गुरुवार, 30 अक्टूबर 2008

एकालाप : अभिनव शाकुंतल : स्त्रीविमर्श


एकालाप-11
अभिनव शाकुंतल
- ऋषभ
देव शर्मा




-

यह दूसरी शकुंतला
यह दूसरा दुष्यंत.
इस बार फिर
गान्धर्व विवाह,
इस बार फिर
वही
अपरिचय का नाटक,
वे ही लांछन, वे ही धक्के।



और फिर
आ गया है चक्रवर्ती
भूल के अपराध को
भूल जाने को,
भोली शकुंतला को
राजमहल के
स्वप्न दिखाने को।



शकुंतला
लेकिन शकुंतला नहीं रही.
प्रेम का मायाजाल
और नहीं मोह पाया.
आँखें अंगार हुईं,
उठ गई तर्जनी।




तर्जनी संकेत पर
सिंहों से खेलता
बालक भरत
बोला पास आकर यों-



राजरानी कौन,
राजमाता मैं बनाऊँगा.
सिंहासन मेरा है,
भीख नहीं लूँगा मैं

राजा से छीन लाऊँगा.



3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सही...अच्छा लगा पढ़कर. आभार आपका.

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  2. बहुत सुंदर लिखा। लेकिन भरत तो सब शकुंतलाओं के पास नहीं होते न...। शकुंतला को हर युग में दुष्‍यंत के रहमोकरम पर ही रहना होता है। पता नहीं कब...और ।

    जवाब देंहटाएं
  3. अच्छी रचना
    बेहतरीन
    आपकी प्रस्तुति को बधाई

    जवाब देंहटाएं

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