- कविता वाचक्नवी
ब्लॉग्गिंग ने भले ही हर किसी की छपने की लालसा को बड़ा रास्ता दे दिया हो और भले ही कोई कुछ भी लिख मारने में खूब स्वछंदतावादी होने की और छपास मिटाने की मौज ले रहा हो, पर एक बात जो खटकती है वह यह कि विद्वान व सम्पादकीय सूझ वाले माध्यम से छपने और इस प्रकार छपने में जो एक सम्पादकीय अंकुश होता था, उसके अभाव के परिणाम ब्लॉग - समाज में खूब देखने में आ रहे हैं| आत्मानुशासन में दीक्षित न होने पर ऐसे अंकुश की आवश्यकता रहती ही है।
स्त्री पर लिखना, स्त्री- विषयों की चर्चा अपने ब्लॉग पर करना (अहेतुक?) ब्लॉग पर आने वाली टिप्पणियों के लोभ में तो होता ही है पर गर्मागर्म "सत्यकथाएँ" जैसी अधिक सर्कुलेशन वाली पत्रिकाएँ बनने की लालसा ही बहुधा इनमें निहित रहती ही है, साथ ही इन विषयों में पुरुषों को जो रसातीत( रासातीत ) आनंद आता है उसकी भी भूमिका असंदिग्ध होती है । स्त्री के कपड़े पहनने और उतारने के मुद्दे तो इतने प्रिय हैं ऐसे ब्लोगर्स को कि क्या कहें; और वे बार बार खुल कर लिखते चले आ रहे हैं कि स्त्री को पूरी न ढकी हुई देखने की अवस्था में वे उसके उपभोग को जायज करार देते हैं | (मैंने पूर्व में भी लिखा था कि ) एक बलोगर ( सारथी : शास्त्री जे.सी .फिलिप) ने तो इस आशय तक का लिखा कि कम वस्त्र में स्त्री को देख कर होने वाली उत्तेजना के फलस्वरूप ही बलात्कार होते हैं अत: ऐसी उत्तेजना पुरूष में पैदा करने वाली स्त्रियाँ ही वास्तव में मानसिक बलात्कार की दोषी हैं, उनके लिए दंड का प्रावधान किया जाना चाहिए|
ऐसी ही अनेक प्रगल्भताऑं से भरे जमावड़े को उन जैसे कुछ ब्लॉगस पर देखा जा सकता है| रचना बहुधा ऐसे प्रत्येक जमावड़े से टक्कर लेने से नहीं चूकती हैं और हम सबके नारी ब्लॉग से हटकर दूसरे बलोग्स पर भी ललकार तक देती हैं|मेरी नीति है कि मैं ऐसे बलोग्स पर जाती ही नहीं, हाँ कभी जिक्र आ पड़ने पर देख भी लेती हूँ। आज भी ऐसा ही हुआ। रचना का मेल आने पर व उस प्रकरण पर प्रविष्टि लिखने पर मैंने जब पढ़ा तो स्वयं को अपने ही क्रोध से रोक नहीं पाई| रचना को उन लोगों के लिए लिखा संदेश भेजा कि -
"जब लोगों की चर्चित होने की इच्छा लत बन जाए तो वह कुछ भी करने को तैयार हो जाता है। जिन लोगों को स्त्री को अनावृत्त( क्या स्त्री भला इतनी मूर्ख है कि वह नंगी होकर घूमेगी) देख कर हाजत लग जाती है, वे अपनी नन्हीं बेटियों तक को देख कर जाने कितनी बार क्या से क्या कर गुजर चुके होंगे, भगवान् जाने! या वे बेचारी बेटियाँ। वैसे समाचारपत्रों में भी नित अब तो पिता द्वारा बेटी से मुँह काले करने के कारनामे चमचमाते हैं,(और युगों से ही) ८५प्रतिशत बलात्कारी घर के ही होते आए हैं। इन्हें अपनी काली करतूतों पर गर्व है और अपनी औलादों को भी ये ऐसे ही तथाकथित मर्दवादी बनाने में लगे हैं तो रचना को भला पेट में क्यों दर्द होता है? और दर्द का ईलाज भी ये ही मान्यवर बताएँगे। कुंठित मर्दवादी परिवारों में पले बढ़े लोग ऐसे ही होते हैं, रचना! ऐसे लोगों के चटखारे लेने के लिए लिखे गए वक्तव्यों पर नजर डालना भी अपनी तौहीन है। सत्यकथाएँ और मनोहर कहानियाँ को पढ़ने वालों की संख्या निस्सन्देह `सरस्वती' को पढ़ने वालों से १० गुना अधिक होती ही है। भीड़ जुटाने का मनोविज्ञान नट से बेहतर किसे आता है? उन अर्थों में ये लोग नट ही हैं। ऐसे ही लोग समुद्रतटों पर धूप नहीं केवल आँखें सेंकने जाया करते हैं| उस उत्तेजना में रस लिया करते हैं |
चालाक और धूर्त पुरुषों ने ही स्त्री को हवा और प्रकाश तक से वंचित करने के तर्क गढ़ लिए, अन्यथा स्त्री के समाज में चंडी बनकर आते ही इन सब जैसों की भैरव मंडली का अन्त न हो जाता?
