सोमवार, 1 दिसंबर 2008

हर औरत काँपती है

एकालाप (१३) : स्त्रीविमर्श







हर औरत काँपती है



आज मैं काँप रही हूँ
सदा ऐसा ही होता है
जब जब वे लड़ते हैं
मैं काँपती रहती हूँ





वे लड़ते हैं
लड़ना उनकी फ़ितरत है
कभी ज़र के लिए
कभी जोरू के लिए
कभी ज़मीन के लिए
कभी जुनून के लिए




वे लड़ते हैं
लड़कर उन्हें संतोष मिलता है
कभी शहीद होने का
कभी जीत के जश्न का
कभी स्वर्ग की लिप्सा का
कभी राज्य के भोग का




वे लड़ते हैं
लड़ाई उन्हें महान बनाती है
कभी वे शवाब कमाते हैं
कभी जेहाद करते हैं
कभी क्रांति लाते हैं
कभी तख्ता पलटते हैं




लड़ते वे हैं
काँपती मैं हूँ





लड़े कोई भी
मरे कोई भी
काँपना मुझी को है हर हाल में




वे जिनका खून बहाते हैं
मैं उन सबकी माँ हूँ न
वे जिसके परखचे उड़ाते हैं
वह मेरा सुहाग है न
वे जिससे बलात्कार करते हैं
वह मेरी कोखजनी है न




मुझे काँपना ही है हर हाल में -




वे जो खून पीते हैं
वे जो नरमेध करते हैं
वे जो बलात्कारी हैं
मैं उनकी भी तो माँ हूँ
मैं उनकी भी तो बेटी हूँ
मैं उनकी भी तो बहन हूँ




मैं काँपती हूँ-




उनके लिए मैं माँ नहीं रही न
न बेटी, न बहन
रिश्ते तो मनुष्यों के होते हैं
दरिंदों के कैसे रिश्ते - कैसे नाते




दुनिया को अपने रंग में रंगने का उन्माद
जब जब
मनुष्यों को दरिंदों में तब्दील करता है
तब तब मैं
काँपती हूँ



हर माँ काँपती है
हर औरत काँपती है
और शाप देती है
अपनी ही संतानों को




मैं फिर काँप रही हूँ (26 नवंबर की रात से)
और दे रही हूँ शाप
उन सारी आदमखोर संतानों को
जो दरिंदों में तब्दील होकर
लील रही हैं मनुष्यों को!

- ऋषभदेव शर्मा



8 टिप्‍पणियां:

  1. यह कम्पन हुंकार में बदले ऐसी तमन्ना दिल में है |
    धन्यवाद |

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  2. महत्वपूर्ण कविता है।
    पर कांपने से क्या होगा, मैदान में आना होगा।

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  3. मैं समझ सकता हूं इस कांपने को। जो दरिंदों में नहीं बदले उन बेटों के बारे में भी सोचिये। अपनी मां के आंचल में मुंह छुपा कर कांपते हैं। दरिंदे उन्हें नामर्द कहने लगते हैं। मर्दानगी के नाम पर दरिंदगी की दुकानदारी चलाते हैं।

    जवाब देंहटाएं
  4. यह कंपन..यह दर्द सिर्फ दो ही सह सकते हैं, औरत और धरती।
    ऐसी सशक्‍त रचनाएं कम ही पढ़ने को मिलती हैं।

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  5. एक बार यह रचना पढ़ी....और फिर से अंतर्मन डोल गया...क्या लिखूं...समझ नहीं आता...मैं निर्वाक हूँ....और गहन भी.....चिन्तन में भी....आँखे फाड़े हुए भी...और मूंदे हुए भी....अर्थ का विस्तार कहाँ तक करूँ....समझ नहीं आता.............!!

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  6. mann sach main kanp gaya..............badi samvedansheel kavita hai.

    जवाब देंहटाएं

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