यह कैसे तय किया जाए कि माँ की पुरानी भूमिका अच्छी थी या आज की भूमिका अच्छी है? पहली भूमिका में माँ का जीवन त्याग-तपस्या से भरा होता है और दूसरी भूमिका के कारण दुनिया में ऐसे लोगों की तादाद बढ़ रही है जिन्होंने माँ-बाप का प्यार जाना ही नहीं। जाहिर है, जिसे प्यार नहीं मिला, वह प्यार दे भी नहीं सकता। क्या कोई और रास्ता भी है, जिसमें माँओं को अपना जीवन स्थगित न करना पड़े और बच्चों को भी भरपूर प्यार मिल सके?
माँ का जीवन
तीन दिन पहले हमसे एक भारी अपराध हुआ। घर की मरम्मत कर रहे एक कारीगर ने पुरानी खिड़की को तोड़ कर नीचे गिराया, तो एक कबूतर का घोंसला भी उजाड़ दिया। तिनकों का वह बेतरतीब समवाय फर्श पर आ गिरा जो उस कबूतर और उसके दो नवजात शिशुओं का घर था। खिड़की के एक टुकड़े पर दोनों शिशु, अपनी आसन्न नियति से अनजान, अपने पैर हिला-डुला रहे थे। अभी उनकी आँखें भी नहीं खुली थीं। पंखों में कोई जान नहीं थी। यह चार्ल्स डारविन का दौ सौवाँ जन्मदिन है, इसलिए मैंने अनुमान लगाया कि जैसे हम मनुष्यों के पूर्वजों ने कभी यह तय किया होगा कि सामने के दोनों पैरों का प्रयोग हाथों के रूप में करना चाहिए, वैसे ही पक्षियों के पुरखों ने कभी यह इच्छा की होगी कि सामने के दोनों पैरों का प्रयोग पंख के रूप में करना चाहिए। तय किया था या इच्छा की थी, यह कहना शायद ठीक नहीं है। यह तथा पशु-पक्षियों में इस तरह के अन्य परिवर्तन जीवन के विकास की स्वाभाविक प्रक्रिया में ही हुए होंगे। मैंने इसके पहले पक्षियों के अंडे तो देखे थे, पर उनके नवजात शिशु नहीं। उस दिन देखा और मन में ये खयाल आए, तो यह बात भी याद आई कि देखना ही जानना है। पढ़ा है कि दर्शन शब्द की उत्पत्ति जिस धातु से हुई है, उसका अर्थ भी देखना ही है।
अपराध बोध की शुरुआत तब हुई जब हम यह सोचने लगे कि अब इन नवजात शिशुओं का क्या होगा। क्या ये जीवित रह पाएँगे? वे जिस अवस्था में थे, हम उनके लिए कुछ नहीं कर सकते थे। क्या ये भी विकास की बलि वेदी पर शहीद हो जाएँगे? हमने उनके घोंसले का जैसा-तैसा पुनर्निर्माण किया और कमरे से दूर हट कर इंतजार करने लगे कि शायद इनकी माँ आए और इनकी देखभाल करने लगे। जब अंधेरा हो आया और वह नहीं लौटी, तो हम निराश होने लगे। तभी याद आया कि एक दूसरी खिड़की पर बनाए अपने घोंसले में एक दूसरी कबूतर ने अंडे दिए हुए हैं। पत्नी ने सुझाया कि इन बच्चों को उसी घोंसले में रख दिया जाए। शायद कोई सूरत निकल आए।
अगले दिन दोपहर को जो दृश्य दिखाई पड़ा, उससे हम अभिभूत हो गए। एक कबूतर उन दोनों बच्चों के मुँह बारी-बारी से अपने मुँह में डाल कर दुलार कर रही थी। यह दृश्य अत्यन्त आनंददायक था। हममें से किसने युवा माताओं को अपने नवजात शिशुओं को दुलारते-चूमते-उठाते-बैठाते नहीं देखा होगा! उस वक्त स्त्री के चेहरे पर ही नहीं, पूरे अस्तित्व में आह्लाद की जो लहर दौड़ती रहती है, उसका कोई जोड़ नहीं है। यह वह विलक्षण सुख है जो कोई माँ ही अनुभव कर सकती है। कबूतरों की मुद्राओं में इतनी बारीक अभिव्यक्तियाँ नहीं होतीं। क्या पता होती भी हैं, पर हम उन्हें पढ़ना नहीं जानते। सचमुच, हमारे अज्ञान की कोई सीमा नहीं है। हमारे आसपास कितना कुछ घटता रहता है, पर हम उससे अवगत नहीं हो पाते। अपने व्यक्तित्व की कैद दुनिया की सबसे बदतर कैद है। थोड़ी देर बाद हमने पाया कि कबूतर दोनों बच्चों पर बैठ कर उन्हें से रही है। दोनों अंडे भी पास ही पड़े हुए थे। शायद उनके खोल में पल रहे दो जीवन भी सुरक्षित निकल आएं। अब हमने चैन की साँस ली कि हम हत्यारे नहीं हैं।
