- नचारी -
नचारी को, मुक्तक काव्य के अन्तर्गत लोक-काव्य की श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। इनका लिखित स्वरूप सर्व प्रथम 'विद्यपति की पदावली' में प्राप्त होता है। इसकी रचना में लोक-भाषा (देसिल बयना ) का प्रयोग और शैली में विनोद एवं व्यंजना पूर्ण विदग्धता, रस को विलक्षण स्वरूप प्रदान कर मन का रंजन करती हैं।विद्यापति के जीवनकाल में ही उनकी नचारियाँ लोक-कण्ठ का शृंगार बन गईं थीं। मिथिला और वैशाली में - नेपाल में भी- ,नचारियों को अब भी भक्ति और प्रेम से गाया जाता है ।
विद्यापति के बाद हिन्दी के काव्य में यह लोक प्रिय रूप कहीं दिखाई नहीं देता । मुझे काव्य का यह रूप बहुत मन-भावन लगा । मेरी 'नचारियों' के मूल में यही प्रेरणा रही है।
विद्यापति के बाद हिन्दी के काव्य में यह लोक प्रिय रूप कहीं दिखाई नहीं देता । मुझे काव्य का यह रूप बहुत मन-भावन लगा । मेरी 'नचारियों' के मूल में यही प्रेरणा रही है।
- प्रतिभा सक्सेना
1.
(नोक -झोंक)
'पति खा के धतूरा ,पी के भंगा ,भीख माँगो रहो अधनंगा ,
ऊपर से मचाये हुडदंगा ,चढी ये सिर गंगा !'
फुलाये मुँह पारवती !
'मेरे ससुरे से सँभली न गंगा ,मनमानी है विकट तरंगा ,
मेरी साली है, तेरी ही बहिना ,देख कहनी -अकहनी मत कहना !
समुन्दर को दे आऊँगा !'
'रहे भूत पिशाचन संगा ,तन चढा भसम का रंगा ,
और ऊपर लपेटे भुजंगा ,फिरे है ज्यों मलंगा !'
सोच में है पारवती !
'तू माँस सुरा से राजी, मेरे भोजन पे कोप करे देवी .
मैंने भसम किया था अनंगा, पर धार लिया तुझे अंगा !
शंका न कर पारवती !'
'जग पलता पा मेरी भिक्षा, मैं तो योगी हूँ ,कोई ना इच्छा ,
ये भूत औट परेत कहाँ जायें, सारी धरती को इनसे बचाये ,
भसम गति देही की !
बस तू ही है मेरी भवानी, तू ही तन में में औ' मन में समानी ,
फिर काहे को भुलानी भरम में, सारी सृष्टि है तेरी शरण में !
कुढ़े काहे को पारवती !'
'मैं तो जनम-जनम शिव तेरी, और कोई भी साध नहीं मेरी !
जो है जगती का तारनहारा, पार कैसे मैं पाऊँ तुम्हारा !'
मगन हुई पारवती !
2.
गौरा की बिदाई
तोरा दुलहा जगत से निराला उमा, मैना कहिलीं,
कुल ना कुटुम्व, मैया बाबा, हम अब लौं चुप रहिलीं !
सिगरी बरात टिकी पुर में बियाही जब से गौरा ,
रीत व्योहार न जाने भुलाना कोहबर*में दुलहा !
भूत औ परेत बराती, सबहिन का अचरज होइला ,
भोजन पचास मन चाबैं तओ भूखेइ रहिला !
ससुरे में रहिला जमाई, बसन तन ना पहिरे !
अद्भुत उमा सारे लच्छन, तू कइस पतियानी रे !
रीत गइला पूरा खजाना कहाँ से खरचें बहिना !
मास बरस दिन बीते कि, कब लौं परिल सहना !
पारवती सुनि सकुची, संभु से बोलिल बा -
बरस बीत गइले हर, बिदा ना करबाइल का ?
सारी जमात टिक गइली, सरम कुछू लागत ना !
सँगै बरातिन जमाई, हँसत बहिनी ,जीजा !
हँसे संभु ,चलु गौरा बिदा लै आवहु ना ,
सिगरी बरात, भाँग, डमरू समेट अब, जाइत बा !
गौरा चली ससुरारै, माई ते लिपटानी रे
केले के पातन लपेटी बिदा कर दीनी रे !
फूल-पात ओढ़िल भवानी लपेटे शिव बाघंबर ,
अद्भुत - अनूपम जोड़ी, चढ़े चलि बसहा पर !
(* कोहबर - नवदंपति का क्रीड़ागृह जहाँ हास-परिहास के बीच कन्या और जमाई से नेगचार करवाये जाते हैं )
गौरा का सुहाग - later things में कर दिया ।
इस कम प्रयुक्त काव्य रूप के सृजन के लिये हार्दिक धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंनचारी में कथ्य-तत्व का संयोग उसे सुन्दर बनाता है, नोंक-झोंक बड़ी प्यारी लगी.
सुन्दर, मजेदार पोस्ट। नचारी के बारे में जानकारी अच्छी लगी!
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