना कोई कीमत अदा किए) की माँग नहीं करते? कम से कम हम शेष लोग उनके लिए भारी कीमत तो चुकाते हैं. क्या भारत के मैले-कुचैले कपड़ों और झोलेवाले बुद्धिजीवी जब भी और जहाँ भी मिल जाए मुफ्त की स्कॉच पीने से बाज आते हैं? साथियों, पहले अपनी दारू की कीमत अदा कीजिए, फिर दुनिया को बचाना.
कहा जाता है कि नारायण राणे के बेटे बेंटली कारों में घूमते हैं और आठ कमाण्डो उनकी रक्षा के लिए तैनात रहते हैं. उनका खर्चा कौन उठाता है? हम जैसे शोषक! जब हमें अपने देश की छवि का अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शन करना होता है तो हम अपने अरबपतियों और बॉलीवुड स्टार्स को आगे कर देते हैं. ये ही वे अभिजन हैं जो संकट के समय राहत-पुनर्वास कार्यों के लिए दिल खोलकर दान देते हैं. मुझे तो नक़वी जैसों की बातों से उबकाई आती है. मैं जैसी हूँ और जैसी नज़र आती हूँ, उसके लिए अगर कोई मुझे ‘अपराधी’ ठहराने की कोशिश करता है तो मुझे घिन आती है.
माफ़ कीजिए नक़वी जी. मेरे होंठों को देखें: लिपस्टिक ज़्यादा तो नहीं है? ज़्यादा गाढी और चमकदार? अगर आप चाहें, मुझ से थोड़ी-सी उधार ले सकते हैं.
◙◙◙अनुवाद: डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल
हिन्दुस्तान टाइम्स में शनिवार, 6 दिसम्बर को प्रकाशित आलेख ‘लिपस्टिक ऑन हिज़ कॉलर’ का मुक्त अनुवाद.
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यह अनुवाद मुझे डॉ. अग्रवाल जी ने उपलब्ध कराया है। इसके लिए उनका आभार व्यक्त करती हूँ।
विषय यहीं समाप्त नहीं हो जाता. इस घटनाक्रम के कुछ पक्ष और हैं जिनकी जानकारी मुझे अत्यधिक विश्वस्त स्रोतों से प्राप्त हुई है। किंतु उसका उल्लेख व उन पर चर्चा आगामी प्रविष्टि में करूँगी। अभी आप इसे पढ़ें व अपनी राय बताएँ ताकि उसे भी अगली प्रविष्टि में समेटा जा सके।- कविता वाचक्नवी
lekh me naqvi ke bahane paise ka ahankar bhi dikh raha hai.
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर उत्तर। किसी को भी किसी मेहनत कर के बने इंन्सान का अपमान कर ने का हक नहीं है। मुश्किल यह है कि खुद की मेहनत से बने और मेहनत से जीवन यापन करते इन्सानों ने भी खुद को खेमों में बांट लिया है। ये सब एक हो लें तो कबाड़ियों का जीना दूभर कर दें।
जवाब देंहटाएंशायद सुबह की दूसरी पोस्ट है जिसमे क्रोध है (पहली मानसिक हलचल थी जिस पर अभी टिपिया कर आ रहा हूँ ).कविता जी इन्सान को उसके परिधान से पहचाना जाता तो सभी सफ़ेद कपड़े वाले उच्च चरित्र वाले होते ओर काले कपड़े बिकते नही...
जवाब देंहटाएंइंसान के चरित्र की पहचान उसके काम से होती है.........नकवी साहब की सोचिये बेचारे बोल कर पचता रहे होगे ! अपने घर से क्या लिपस्टिक बाहर फेक देंगे
Kavita
जवाब देंहटाएंI read the original by Sheba de in the news paper and fully agree with her . Not only that i hv myself suffered in this Hindi bloging world because on my profile i had posted my picture in my office dress code of black trousers and white shirt .
Many comments would come on me because of my dress and when people realised i am not a young woman the comments changed the tone and became " 48 saal par itni fit raktee haen aur western outfit ko pehan tee haen " . besides that people also wrote about my clothes on their invidual blogs if i commented against their thought process .
my poems which are against system were not the point of discussion ever but the discussion was that since i write so vocally and i am unmarried then i am a "whore" yes this is the comment that i got many a times
its not just politcal figures its our entire system our mindset that a discussion betwee a man and woman will always end up in targettign womans body , her clothes and life style.
let me share with all the bloggers a small personal incident
one senior blogger came to visit my mother { she is a reikei grand master } to discuss something
when i came in the room he said "had i known you were living here i would not have come "
when i asked him why he did nothink i would be living with my mother
his answer was you are independent , working , appreciate wester culture and clothes so we thought you must be living alone .
it was his mind set that he believed that all working independent unmarried woman will not like to live with their family
then in the meet in dilli haat sunita shanu told me that most blogger when they talk about me feel i lie that i am unmaaried they feel i am a divorcee
why i am sharing it with you puplicly all this because when i started to blog in hindi in 2007 i thought i am in crowd of broad minded , educated people but i have realised its not so .
there is deep anger with in me for the harassment i got from the bloggers who targetted me because of my life style
its good that you brought up this post
mai nahi padh payi thi Shobha ji ka yah article... share karne ka dhanyavaad.
जवाब देंहटाएंmai nahi padh pai thi shobha ji ka yah article.... share karne ka dhanyavaad
जवाब देंहटाएंकविता जी बदकिस्मती से मैं भी हिंदुस्तान टाइम्स में शोभा जी की टिपण्णी नही पढ़ पाई थी |मैं शोभा जी से सहमत हु और उनकी बेबाकी की कायल भी |पुरुषों की समस्या ये है की वे मानसिक रूप से १०० साल पीछे चल रहे हैं और औरतें मानसिकतामें ही नही बाकि बातों में भी दुनिया के विकसित देशों के बराबर हैं |और इस सत्य को पचा पाना जब मुश्किल हो जाता है तो इस तरह की टिप्पणिया बाहर आती है | खैर अनुवाद मुहैय्या कराने के लिए धन्यवाद .
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