सुगंधि हों या सखूबाई - दोनों ने अपने जीवन के शुरुआती कठिन समय में किए गए अपने संघर्ष से सबक लिया और दूसरी औरतें उनकी तरह की त्रासदी का शिकार न बनें , इसके लिये अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया । अपने जीवन के अंधेरों से जूझने के बाद आज वे दूसरी अनेक महिलाओं के जीवन में आए अंधेरों को रोशनी में बदल रही हैं । इस रोशनी और हरियाली को देखकर पाब्लो नेरूदा के शब्दों को दोहराने का मन होता है - ‘‘ पेड़ क्यों अपनी जड़ों का वैभव छिपाते हैं ? ’’ इन ‘ जड़ों ’ से और जड़ों के त्रासद ‘वैभव’ से पाठकों का परिचय करवाने के लिए इस बार प्रस्तुत है - सुगंधि और सखूबाई की संघर्ष कथा ।
पुनश्च: बेबी हालदार के उपन्यास ‘ आलो आंधारि ’ और सोना चैधरी के उपन्यास ‘ पायदान ’ की ही लीक पर इन दोनों संघर्ष कथाओं का विवरण भी बिल्कुल सीधा - सहज और सपाट है । भाषा और शिल्प से समृद्ध रचनात्मक साहित्य के पाठकों को हो सकता है यह दोनों कथाएं एक ‘ पैबंद ’ की तरह लगें । जो फर्क एक कलात्मक फिल्म और वृत्तचित्रा में होता है , संभवतः वही फर्क एक साहित्यिक रचना और सामाजिक कार्यकर्ता की संघर्ष कथा में है । रचना में कलात्मकता की अपेक्षा रखनेवाले पाठकों को संभवतः इन दोनों आत्मसंघर्ष कथाओं में कथ्य की सपाट बयानी अखर सकती है । ज़रूरत लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता के बीच की खाई को पाटने की है । दिल्ली की एक प्रतिष्ठित संस्था ‘‘ जागोरी ’’ ने पिछले वर्ष लेखकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को एक मंच पर लाकर एक महत्वपूर्ण कार्यशाला आयोजित की थी । ऐसे प्रयासों को आगे बढ़ाने की आवश्यकता है ।
सुगंधि की कहानी - उसकी जुबानी
प्रस्तुति - सुधा अरोड़ा
मेरा जन्म गढ़वाल (आज के उत्तरांचल राज्य ) के एक छोटे से गाँव में 1952 में हुआ । रिखणीखाल नाम का यह गाँव कोटद्वारा से एक घंटे के रास्ते पर पहाड़ी पर स्थित हैं । वहाँ से कपड़े और बर्तन धोने के लिए भी नीचे नदी तक आना पड़ता था । वहाँ पर साठ सत्तर घर ही होंगे जो ज्यादातर खेती ही करते हैं । कुछ के बच्चे मिलिट्री में हैं तो कुछ रोटी - रोजी की तलाश में मुंबई आ गए ।
बचपन की एक घटना मुझे अब तक याद है - जब मैं छः साल की थी तो अक्सर अपनी मौसी के यहाँ रहनेजाती थी । उनका घर ऊँची पहाड़ी पर था । उस इलाके में रोज भालू आया करते थे । ये भालू बच्चों को उठाकर ले जाते थे । भालू के आतंक से बचने के लिए मेरी मौसी घर के दरवाजे पर अंदर से बहुत बड़ा पत्थर रख देती थी । यह पत्थर इतना भारी होता था कि हम सभी बच्चे और मौसी मिलकर उस पत्थर को लुढ़काकर दरवाजे तक ले आते थे । उसके बाद मौसी हम छोटे बच्चों को एक - एक टोकरी में बंद कर खाट के नीचे टोकरी को खिसकाकर रख देती थी । खाट के चारों तरफ चादर लटका देती थी ताकि टोकरियाँ भी दिखाई न दें । हम सभी बच्चे उसी टोकरी में दुबके दुबके सो जाते थे । और यह रोज की बात थी ।
पहाड़ी इलाके में छः साल रहने के बाद 1958 में जब हम मुंबई आए तो यहीं के होकर रह गये । मेरे पिता मोटर गैरेज में फिटर मैकेनिक थे । मै भांडुप के हिंदी स्कूल में पढ़ने लगी । मुझे याद है जब मैं आठवीं कक्षा में थी तब पहली बार मुझे माहवारी हुईं । स्कूल वालों ने मुझे घर भेज दिया । जब मेरी माँ को इस बात का पता चला तो उन्होने मुझे घर के भीतर घुसने ही नहीं दिया । मुझे बाहर ही बिठा कर रखा । मुझे बड़ा अजीब लगा । उन्होंने कहा - पिताजी के ऊपर देवता आता है और मुझे चेतावनी दी गई कि इसके बाद जब भी तुम्हें माहवारी हो सारे काम छोड़कर घर के बाहर रहना पड़ेगा । इस झंझट से बचने के लिए मैं अपनी माँ को माहवारी की बात बताती ही नहीं थी । उन तीन दिनों में लड़की को बिल्कुल अछूत की तरह दहलीज़ के बाहर चटाई पर बिठा दिया जाता था । आज भी कई परिवारों में ऐसा ही रिवाज है ।
