एकालाप - १०
सूने पनघट पर पहुँचीं तुम, बहुत वेदना झेली
शोकगीत : एक लडकी की आत्महत्या पर
भाग[३]
- ऋषभ देव शर्मा
[१३]
बाप हो चला बूढा, तुम थीं युवा हो रही आतुर
मिला चाँद का रूप तुम्हें औ' मधुर कोकिला के सुर ..
जाने किस दिन हाथ सुता के हो पायेंगे पीले?
इस चिंता में स्वयं पिता के अंग हो चले ढीले
एक प्रश्न था बस दहेज़ का उस निर्धन के आगे
पुत्री उसे मिली अनमाँगे , कौन पाप थे जागे !
सबसे कम माँगे दस हज़ार*
दिशाएँ करतीं हाहाकार [१३]
[*यह घटना १९७४ में कोडरमा,बिहार में घटित हुई थी.]
निर्धन की एक मात्र पूंजी , हा ! बस तुम थीं, रूपसि !
जिसके लिए जिया था अब तक वह तुम ही थीं , रूपसि !
कब तक घर में तुम्हें कुँवारी बैठाए रख पाता
आँखों आगे कामदेव के तीरों से मरवाता
पर पैसे के बिना विश्व में क्या कुछ हो पाता है?
सब रिश्ते झूठे हैं जग में, धन सच्चा नाता है!
गरीबों पर बेटी का भार !
विश्व में कौन करे उद्धार?[१४]
विवश पिता ने जाना केवल, अपना एक सहारा .
भीख माँगने हर चौखट पर उसने हाथ पसारा..
यह कंगाली की सीमा थी , सौदा नव यौवन का.
मौन देखता रहा विश्व यह नुच-लुटना तन-मन का..
किंतु तुम्हारा मान किशोरी! आहत होकर जागा.
खा न सका वह जगती को तो तुमको डसने भागा..
हुई थी सचमुच गहरी मार .
प्रकम्पित था मन का संसार..[१५]
मान? मान के पीछे जग में हुआ नहीं है क्या-क्या?
अति विचित्र इतिहास मान का, सुना नहीं है क्या-क्या?
अधरों तक आकर भी प्याला,लौट चले जब यों ही.
स्वप्निल पलकें अविचुम्बित ही उठ जाएँ जब यों ही..
उठी रहें अम्बर में बाहें, बिकें विकल आलिंगन.
आशाएँ हिम से आहत हों, उपालंभ दे कण-कण.
क्षुब्ध करती मन का संसार.
टूटते तारों की झंकार.. [१६]
रोती रहीं रात भर तुम यों, अब क्या होने वाला?
भर-भर करके रहीं रीतती, तुम आंखों का प्याला..
आह! प्रेयसी! सूज गए वे आकर्षणमय लोचन.
तरुणाई अभिशाप बन गई, ज़हर बन गया यौवन..
सब सोए थे बेसुध होकर, तुम उठ चलीं अकेली.
सूने पनघट पर पहुँचीं तुम, बहुत वेदना झेली..
हुआ जलमग्न श्वास संसार
गईं तुम जगती के उस पार..[१७]
रोकर बापू तुम्हें ले चला पनघट से मरघट को .
पर घट से क्या तुम्हें प्रयोजन, पार किया अवघट को॥
घट बनकर तुम स्वयं पी चुकीं सारा ही पनघट तो.
केवल रस्म मात्र को फूटा मरघट में वह घट तो..
जली - स्वर्ण सी देह चिता में अलकों का वह मधुवन।
जला और जल गया अचानक मौन अकेला यौवन..
चिता ही है जीवन का सार!
देवि! नश्वर सारा संसार !![१८]
मिला चाँद का रूप तुम्हें औ' मधुर कोकिला के सुर ..
जाने किस दिन हाथ सुता के हो पायेंगे पीले?
इस चिंता में स्वयं पिता के अंग हो चले ढीले
एक प्रश्न था बस दहेज़ का उस निर्धन के आगे
पुत्री उसे मिली अनमाँगे , कौन पाप थे जागे !
सबसे कम माँगे दस हज़ार*
दिशाएँ करतीं हाहाकार [१३]
[*यह घटना १९७४ में कोडरमा,बिहार में घटित हुई थी.]
निर्धन की एक मात्र पूंजी , हा ! बस तुम थीं, रूपसि !
जिसके लिए जिया था अब तक वह तुम ही थीं , रूपसि !
कब तक घर में तुम्हें कुँवारी बैठाए रख पाता
आँखों आगे कामदेव के तीरों से मरवाता
पर पैसे के बिना विश्व में क्या कुछ हो पाता है?
सब रिश्ते झूठे हैं जग में, धन सच्चा नाता है!
गरीबों पर बेटी का भार !
विश्व में कौन करे उद्धार?[१४]
विवश पिता ने जाना केवल, अपना एक सहारा .
भीख माँगने हर चौखट पर उसने हाथ पसारा..
यह कंगाली की सीमा थी , सौदा नव यौवन का.
मौन देखता रहा विश्व यह नुच-लुटना तन-मन का..
किंतु तुम्हारा मान किशोरी! आहत होकर जागा.
खा न सका वह जगती को तो तुमको डसने भागा..
हुई थी सचमुच गहरी मार .
प्रकम्पित था मन का संसार..[१५]
मान? मान के पीछे जग में हुआ नहीं है क्या-क्या?
अति विचित्र इतिहास मान का, सुना नहीं है क्या-क्या?
अधरों तक आकर भी प्याला,लौट चले जब यों ही.
स्वप्निल पलकें अविचुम्बित ही उठ जाएँ जब यों ही..
उठी रहें अम्बर में बाहें, बिकें विकल आलिंगन.
आशाएँ हिम से आहत हों, उपालंभ दे कण-कण.
क्षुब्ध करती मन का संसार.
टूटते तारों की झंकार.. [१६]
रोती रहीं रात भर तुम यों, अब क्या होने वाला?
भर-भर करके रहीं रीतती, तुम आंखों का प्याला..
आह! प्रेयसी! सूज गए वे आकर्षणमय लोचन.
तरुणाई अभिशाप बन गई, ज़हर बन गया यौवन..
सब सोए थे बेसुध होकर, तुम उठ चलीं अकेली.
सूने पनघट पर पहुँचीं तुम, बहुत वेदना झेली..
हुआ जलमग्न श्वास संसार
गईं तुम जगती के उस पार..[१७]
रोकर बापू तुम्हें ले चला पनघट से मरघट को .
पर घट से क्या तुम्हें प्रयोजन, पार किया अवघट को॥
घट बनकर तुम स्वयं पी चुकीं सारा ही पनघट तो.
केवल रस्म मात्र को फूटा मरघट में वह घट तो..
जली - स्वर्ण सी देह चिता में अलकों का वह मधुवन।
जला और जल गया अचानक मौन अकेला यौवन..
चिता ही है जीवन का सार!
देवि! नश्वर सारा संसार !![१८]
[समाप्त]
बहुत बढिया पोस्ट है।
जवाब देंहटाएंसामाजिक अभिशाप को अभिव्यक्त करती बहुत दर्दनाक अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंआदरणीय
जवाब देंहटाएंपरमजीत बाली जी
दिनेश राय द्विवेदी जी
कविता की सराहना के लिए आपके प्रति आभारी हूँ.
प्रेम बना रहे!
> ऋ .