वह बेचारी कबूतर दिनभर बैठी बच्चों के जीवन में ऊष्मा भरती रही। यह तय करना असंभव था कि उसने दिनभर कुछ खाया या नहीं। हो सकता है, बीच-बीच में कुछ देर के लिए घोंसले से बाहर निकल कर वह कुछ चारे का जुगाड़ कर लेती हो। हो सकता है उसका सामयिक प्रेमी ही कुछ ला कर वहाँ रख जाता हो। जिस बात ने मुझे सबसे अधिक परेशान किया, वह यह थी कि अगर यह माँ कबूतर एक हफ्ते भी इन बच्चों (यह भी पता नहीं कि ये बच्चे उसी के थे या उसने उन्हें अनायास ही गोद ले लिया था) को सेती है, तो हम मनुष्यों की भाषा में उसके सात कार्य दिवस नष्ट हुए। अगर वह कहीं नौकरी करती होती, तो उसके सात दिन के पैसे कट जाते। इन सात दिनों तक वह ममता की कैद में अपने छोटे-से घोंसले तक सीमित रही और मुक्त आकाश में उड़ने तथा अठखेलियाँ करने से वंचित रही। इसका हरजाना कौन देगा? यह तो तय ही है कि कुछ दिनों के बाद बच्चे उड़ जाएँगे और अपनी अलग जिंदगी जीने लगेंगे। तब वे न तो अपनी माँ को पहचानेंगे और न माँ उन्हें पहचान सकेगी। एक स्त्री ने सृष्टि क्रम को आगे बढ़ाने में अपनी भूमिका अदा की और किस्सा खत्म हो गया।
बताते हैं कि आदमी के बच्चे का बचपन दुनिया के सभी जीवों में सबसे लंबा होता है। उसका गर्भस्थ जीवन भी सबसे लंबा होता है। इस पूरी अवधि में उसकी माँ को कठिन तपस्या करनी पड़ती है। उसका अपना जीवन स्थगित हो जाता है। आदमी का बच्चा ज्यादा देखरेख और सावधानी की भी माँग करता है। यह अधिकतर माँ के जिम्मे ही आता है, हालाँकि आजकल पति लोग भी कुछ सहयोग करने लगे हैं। जब संयुक्त परिवार का चलन था, तब माँ को कुछ प्रतिदान मिल जाता था। आजकल बड़ा होते ही बच्चे फुर्र से उड़ जाते हैं। वे एक ही शहर में रहते हैं, तब भी माँ -बाप से उनकी मुलाकात महीनों नहीं हो पाती। जिनके बच्चे परदेस चले जाते हैं, उनका बुढ़ापा निराश्रय और छायाहीन हो जाता है। ऐसी माँ को शुरू में भी कष्ट सहना होता है और बाद में भी। मातृत्व की इतनी बड़ी कीमत चुकाना क्या कुछ ज्यादा नहीं है? अन्य पशु-पक्षियों की तुलना में मानव माँ इतना त्याग क्यों करे? आँचल में दूध आंखों में पानी का पर्याय क्यों बने?
शायद इसीलिए पश्चिम की आधुनिक स्त्री मातृ्त्व की महिमा को ताक पर रख कर अपना जीवन जीने में कोताही नहीं करती। गर्भावस्था के आखिरी महीने ही उसकी गतिविधियों को सीमित करते हैं। गर्भ-मुक्त होते ही वह फिर पूर्ववत सक्रिय हो जाती है और बच्चे अकेले या बेबी सिटरों की निगरानी में पलते-बढ़ते हैं। बाद में बच्चों को व्यस्त रखने के लिए खिलौने के ढेर, टेलीविजन और वीडियो गेम दे दिए जाते हैं। हमारे महानगरों में भी यह चलन शुरू हो गया है। स्त्रियाँ माता का पुराना लंबा रोल निभाना नहीं चाहतीं। यह कैसे तय किया जाए कि माँ की पुरानी भूमिका अच्छी थी या आज की भूमिका अच्छी है? पहली भूमिका में माँ का जीवन त्याग-तपस्या से भरा होता है और दूसरी भूमिका के कारण दुनिया में ऐसे लोगों की तादाद बढ़ रही है जिन्होंने माँ -बाप का प्यार जाना ही नहीं। जाहिर है, जिसे प्यार नहीं मिला, वह प्यार दे भी नहीं सकता। क्या कोई और रास्ता भी है, जिसमें माँओं को अपना जीवन स्थगित न करना पड़े और बच्चों को भी भरपूर प्यार मिल सके?