मैंने जैसे - तैसे आठवीं तक पढ़ाई पूरी की । इसके आगे मैं पढ़ न सकी क्यों कि सबसे बड़ी लड़की होने के नाते घर के काम - काज में माँ का हाथ बँटाना पड़ता था । मुझसे सोलह साल छोटी बहन आनंदी तभी पैदा हुई थी और माँ का ऑपरेशन हुआ था इसलिए घर में चार छोटी बहनों और एक भाई की जिम्मेदारी मुझपर आ पड़ी ।
मुंबई के भांडुप इलाके के जिस घर में हम रहते थे , वहाँ नल नहीं था । पानी बाहर से भरकर लाना पड़ता था । सबसे बड़ी होने के कारण पानी के हंडे सिर पर उठाकर लाने का काम मेरे जिम्मे था । कम से कम डेढ़ दो सौ लिटर पानी रोज़ लाना पड़ता था । सिर पर पानी के हंडे लगातार रखने के कारण कई सालों तक मेरे सिर पर तालू की जगह घिस गई थी और वहाँ बाल उगने बंद हो गये थे । बहुत बाद में जब मैंने पानी लाना छोड़ा तब मेरे सिर पर तालू वाली बीच की जगह पर बाल उगने शुरु हुए ।
पिताजी का काम काज अच्छा चलता था । उन दिनों उनके पास कुछेक लड़के काम सीखने आते थे । उन्हीं में से एक था फ्रांसिस , जो तमिलनाडु का रहनेवाला था । हम दोनों में पहचान हुई और धीरे धीरे हम एक दूसरे को चाहने लगे । मेरे घर में जब इस बात का पता चला तब घरवालों ने तुरंत मेरी मंगनी अपनी बिरादरी के एक गढ़वाली आदमी से कर दी , जो मुझसे नौ साल बड़ा था । मेरी इच्छा के बगैर मंगनी कर दी गई । जब शादी का समय आया तो मुझे लगा कि मैं उससे शादी नहीं करना चाहती । अपनी मर्जी से शादी के लिए मैने घर छोड़ दिया ।
1970 में शादी के बाद मैं और फ्रांसिस कुर्ला में रहने लगे । तीन - चार महीने के बाद जब सब कुछ ठीक ठाक हो गया तब फ्रांसिस के माता - पिता हमें भांडुप में अपने घर में ले आए । वे मुझे बहुत मानते थे । फ्रांसिस के पिता ने तो शादी के समय ही मुझसे कहा कि तुम यहाँ क्यों चली आई , यह लड़का तुम्हे संभाल नहीं पाएगा ।
बचपन में मेरा नाम पवित्रा था । मैं ठाकुर परिवार की हिंदू लड़की और फ्रांसिस तमिल परिवार का ईसाई । शादी के बाद मुझे चर्च में जाकर अपना धर्म बदलना पड़ा । मुझे नया नाम ‘ सुगंधि ’ दिया गया । सब के साथ मुझे अक्सर रविवार की प्रार्थना ( संडे मास ) के लिए चर्च जाना पड़ता था । मैं बस अपने सास - ससुर का मन रखने के लिए चर्च चली जाती थी ।
प्रस्तुति - सुधा अरोड़ा
मेरा जन्म गढ़वाल (आज के उत्तरांचल राज्य ) के एक छोटे से गाँव में 1952 में हुआ । रिखणीखाल नाम का यह गाँव कोटद्वारा से एक घंटे के रास्ते पर पहाड़ी पर स्थित हैं । वहाँ से कपड़े और बर्तन धोने के लिए भी नीचे नदी तक आना पड़ता था । वहाँ पर साठ सत्तर घर ही होंगे जो ज्यादातर खेती ही करते हैं । कुछ के बच्चे मिलिट्री में हैं तो कुछ रोटी - रोजी की तलाश में मुंबई आ गए ।
बचपन की एक घटना मुझे अब तक याद है - जब मैं छः साल की थी तो अक्सर अपनी मौसी के यहाँ रहनेजाती थी । उनका घर ऊँची पहाड़ी पर था । उस इलाके में रोज भालू आया करते थे । ये भालू बच्चों को उठाकर ले जाते थे । भालू के आतंक से बचने के लिए मेरी मौसी घर के दरवाजे पर अंदर से बहुत बड़ा पत्थर रख देती थी । यह पत्थर इतना भारी होता था कि हम सभी बच्चे और मौसी मिलकर उस पत्थर को लुढ़काकर दरवाजे तक ले आते थे । उसके बाद मौसी हम छोटे बच्चों को एक - एक टोकरी में बंद कर खाट के नीचे टोकरी को खिसकाकर रख देती थी । खाट के चारों तरफ चादर लटका देती थी ताकि टोकरियाँ भी दिखाई न दें । हम सभी बच्चे उसी टोकरी में दुबके दुबके सो जाते थे । और यह रोज की बात थी ।
