वरना, जिस समाज और देश और काल में अभी ऐसा बर्ताव 80% सच का हिस्सा है, उस समाज में कोई इक्का- दुक्का लोग स्त्री के मानवाधिकारों की बात करते हैं तो बहुधा लोगों के पेट में ऐंठन क्यों होने लगती है ? क्यों धिक्कार, हिकारत और तिरस्कार शुरू हो जाता है? जिस संसार में कुत्ते-बिल्लियों, पशु- पक्षियों तक के प्रति सम्यक संवेदनापूर्ण मानवीय आचरण की अपेक्षा की जाती है, उस संसार में स्त्री-जीवन के ये सच आप-हम को क्यों नहीं रुलाते? क्यों नहीं झूठे थोथे अंहकार को त्याग कर सब अधिक मानवीय बन स्त्री-मुक्ति के अभियान में स्वयं भी जुट जाते? क्यों स्त्री -प्रश्न आज भी हास्य या वर्जित के श्रेणी में हैं? क्यों स्त्री मुद्दों पर जुटने वाली पुरूष-भीड़ बहुधा 'बहाने से लुत्फ़ उठाने' की मानसिकता के वशीभूत जुटती है? प्रश्न बहुत-से हैं, उत्तर केवल एक है। वह उत्तर सब को अपने मन के भीतर उतर कर स्वयं टटोलना है। ऐसा न हो चिड़िया खेत चुग जाए और आप सोते रहें.
आप आलोक तोमर जी के सौजन्य से प्राप्त गीताश्री पाकुड़ के इस यथार्थवादी लेख को पढ़िए और जानिए भारत की धरती पर स्त्री की असल स्थिति को, जो आँख खोलने के लिए काफी होना चाहिए कि स्थिति कितनी भयावह है स्त्री की ।
- कविता वाचक्नवी
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गीताश्री पाकुड़, झारखंड से लौटकर
सुशांति मरांडी अब कभी अपनों का भरोसा नहीं कर पाएगी। उसे गैरो ने नहीं, अपनों ने छला है। जब 6 साल की थी तब उसके पिता की मौत खेत में हल चलाते समय ठनका यानी बिजली गिरने से हो गई। इस घटना के छह महीने भी नहीं हुए कि सुशांति ने अपनी मां खो दी। नन्हीं सी जान पर इतनी कम उम्र में ही दुख का पहाड़ टूट पड़ा।
उस समय वह अकेली, बेसहारा-सी पड़ी थी। दूर के एक रिश्तेदार ने उसकी सुध ली। खुद को उसका भाई बताते हुए अपने साथ चलने को कहा। अनाथ और बेसहारा लड़की उंगली थामे चल पड़ी। क्या पता था कि आसान और चैन वाली जिंदगी की तलाश उसे किसी अंधेरे गुफा की तरफ ले जा रही है।उस कथित भाई ने सुशांति को दिल्ली ले जाकर एक पंजाबी परिवार में छोड़ दिया, इस वायदे के साथ कि वह 2-3 दिन में अपना काम करके लौट कर आयेगा। सुशांति इतनी कच्ची उम्र में कुछ समझ नहीं पाई। उस घर में काम करते हुए जिंदगी के 7 साल बिता दिए।
वह कथित भाई कभी ना लौटा। गाँव छूटा, बचपन गया और यातना का सिलसिला शुरु हुआ। रोज शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न के बीच जेहन में गांव का नाम अब भी बसा हुआ था। एक दिन सामान लेने के बहाने बाहर निकली, दुकानदार की मदद से रेलवे स्टेशन और फिर अपने गांव लौट आई। मगर सुशांति के जीवन में जैसे शांति की कोई जगह ही नहीं थी। अपने गांव में भी तिरस्कार और मुश्किलें उसकी प्रतीक्षा कर रही थीं।सुशांति बताती है कि वह अपने घर बेल पहाड़ी आई परंतु वहाँ उसका घर भी किसी ने हड़प लिया था। सुशांति भूख-प्यासी अपने गाँव के करीब पड़ी थी। वहीं एक आदमी ने सुशांति को देखा जो पाकुड़िया के किशोरी निकेतन के बारे में जानता था। वह उसे किशोर निकेतन लेकर आया। अब सुशांति यहीं रहती है।