- राजकिशोर
बड़ा ही सार्थक और गंभीर विषय बड़े ही विचारणीय ढंग से उठाया है आपने.....
जवाब देंहटाएंइसमे यही कहा जा सकता है कि व्यक्तिगत टूर पर गंभीरता से विचार कर प्रत्येक माँ या दम्पति को यह निर्णीत करना होगा कि वे अपने जीवन में चाहते क्या हैं.....केवल धन वैभव या धन के साथ साथ परिवार और संस्कार भी.......
आज ऐसे भी शिक्षित और जागरूक दम्पति दो से अधिक संतानोत्पत्ति के लिए उत्सुक नही होती.उसमे भी यदि बच्चे को सही लालन पालन और स्नेह न मिले तो उनसे सुसंस्कार की अपेक्षा रखना व्यर्थ है.
नवजात शिशु की माता का धनोपार्जन यदि परम आवश्यक न हो तो शिशु के कुछ समझदार होने तक माता को अपना पूरा समय और ध्यान बच्चे के लालन पालन में ही लगना चाहिए....आख़िर यह भी तो अपने ,अपने परिवार के और बच्चे के लिए हम अप्रत्यक्ष रूप से कमाई ही है.
आज की मां के पास शायद उतना समय नहीं है क्योंकि वह कामकाजी महिला हो गई है। शोसियलाइज़िंग के नाम पर स्तन-पान को भी प्रथमिकता नहीं देती [फिगर खराब होने के भय से]। इसलिए भी शायद ममता और वात्सल्य में कमी आ गई है। और फिर, एकल परिवार का चलन भी कुछ हद तक इसका ज़िम्मेदार है।
जवाब देंहटाएंमाँ की भूमिका बदली है .ओर मुझे लगता है उस बेचारी पर बोझ ओर बढ़ गया है...खास तौर से कामकाजी माँ के लिए .ओर नयी पीड़ी में पिता की भूमिका ओर स्पष्ट हो गयी है .वे पुराने ज़माने के पिता नहीं रहे है जो बच्चो को पुचकारने ओर लोरी सुनाने ओर कपडे बदलने में असहज महसूस करते थे .अब वक़्त बदल रहा है ...आहिस्ता आहिस्ता ही सही पर बदल रहा है
जवाब देंहटाएंsometimes i feel that these discussions are just discussions
जवाब देंहटाएंif we say todays woman is not like yesterdays woman then we need to look into the reasons
we should see what cirumstances the woman of yesterday faced that she groomed her daughter to become "not like her "
its a myth that woman of today dont breast feed their children because the percentage of such woman is really negligible as woman now are more health conscious and they understand the breast milk or first feed is good for immunization of the child
the mother of today was the girl of yestarday 'she has learnt the art of balancing from her mother
and if we say neuclear family is responsible they again nuclear family is not doing of todays woman , she got it from a generation before her
giving birth to a child does not mean that mother should stop living her life rather the mother needs to balance her time
and those woman who dont have time should not give birth to a child because its better not to give birth to rather than abandon the child
भौतिक, पदार्थ जैसे शब्दों से जीवन की सोच बदल गयी है।
जवाब देंहटाएंभागमभाग, ज़ल्दीबाज़ी सही गलत से ज़्यादा टारगेटट पूरा करने को
महत्व देने को मजबूर करता है। यह ग्राफ़ नीचे अवश्य आएगा। पर तबतक बहुत कुछ...
कबूतर की बात पर याद आया कि हमने भी चित्रण किया था-
http://man-ki-baat.blogspot.com/2006/06/blog-post_27.html
राजकिशोर जी को जैसे जैसे पढता जाता हूँ वैसे वैसे उनका प्रशंसक बनता जा रहा हूँ.
जवाब देंहटाएंइस आलेख के लिये साधुवाद. जिनको प्रेम नहीं मिला वे प्रेम के लिये तरसते हैं, लेकिन अकसर प्रेम बांट नहीं पाते हैं. कैसी विडंबना है.
सस्नेह -- शास्त्री
-- हर वैचारिक क्राति की नीव है लेखन, विचारों का आदानप्रदान, एवं सोचने के लिये प्रोत्साहन. हिन्दीजगत में एक सकारात्मक वैचारिक क्राति की जरूरत है.
महज 10 साल में हिन्दी चिट्ठे यह कार्य कर सकते हैं. अत: नियमित रूप से लिखते रहें, एवं टिपिया कर साथियों को प्रोत्साहित करते रहें. (सारथी: http://www.Sarathi.info)