पहाड़ी इलाके में छः साल रहने के बाद 1958 में जब हम मुंबई आए तो यहीं के होकर रह गये । मेरे पिता मोटर गैरेज में फिटर मैकेनिक थे । मै भांडुप के हिंदी स्कूल में पढ़ने लगी । मुझे याद है जब मैं आठवीं कक्षा में थी तब पहली बार मुझे माहवारी हुईं । स्कूल वालों ने मुझे घर भेज दिया । जब मेरी माँ को इस बात का पता चला तो उन्होने मुझे घर के भीतर घुसने ही नहीं दिया । मुझे बाहर ही बिठा कर रखा । मुझे बड़ा अजीब लगा । उन्होंने कहा - पिताजी के ऊपर देवता आता है और मुझे चेतावनी दी गई कि इसके बाद जब भी तुम्हें माहवारी हो सारे काम छोड़कर घर के बाहर रहना पड़ेगा । इस झंझट से बचने के लिए मैं अपनी माँ को माहवारी की बात बताती ही नहीं थी । उन तीन दिनों में लड़की को बिल्कुल अछूत की तरह दहलीज़ के बाहर चटाई पर बिठा दिया जाता था । आज भी कई परिवारों में ऐसा ही रिवाज है ।
मैंने जैसे - तैसे आठवीं तक पढ़ाई पूरी की । इसके आगे मैं पढ़ न सकी क्यों कि सबसे बड़ी लड़की होने के नाते घर के काम - काज में माँ का हाथ बँटाना पड़ता था । मुझसे सोलह साल छोटी बहन आनंदी तभी पैदा हुई थी और माँ का ऑपरेशन हुआ था इसलिए घर में चार छोटी बहनों और एक भाई की जिम्मेदारी मुझपर आ पड़ी ।
मुंबई के भांडुप इलाके के जिस घर में हम रहते थे , वहाँ नल नहीं था । पानी बाहर से भरकर लाना पड़ता था । सबसे बड़ी होने के कारण पानी के हंडे सिर पर उठाकर लाने का काम मेरे जिम्मे था । कम से कम डेढ़ दो सौ लिटर पानी रोज़ लाना पड़ता था । सिर पर पानी के हंडे लगातार रखने के कारण कई सालों तक मेरे सिर पर तालू की जगह घिस गई थी और वहाँ बाल उगने बंद हो गये थे । बहुत बाद में जब मैंने पानी लाना छोड़ा तब मेरे सिर पर तालू वाली बीच की जगह पर बाल उगने शुरु हुए ।
पिताजी का काम काज अच्छा चलता था । उन दिनों उनके पास कुछेक लड़के काम सीखने आते थे । उन्हीं में से एक था फ्रांसिस , जो तमिलनाडु का रहनेवाला था । हम दोनों में पहचान हुई और धीरे धीरे हम एक दूसरे को चाहने लगे । मेरे घर में जब इस बात का पता चला तब घरवालों ने तुरंत मेरी मंगनी अपनी बिरादरी के एक गढ़वाली आदमी से कर दी , जो मुझसे नौ साल बड़ा था । मेरी इच्छा के बगैर मंगनी कर दी गई । जब शादी का समय आया तो मुझे लगा कि मैं उससे शादी नहीं करना चाहती । अपनी मर्जी से शादी के लिए मैने घर छोड़ दिया ।
1970 में शादी के बाद मैं और फ्रांसिस कुर्ला में रहने लगे । तीन - चार महीने के बाद जब सब कुछ ठीक ठाक हो गया तब फ्रांसिस के माता - पिता हमें भांडुप में अपने घर में ले आए । वे मुझे बहुत मानते थे । फ्रांसिस के पिता ने तो शादी के समय ही मुझसे कहा कि तुम यहाँ क्यों चली आई , यह लड़का तुम्हे संभाल नहीं पाएगा ।
बचपन में मेरा नाम पवित्रा था । मैं ठाकुर परिवार की हिंदू लड़की और फ्रांसिस तमिल परिवार का ईसाई । शादी के बाद मुझे चर्च में जाकर अपना धर्म बदलना पड़ा । मुझे नया नाम ‘ सुगंधि ’ दिया गया । सब के साथ मुझे अक्सर रविवार की प्रार्थना ( संडे मास ) के लिए चर्च जाना पड़ता था । मैं बस अपने सास - ससुर का मन रखने के लिए चर्च चली जाती थी ।
क्रमशः