पाकुड़ की ही रहने वाली एक और बच्ची का बचपन कुछ इसी तरह छीन गया। अपने माँ-बाप, चार बहन और एक भाई के साथ राधानगर गाँव में रहने वाली श्रीमुनी हेम्ब्रम के परिवार में यूँ तो कई परेशानियां थीं लेकिन सबसे बड़ी परेशानी थी परिवार की गरीबी। घर चलाना जब मुश्किल होने लगा तो श्रीमुनी के पिता ने उसे भी एक पत्थर कारखाने में काम पर लगा दिया। तब श्रीमुनी की उम्र थी 10 साल। परिवार वालों ने जाने किस मजबूरी में कभी पलट कर नहीं देखा।
पत्थर तोड़ते चार साल जैसे-तैसे गुजरे। श्रीमुनी ने कोशिश की कि पत्थर कारखाने से बाहर निकला जाये। उसने जब मालिकों से बात की तो मालिकों ने साफ मना कर दिया। आखिर में श्रीमुनी एक दिन चुपके से पत्थर कारखाने से भाग खड़ी हुई। सीधा जा पहुँची अपने गाँव। लेकिन गाँव में जिस सच्चाई से सामना हुआ, वह पत्थर से कहीं ज्यादा कठोर थी। गाँव में उसका कोई भी परिजन नहीं था, न माँ, न बाप। भाई-बहन भी नहीं। पता चला, उसका पूरा परिवार कहीं कमाने-खाने चला गया है।
किसी तरह वह गाँव के एक आदमी के साथ किशोरी निकेतन पहुँची। अब यहीं वह अपनी जिंदगी के पन्नों को दुरुस्त करने में लगी है। उसने टोकरी बनाना सीखा और अब दूसरों को यह काम सीखा रही है। उसकी पढ़ाई तो चल ही रही है। पाकुड़ के गाँवों में सुशांति और श्रीमुनी जैसी कई-कई लड़कियाँ हैं। इस जंगली इलाके में इन लड़कियों का दुख जंगल से भी कहीं ज्यादा घुप्प और गहरा है। किसी का बचपन छीन गया है तो किसी की जवानी और कोई तस्करी के अंधेरे में खो गया है। कई लड़कियों का अब तक नहीं पता कि वे कहाँ और किस हाल में हैं।
बांग्लादेश की सीमा से लगा है झारखंड का पाकुड़ और साहेबगंज यानी संथाल परगना का इलाका। उच्च गुणवत्ता वाले पत्थर इस इलाके की पहचान हैं लेकिन इन्हीं पत्थरों के कारण इस इलाके की पहचान बदल रही है और अब यह हिस्सा लड़कियों की तस्करी का गढ़ के रुप में जाना जाने लगा है। होता ये है कि इस इलाके से ट्रकों में पत्थर लाद कर बांग्लादेश ले जाया जाता है। पत्थर निकालने एवं ट्रक पर पत्थर भरने का काम ज्यादातर लड़कियाँ ही करती हैं। यहीं से शुरु हो जाता हैं इनकी तस्करी और यौन शोषण का रास्ता।
झारखंड के एटसेक यानी एक्शन एगेंस्ट ट्रैफिकिंग सेक्सुअल एक्सप्लाएटेशन ऑफ़ चिल्ड्रेन के राज्य संयोजक संजय मिश्रा स्थिति की भयावहता के बारे में बताते हैं कि कैसे काले पत्थर की खान और उसके निर्यात से आदिवासी लड़कियों की जिंदगी काली होती जा रही है। संजय कहते हैं- तस्करी की वजह से एक जनजाति का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है। पाकुड़ से पहाड़िया जनजाति खत्म हो रही है। गिनती के परिवार बच गए हैं। उनकी जगह बांग्लादेशी आकर बस रहे हैं। खासकर वहाँ की लड़कियों की संख्या बढ़ती जा रही है।
