मैंने दीवारों से पूछा
-डॉ. कविता वाचक्नवी
चिह्नों भरी दीवारों से पूछा मैंने
किसने तुम्हें छुआ कब - कब
बतलाओ तो
वे बदरंग, छिली - खुरचीं- सी
केवल इतना कह पाईं
हम तो
पूरी पत्थर- भर हैं
जड़ से
जन से
छिजी हुईं
कौन, कहाँ, कब, कैसे
दे जाता है
अपने दाग हमें
त्यौहारों पर कभी
दिखावों की घड़ियों पर कभी - कभी
पोत- पात, ढक - ढाँप - ढूँप झट
खूब उल्लसित होता है
ऐसे जड़ - पत्थर ढाँचों से
आप सुरक्षा लेता है
और ठुँकी कीलों पर टाँगे
कैलेंडर की तारीख़ें
बदली - बदली देख समझता
इन पर इतने दिन बदले।
अपनी पुस्तक "मैं चल तो दूँ " (२००५) से
सुन्दर कविता।
जवाब देंहटाएंसृजनात्मकता से ओतप्रोत भावपूर्ण कविता !
जवाब देंहटाएंअच्छी कविता, यथार्थ को प्रस्तुत करती।
जवाब देंहटाएं1. आपके खजाने रूपी पुस्तक से एक और मोती पढवाने के लिये आभार!!
जवाब देंहटाएं1. चित्र बहुत गजब का है.
3. यह कविता -- आप ने जीवन के एक बडे यथार्थ को चंद् शब्दों में बहुत सशक्त तरीके से प्रस्तुत किया है. यदि लोग इसके भावार्थ को देखने की कोशिश करें तो कविता से प्रथमदृ्ष्ट्या जो उनको मिलता है उससे अधिक बहुत कुछ मिल सकता है.
4. एकाध रचना के साथ (सब के साथ नहीं) यदि पृ्ष्ठभूमि के रूप में आप एक पेराग्राफ का रचना-परिचय जोड दें तो बहुत अच्छा होगा.
सस्नेह -- शास्त्री
देर से आने के लिए मुआफी .....आपकी कविता को पढ़कर आपकी कल्पना शीलता ओर संवेदना के स्तर के पता चलता है .किताब पढने की इच्छा हो रही है....एक अद्भुत कविता !
जवाब देंहटाएंव्यंजना पूर्ण प्रभावी कविता के लिए साधुवाद.
जवाब देंहटाएंshubh kamnaonyen aapko bhi.kavita bahut achhi hi.
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