पाश्चात्य देशों में किसी के पास इतनी फ़ुरसत तक नहीं है, न किसी को रुचि है, न वे ऐसी अनधिकार चेष्टा करते हैं कि स्त्री के वस्त्र और परिधान तक के निर्णायक बनें।
अगर स्त्री को देखने मात्र से ये स्खलित हुए जाते हैं तो क्या खा कर गांधी जी के चरण की चप्पल के नीचे के थूक तक में लिपटे एक रजकण तक पहुँचने की भी किसी की सामर्थ्य है भला? क्योंकि गांधी बाबा तो अपने चरित्र की परीक्षा के लिए पत्नी से इतर स्त्रियों के साथ नग्नावस्था में सोने का सफल प्रयोग करते रहे हैं। उनका तो चरित्र न भ्रष्ट हुआ.
इस लिए महानुभावो (?)! अपने चरित्र का इलाज करवाएँ। आने वाली पीढियाँ दुआ देंगी। ....... या कम से कम कोसेंगी तो नहीं।"
आमीन !
कविता जी आपने ब्लोगिंग पर संपादक की अनुपस्तिथि का मुद्दा वैसे ही उठाया है जैसे अम्बूदास्मनि ने फिल्मो से ध्रूमपान द्रश्यों को प्रतिबंधित करके किया था। ये सबकी स्वतंत्रता का मामला है, फ़िर ब्लॉग में नारियो को लेकर तिप्पदिया अगर कुछ लोग करते है तो उसमे सभी ध्यान नही देते है। ये बहुत हद तक अश्लील साहित्य की तरह ही है, जो अच्छे साहित्य के साथ समाज में हमेशा मौजूद रहा है। जिनको जो पढ़ना होता है वो पढ़ते है। लेकिन नारियों पैर टिप्पदी को लेकर सभी पुरूष ब्लोगरो को दोषी नही बनाया जा सकता है।
जवाब देंहटाएंकविता जी आप सही बोलती हैं कि कुछ लोग स्वतंत्रता का फायदा उठा रहे हैं | मुझे लगता है लोगों को यह नहीं मालूम की क्या लिखना चाहिए या क्या नहीं | और इन्टरनेट पर उनके लेख का ज़नामानस पर क्या प्रभाव पडेगा |
जवाब देंहटाएंबहुत सही कहा है आपने , पुरूष ब्लागरों को इस बारे में छुट सी मिली लगती है जो चाहे मन में आए लिख मारे | मैंने अपने ब्लॉग पर बहुत पहले नारी विमर्श के बारे में लिखा था जिस पर तमाम लोग सर्च कर के आते हैं लेकिन सच को स्वीकार कर कमेन्ट नहीं करते क्यों की वो तो आते होंगे कुछ चटपटी गरम बातों की तलाश में गंभीर व यथात्र्थ बातें तो पुरूष मानसिकता को हजम नहीं होती
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंआपने बहुत साहस के साथ लिखा है। बधाई। जब व्यक्ति सोच में ही नंगा हो तो फिर उसका कोई इलाज ही नहीं।
जवाब देंहटाएंkavita samay ho to nari par aayaa kament e guru ji kaa jarur daekahe , aur jwaab bhi dae
जवाब देंहटाएंhttp://indianwomanhasarrived.blogspot.com/2008/10/blog-post_9296.html
आपने अच्छा लिखा..पर शास्त्री जी के लेख का संभवतया आपने गलत अर्थ लगाया है..स्त्री सुलभ लज्जा यह भी पुरूष सुलभ पौरूष की ही तरह विमर्श का विषय हो सकता है और वहां भी यही कहा गया था...कृपया एक बार पुनः पढे.रही बात संपादन की तो इसकी ब्लोगिंग मैं यदि आवश्यकता हुई तो फिर स्वतंत्र लेखन कहां होगा फिर स्थापित लेखक ही लिख पायेंगे ..और फिर एग्रीगेटर हैं न ध्यान रखने के लिए
जवाब देंहटाएंआक्रोश में भी संतुलन और सटीकता बनाए रखने के लिए साधुवाद !