इस समस्या की गंभीरता पर संजय मिश्रा ने ही प्रशासन का ध्यान खींचा। उन्होंने इस मुद्दे पर व्यापक अध्ययन करने के बाद एक गैर सरकारी संगठन मानवी के साथ मिलकर पिछले साल मई में एक सेमिनार का आयोजन करवाया, उसके बाद प्रशासन की नींद खुली। संजय बताते हैं - मानव तस्करी पाकुड़ जिले के आसपास ही ज्यादा फल फूल रही है। एक तरह से यह इलाका देह बाजार के रुप में कुख्यात हो रहा है। खास कर हिरनपुर में आदिवासी लड़कियों के बीच देह व्यापार एक धंधे का रुप ले चुका है। यहाँ से बाकायदा आदिवासी लड़कियाँ लगातार बांग्लादेश के बाजारों में बेची और भेजी जा रही हैं।
एटसेक ने अपनी पहल पर सिर्फ पाकुड़ जिले में तस्करी की संभावना को देखते हुए दो वीजीलेंस कमिटी का गठन किया है, जो इस पूरे मामले पर नजर रखे हुए है। इनकी सजगता का नतीजा है कि ये लोग समय-समय पर वहाँ लड़कियों को तस्करों के चंगुल से मुक्त कराते रहते हैं। प्रशासन को नींद से जगाने वाली संस्थाओं को भी धीरे धीरे उनका सहयोग मिलने लगा है। अब आए दिन पाकुड़ की देह मंडी से लड़कियाँ बरामद होकर संजय मिश्रा के रांची और पाकुड़ किशोरी निकेतन में पहुंचने लगी हैं।
संजय दावा करते हैं कि उनके संगठन ने अब तक 372 आदिवासी लड़कियों को विभिन्न राज्यों समेत बांग्लादेश से मुक्त करवाया है। एटसेक के आंकड़ो के अनुसार झारखंड की 1.23 लाख आदिवासी लड़कियाँ देश के विभिन्न शहरों में घरेलू नौकरानी के रुप में काम कर रही हैं, जिनमें 2339 दिल्ली में हैं, बाकी हरियाणा, मुंबई और उत्तर प्रदेश के कुछ शहरों में हैं। संजय दुख और चिंता जताते हुए कहते हैं - हिरन पुर में महिला मंडी, पशु हाट से ज्यादा दूरी पर नहीं था। ये सभी अच्छी तरह जानते हैं कि यहाँ से हजारों की तादाद में गैर कानूनी तरीके से पशु भी बांग्लादेश भेजे जाते हैं। लेकिन ये महिलाएँ भी उन्हीं पशुओं की तरह ट्रीट की जाती हैं और ये सिलसिला अब भी जारी है।
असल में राज्य के पुलिस अधिकारी भी नहीं जानते कि लड़कियों की तस्करी के मामले में कानूनी प्रावधान क्या-क्या हैं। इममोरल ट्रैफिकिंग प्रिवेंशन एक्ट में कितनी कड़ी सजा का प्रावधान है, इसका अहसास भी इन पुलिस अधिकारियों को नहीं था। आखिर में स्वयंसेवी संस्थाओं की पहल पर इस मुद्दे पर पुलिस की कार्यशालायें हुईं और मानव तस्करी पर रोक लगाने के लिए बकायदा टास्क फोर्स का भी गठन किया गया। इन कोशिशों का ही नतीजा है कि इलाके में मानव तस्करी के मामले में कमी आई है लेकिन क्या इसे जड़ से खत्म नहीं किया जा सकता ? संजय मिश्रा कहते हैं- मांग है तो आपूर्ति रहेगी ही। हमें समाज के सोचने के तरीके को बदलना होगा।
समस्या का समाधान कुछ सीमा तक तब भी होगा जब यह कुकृत्य करने वालों को बड़ी संख्या में सजा मिलेगी और समाज देख पाएगा कि यह करोगे तो खैर नहीं।
जवाब देंहटाएंघुघूती बासूती
यह तो हर गरीब यतीम के जीवन का किस्सा है जो हर बार एक दर्दनाक झंकार हृदय को लगा जाता है। यतीम लडकी हुई तो कोठे पर चढा दी जाती है, यतीम बच्चा हुआ तो उसको शारीरिक तौर पर विकृत करके भीख मांगने का काम लिया जाता है।
जवाब देंहटाएंमन को झंझोरने वाला आलेख!
yeh samasya to adi kaal se chali aa rhai hai,jan jagriti ki param avshykata hai.
जवाब देंहटाएंyeh samasya to adi kal se hai, jan jagriti ki param avashykata hai.
जवाब देंहटाएंआपका लिखा परिचयात्मक आमुख ज़्ररा अतिशयोक्तिपूर्ण है,पर रपट बिलकुल सच है. बेहतर होगा कि नज़रिया थोडा व्यापक अपनाया जाए. असल में यह मामला सिर्फ़ स्त्री के शोषण का नहीं, मामला है कमज़ोर के शोषण का. सुशांति मरांडी की जगह सुशांत भी होता तो उसके साथ भी वही सब कुछ होता. स्त्री का शोषण इसलिए नहीं होता कि वह स्त्री है, स्त्री होता है कि वह कमज़ोर है. इलेकिन जब आप मामलाअ इस तरह उठाते हैं कि वह एक्स्क्लूसिवली स्त्री विमर्श हो तो उससे कोई बात तो बनती नहीं, हां हल्ला ज़रूर हो जाता है, जो बुद्धिजीवियों का अभीष्ट है. किसी सामाजिक-राजनीतिक या आर्थिक विसंगति के विरुद्ध लडाई सिर्फ़ तभी ही सफल हो सकती है, जबकि उसे व्यापक रूप दिया जाए और वस्तुगत ढंग से देखा जाए. न बढाकर, न घटाकर. बिलकुल उतने में जितना वह है. न हिन्दू-न मुसलमान, न सवर्ण न दलित. हर वह शख़्स बहुविध शोषण का शिक़ार है, जो कमज़ोर है. अगर किसी निष्कर्ष तक पहुंचना है और बात आगे बढानी है तो इसे इस रूप में देखने की आदत डालें.
जवाब देंहटाएंईष्टदेव जी, आप दूसरे शब्दों में बात वही कह रहे हैं, लेकिन यह सिद्ध करते हुए कि आपके पास बात को काटने के वाजिब कारण हैं। आपने कहा,"मामला सिर्फ़ स्त्री के शोषण का नहीं मामला है कमजोर के शोषण का।"
जवाब देंहटाएं१) स्त्री-सशक्तीकरण का अर्थ स्त्री को सबल बनाना ही तो है,यदि निर्बल स्त्री है तो क्या उसका सबलीकरण अपराध हो जाता है? केवल इसलिए कि वह स्त्री है? कमजोर ा कोई अर्थ होता हो तो बताएँ और सबलीकरण सशक्तीकरण का कोई और अर्थ होता हो तो वह भी.
२) ट्रकों में भर कर पुरुष की वासना का शिकार होने के लिए किसे ले जाया जा रहा है? क्य उस क्षेत्र में केवल स्त्रियाँ ही कमजोर हैं?
३) अब एक प्रश्न और? आज तक स्त्रियों,बच्चों,किशोरों और ... पर जितने शारीरिक बलात्कार व कामुक आक्रमण या वासनात्मक हमले होते आए हैं, उनमें ९९% का कर्ता पुरुष ही है। सो, पुरुष तो हमेशा ही अ-कमजोर रहेगा, अपने पाशविक शारीरिक बल के बूते। ऐसे में उसके सम्मुख स्त्रियाँ सदा ही कमजोर रहेंगी... तिस पर भी आप यही कहिएगा कि मामला स्त्री का नहीं कमजोर का है। और यदि कोई उसकी कमजोरी को दूर करने के लिए आवाज उठाए तो उसे किसी भी तर्क से खारिज किया जाएगा ही।
वाह क्या बात है ...बहुत भावपूर्ण रचना.
जवाब देंहटाएंकभी समय मिले तो http://akashsingh307.blogspot.com ब्लॉग पर भी अपने एक नज़र डालें .फोलोवर बनकर उत्सावर्धन करें .. धन्यवाद .
सोच से ही पता चलता है कि हमारी संस्कृति और सभ्यता की जड़े कितनी गहरी हैं. सोच बदल जाये तो देश / समाज में बदलाव आने में समय नहीं लगता. समाज में जो विकृतियाँ दिख रही हैं, उनकी जननी सोच ही तो है.. काश ! यह सोच जल्दी बदले....?
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