जवाब देंहटाएंऔर हाँ , अपने कबीरदास जी कह गए हैं न
''साधू ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय
सार सार को गहि रहै,थोथा देय उडाय''
आपको चिट्ठा पुलीसिंग का लाइसेंस किसने दे दिया ?? आप पर तो किसी रोक नहीं लगाई की आप क्या लिखे और क्या नहीं. तो दूसरों के लिए उनका नाम लेकर और लिंक देकर निरंकुश, मर्दवादी जैसे शब्दों का प्रयोग क्यों कर रहीं हैं? क्या अब ब्लॉग पुलिस यह तय करेगी की कोई क्या लिखे और क्या न लिखे? ये मठाधीश बनने की कोशिश.....................
जवाब देंहटाएंश्री,सुश्री,.. क्यूरियस जी,
जवाब देंहटाएंदेखिए न, कितनी मूर्ख और नादान हूँ मैं! ऒक्सीजन व प्रकाश तक लेने या न लेने वाले के लाईसेंस देने वालों से लाईसेंस तक लेना भूल गई कि कब मुंह खोलना चाहिए और कब नहीं।
वैसे आप छद्मनाम क्यों हैं,लाईसेंस देने वाले तो निस्सन्देह अधिक बली, अधिक समर्थ,अधिक विद्वान, आत्मबल से युक्त व अधिक वेत्ता होने चाहिएँ, उनके ऐसे डरे छिपे रहने का भला क्या औचित्य?
और हाँ,
१)
आप के शब्दों से प्रामाणित हुआ है कि जल्दबाजी में और बिना बिना पढ़े टिप्पणी करने से क्या से क्या होता है। अब आप देखिए न कि आपने स्पष्ट लिखा कि "दूसरों के लिए लिंक व नाम देकर निरकुंश मर्दवादी जैसे शब्द" मैंने क्यों व कैसे लिखे. आप ने पढ़ा या देखा होता धैर्यपूर्वक तो पता चलता कि जिनके नाम के साथ लिंक दिए हैं वे न तो मर्दवादी हैं व निरंकुश मर्दवादी। सुश्री रचना के निमित्त लिखे गए पत्र में ३ लिंक लगे हैं व वे तीनों लिक सुश्री रचना के हैं। और आप किसे भी स्थिति में रचना जी के पक्श में खड़े मुझे नहीं दिखाई देते।
२)
अब रही बात आपकी इस समस्या की कि मुझे लाईसेंस किसने दिया। काश! आप भारत के इतिहास से परिचित होते। मैंने इसी लिए गान्धी बाबा से पीछे का कोई उद्धरण नहीं दिया था कि जाने कोई उनसे पूरव का इथासा जनता हो या न हो, कौन जाने।
तो क्यूरियस जी! मुझे ऐसे प्रत्येक कार्य का अधिकार भारत की संस्कृति, सभ्यता, इतिहास, परम्परा,लोक, शास्त्र व समाज ने दिया है। आप को पता नहीं यह देश शक्ति का आराधक है, जिसने कभी गार्गी बन, कभी घोषा, कभी सुलभा, कभी मदालसा, कभी लोपामुद्रा, कभी द्रौपदी, कभी दुर्गा,कभी चंडी बन(और भी असंख्य नाम हैं, किन्तु अभी आप इनका ही इतिहास बाँच लें तो काफ़ी होगा, क्योंकि आप निस्सन्देह इन्में से २-४ नामों के अतिरिक्त शेष से परिचित तक न होंगे}कर समाज में क्या क्या किया व किस किस का संहार किया।
अब इसके अतिरिक्त मैं किसी दोयम दर्जे के लाईसेंस की इच्छा नहीं रखती; मुफ़्त में भी बँट रहा हो थोक के भाव, तब भी नहीं। इसलिए आप मुझे धमका तो सकते हैं पर विचलित नहीं कर सकते।
वैसे यह स्त्री-विमर्श अर्थात् उनके मसलों का मंच है, अपने मंच पर अपनी बात कहने के लिए मैं इस योग्य किसी को नहीं समझती व न ऐसा अधिकार किसी को देती हूँ कि मुझे आकर गरियाए।
सब्से महत्वपूर्ण एक बात और - यह लड़ाई विचार के विरुद्ध है, व्यक्ति के विरुद्ध नहीं। और मैं स्वयम् को सत्य के पक्ष में खड़ा रखना चाह्ती हूँ; भले ही सत्य की पक्षधरता रचना जी कर रही हों या आप। यदि या जब आप सत्य के पक्ष में जिन मुद्दों पर डटे होंगे मैं वहाँ आपके पक्ष में भी खड़े होने में किचित कोताही नहीं करूँगी, क्योंकि वह आपका या किसी व्यक्ति-विशेष का नहीं सत्य का पाला होगा।
वैसे आपने भोर की वेला में किए अपने इस नीचे उद्दृत कमेंट को क्यॊं डिलीट कर दिया था? --
जवाब देंहटाएंcurious has left a new comment on your post "ब्लॉग्गिंग से उपजी मर्दवादी निरंकुशता":
provided that you can't put censor on every writer you don't like, just shoot them! or maybe death sentence to any man who dares to utter anything related to women? isn't it a perfect remedy?
Posted by curious to Beyond The Second Sex (स्त्रीविमर्श) at Wednesday, October 08, 2008 4:36:00 AM
curious ji kae saarey kament naari blog par bhi yaahee they maene delete kar diya aur jo kament delete hua haen aap kae yahaan aur aap ne diya us sey paata lag gaayaa yae kaun haen
जवाब देंहटाएंkyoki yahii kament hindi mae saarthi blog par ek post haem mare liyae
आप डॉक्टर हैं, आपको पुरूष और महिलाओं की मष्तिष्क संरचना एवं हार्मोनल/न्यूरल प्रणाली के विषय में नवीनतम जानकारियां होनी चाहिए. आपके आलेख पढ़कर अजीब लगता है की आप मन के विकारों के लिए मरीज को ही जिम्मेवार ठहरातीं हैं. किसी विशेषज्ञ से इस तरह के विमर्श की उम्मीद नहीं थी. आप अपना ज्ञान रिफ्रेश करने के लिए डोपामाइन की कार्य प्रणाली के विषय में इस आलेख और इसके द्वितीय भाग द्वारा जानें.
जवाब देंहटाएंऔर मैंने अपना पहला कमेन्ट आवेश में आकर लिखा था, जो की फ़िर गलती मानते हुए डिलीट भी कर दिया, आपने उसे मेरे हटाने के बाद भी प्रकाशित कर बड़ी ही समझदारी का काम किया है, साधुवाद!
अगर आप किसी मानविकी विषय की 'डॉक्टर' हैं तो कृपया ध्यान न दें, आप समस्या की जड़ तक कभी नहीं पहुँच पाएँगी. इसे भूल से आ गया समझे. in that case just ignore.
@rachnaji,
जवाब देंहटाएंno, i m not rajiv, but i m sm1 who understands and recognize his opinions. I'll b grateful if u please let me know who i am! please!
बढिया और विचारोत्तजक लेख जिस पर से हज़ारों क्युरियस कुर्बान। छद्मनाम से लिखने वाले कायर की क्या औकात जो स्त्री विमर्श पर बात कर सके!
जवाब देंहटाएं@ रचनाजी
जवाब देंहटाएंआपने अभी तक इस प्रश्न का समाधान नहीं किया की ई-गुरु वाली तस्वीर में आपको क्या आपत्तिजनक लगा?
क्यूरियस जी,
जवाब देंहटाएंअब आपने सही फ़रमाया कि "मन के विकारों के लिए मरीज को ही जिम्मेदार ठहराती हूँ।"
अब जब आप स्वयम् कबूल रहे हैं कि वे सब मरीज हैं, मनोरोगी हैं तो आगे मेरे सिद्ध करने को कुछ रह ही नहीं जाता।
"प्रत्यक्षम् किम् प्रमाणम्"
हाँ,अब शेष आपत्ति मेरी यह है कि जो मरीज हैं, अपनी बीमारी को अपना हथियार न बनाएँ तो उनके ईलाज की सम्भावनाएँ बढ़ सकती हैं। पर यदि कोई मरीज अपनी मानसिक बीमारी को सगर्व दूससे स्वस्थ लोगों को पागल प्रमाणित करने में प्रयोग करे तो डॊ. का क्या कर्तव्य है, यह अब आपको समझाने की आवश्यकता नहीं रही । समझदार को ईशारा ही काफ़ी है
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंऔर अब यह भी जान लीजिये की आधुनिक मानसिक चिकित्साशास्त्र की नज़र में अधिकतर शहरी आबादी मानसिक असामान्यताओं की शिकार है , लगभग ६० प्रतिशत से अधिक शहरी तो अवसाद के ही मरीज हैं, जिनमें पुरुषों से ज़्यादा महिलाएं हैं, क्योंकि उनका हार्मोनल सिस्टम पुरुषों से अधिक नाज़ुक होता है, और हारमोन ही हमारी भावनाएं तय करते हैं. अगर आप विज्ञान में कोरी भी हैं तब भी अगर मेरी दी हुई लिंक्स पर दिए गए आलेख पढ़ लेतीं तो अधिकतर लोगों को 'पागल' का दर्जा न देतीं. आज पढ़ाई में कमज़ोर बच्चे से लेकर हताश युवा से लेकर चिडचिडे लोगों से लेकर तानाशाह अधिकारी सेलेकर नई पीढी से सामंजस्य न बिठा पा रहे बूढों ............... सभी लोग जो किसी भी तरह से फ्रश्ट्रेशन महसूस कर रहे हैं उन्हें मानसिक चिकित्सा की ज़रूरत है. इस क्रेईतेरिया से तो शायद आप भी मरीजों की श्रेणी में आ जाती हैं! आज के चिकित्सा संगठन तो यही मानते हैं की हम बड़े समूहों में रहने के लिए नहीं बने हैं, और शहरी जीवन में मानव अभी तक नहीं ढल पाया है. और यह मैं नहीं आधुनिक चिकत्सा विज्ञान कहता है की मनुष्य का दिमाग अभी भी कबीलाई है.
जवाब देंहटाएंपर आप जैसे अंग्रेज़ी न पढ़ सकने वाले यह सब शायद नहीं समझ पायेंगे क्योंकि वह अभी भी ६० के दशक की वैज्ञनिक, आर्थिक स्थापनाओं में उलझे हैं, और वैसे भी पोस्ट-ग्लोबलाइज़ेशन युग का सारा वैज्ञानिक और आर्थिक साहित्य अंग्रेज़ी में तो है पर हिन्दी में न आया है न आ सकता है. तो आप आराम से अपने fools paradise से जिसे चाहे कोसिये. वैसे भी अंग्रेज़ी जानती भी हों तो भी आप इस उम्र में अपडेट होने के लिए फ़िर से नया सीखने और नई जानकारियों के चक्कर में क्यों पड़ेंगी?
तो आपको विज्ञान में शिक्षित और अंग्रेज़ी में दक्ष नई पीढी से समर्थन की उम्मीद नही करनी चाहिए. हाँ, टकराव काफ़ी सम्भव है.
आज प्रौढ़ और बूढे हम युवाओं से काफ़ी कम जानते हैं, और अपने को फ़िर भी होशियार समझते हैं, प्रौढा और बूढी भी पीछे नहीं हैं. और जो श्री सारथी जैसे की समझदारी बात करता है, उसे आप ग़लत समझने और जात बहार करने में देर नहीं करते. So I hate most of the bloody outdated and unscientific above 40 people. You batter prepare for your retirement and grumpy old age.
लिंक्स पर जा कर वे दो पेज ज़रूर पढ़ ले तो मेरा पिछला कमेन्ट आप ज़्यादा अच्छी तरह समझ पाएँगी. और मरीजों की जनसँख्या के अनुपात में इलाज के लिए डॉक्टर उपलब्ध कराने का बीड़ा आप उठाने को तैयार है? जबकि आज हर पांच लाख की आबादी पर मात्र एक मेंटल हेल्थ प्रोफेशनल है! आप इलाज के लिए नीम हकीम झोला छाप का मुंह तो नहीं ताकेंगी?
जवाब देंहटाएंAchcha likha hai!
जवाब देंहटाएंमं समझता हूं कि इस क्यूरियस मानसिक रोगी का कोई क्यूर नहीं है जो अंग्रेज़ी की सडांध में सड रहा है। इस मानसिकता में उसने असल मुद्दे को फिसला दिया। यह सही है कि जब अंकुश नहीं होता तो लोग आज़ादी का मतल्ब उलूल-जलूल लिखना समझ लेते हैं। आज का मीडीया इस आज़ादी का ताज़ा उदाहरण है।
जवाब देंहटाएं..
जवाब देंहटाएंसारगर्भित सटीक एवं सार्थक आलेख
जवाब देंहटाएंक्यूरियस को आपने अपनी टिप्पणियों से तो पुरुष मान रखा है
ये नहीं हो सकता कि वो महिला हो
मुंह छुपा कर खिड़की से बोलने वाले कईं बार बीच के भी होते हैं और भगवान की कृपा से दोनों तरह की आवाज निकाल लेते हैं
बहरहाल अपनी अपनी सोच है
ब्लागिंग अपने हाथ का माध्यम है सो कविता जी
अपना हाथ जगन्नाथ