गत दिनों स्त्रीविमर्श के हमारे नियमित स्तम्भ एकालाप के अंतर्गत प्रस्तुत कविता को मैंने चिट्ठाचर्चा के अपने सोमवासरीय स्तम्भ में सम्मिलित किया। हिन्दी ब्लॉग जगत में विश्व महिला दिवस पर जिन प्रश्नों को उठाया दोहराया गया, उनके सन्दर्भ में उक्त स्तम्भ में इसे सम्मिलित किया था। और, क्योंकि कविता की संवेदना व विचार की तीव्रता अत्यन्त मारक थी सो मैंने इसकी एक काव्यपंक्ति (औरतों के जननांग पर फहरा दो विजय की पताका) को उस अपने स्तम्भ के लिए शीर्ष पंक्ति के रूप में चुना। इसका प्रतिफल जहाँ एक और यह हुआ कि बहुत से लोगों को यह आपत्तिजनक लगा ( उन्होंने अपनी तीव्रातितीव्र आपत्तियाँ दर्ज़ भी करवाईं ), दूसरी ओर कुछ सहृदय ब्लॊग लेखकों को उन स्त्री प्रश्नों/ विषय पर लिखने की मानसिकता में घेरा भी।
ऐसा ही एक उदाहरण सिद्दार्थशंकर त्रिपाठी जी के सत्यार्थमित्र पर आज देखने को मिला । वे लिखते हैं कि -
"हाल ही में ऋषभ देव शर्मा जी की कविता ‘औरतें औरतें नहीं हैं’ ब्लॉगजगत में चर्चा का केन्द्र बनी। इसे मैने सर्व प्रथम ‘हिन्दी भारत’ समूह पर पढ़ा था। बाद में डॉ.कविता वाचक्नवी ने इसे चिठ्ठा चर्चा पर अपनी पसन्द के रूप में प्रस्तुत किया। अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस (८ मार्च) के अवसर पर स्त्री विमर्श से सम्बन्धित चिठ्ठों की चर्चा के अन्त में यह कविता दी गयी और इसी कविता की एक पंक्ति को चर्चा का शीर्षक बना दिया गया। इस शीर्षक ने कुछ पाठकों को आहत भी किया।"
यह लेख यद्यपि उन्होंने बड़े सद्भाव व स्त्रीजाति के प्रति आत्मीयता से प्रेरित हो कर लिखा है किंतु लेख के अंत में उन्होंने स्त्री सशक्तीकरण के प्रयास में जुटी स्त्रियों व संगठनों के प्रति कुछ ऐसी बातें कह दी हैं जिनका समाधान अनिवार्य है। देखें -
("आजकल स्त्री विमर्श के नाम पर कुछ नारीवादी लेखिकाओं द्वारा कुछेक उदाहरणों द्वारा पूरी पुरुष जाति को एक समान स्त्री-शोषक और महिला अधिकारों पर कुठाराघात करने वाला घोषित किया जा रहा है और सभी स्त्रियों को शोषित और दलित श्रेणी में रखने का रुदन फैलाया जा रहा है। इनके द्वारा पुरुषवर्ग को गाली देकर और महिलाओं में उनके प्रति नफ़रत व विरोध की भावना भरकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली जा रही है। यह सिर्फ़ उग्र प्रतिक्रियावादी पुरुषविरोधवाद होकर रह गया है। यह प्रवृत्ति न सिर्फ़ विवेकहीनता का परिचय देती है बल्कि नारी आन्दोलन को गलत धरातल पर ले जाती है।")
इस लेख को प्रथम दृष्ट्या पढ़ कर मेरे मन में कुछ विचार उठे ( या प्रतिक्रिया जो जन्मी), वे एक प्रकार से उन तर्कों ( वस्तुत: आक्षेपों) का उत्तर हैं जो उन्होंने अनचाहे ही स्त्री के शोषण के विरुद्ध कार्य करने वाली इकाइयों अथवा संगठनों पर प्रश्नचिह्न -से लगाए हैं।
मेरा मानना व कहना है कि -
कविता वाचक्नवी said...
सिद्धार्थ जी,
आपने इस लेख को जिस भावना से लिखा है उसके प्रति मेरी शुभकामनाएँ,बधाई। अच्छा लगता है कि ऐसा वातावरण बनने लगे जब महिलाओं के प्रति मानवीय दृष्टि से समझ विकसित करने की आवश्यकता अनुभव हो।
जिसको प्रकृति द्वारा जैसा बनाया गया है, उस से उसे शिकायत नहीं है, उसी प्रकार स्त्री को प्रकृति से कोई शिकायत नहीं है अपितु वह इस सुख की दावेदार, बल्कि मैं कहूँगी कि अधिकार की दावेदार, होने पर गर्वोन्नत ही होती है कि woman is second to God. इसलिए इस विषय में दयादृष्टि जैसा भाव भी उसे खलता है और इस स्थिति का लाभ उठाने की ताक में लगे रहने वाला भाव भी।
यदि किसी समाज में उसकी सम्पूर्ण आबादी के आधे हिस्से का २ प्रतिशत ( यानि कुल आबादी का १ प्रतिशत )स्त्री के शोषण के विरुद्ध आवाज उठाता है, तो इसमें तिलमिलाने जैसी बात कहीं होनी ही नहीं चाहिए। ऐसे तर्क उठने ही नहीं चाहिएँ कि स्त्री-पुरुष का मुद्दा क्यों कहा जा रहा है। आप गिन सकते हैं कितनी स्त्रियाँ वेश्या हैं ( वेश्या कौन बनाता है, किसके आनन्द का साधन हैं वे?) कितनी विधवाएँ सिर मुँडाए अपना जीवन गर्क करती हैं? ( ताकि कहीं किसी पुरुष की दृष्टि रूप पर न पड़ जाए), कितनी बुर्कों में हवा,प्रकाश, धूप तक से वंचित हैं?(ताकि किसी पुरुष का ईमान न डोल जाए)। बाकी सारे एक लाख-भर मुद्दों को छोड़ भी दिया जाए तो यही तीन मुद्दे काफ़ी हैं यह बताने को कि बात केवल कमजोर या सबल की नहीं है। ( बलात्कार का प्रतिशत भी आपको पता ही होगा, उसे भी इसमें और जोड़ लें)।
बात कमजोर और सबल की तब होती जब पता चलता कि क्या किसी कमजोर पुरुष को बुर्का पहनाया गया? या उसे विधुर होने पर जीवन कारा में मरने के लिए छोड़ दिया गया? या किसी महिला ने सबल होने पर अपने बेटे से शारीरिक सम्बन्ध बनाए?
अब एक उदाहरण देती हूँ। आजकल बहुधा बूढ़ों के प्रति उनकी अपनी सन्तान का व समाज का रवैया कितना स्वार्थ का रूप ले चुका है, आप जानते हैं। ऐसी ऐसे भयंकर घटनाएँ, अपने माता-पिता तक की हत्या आदि व न जाने क्या क्या हो रहा है। वृद्धों के अधिकारों की रक्षा करने वाले संगठन व लोग इसका प्रतिकार करते हैं व एक मिशन की भाँति इस दिशा में प्रयास करते हैं कि ऐसी सन्तान के स्वार्थ से उन्हें बचाया जाए। ऐसे लोगों की सामजिक निन्दा, बहिष्कार, हुक्का-पानी बन्द आदि भी किसी न किसी रूप में करवाए जाने की आवश्यकता अनुभव होती है। ताकि वे चेतें, और न चेतें तो दण्ड दिलवाया जाए। अस्तु। क्या वृद्धों के उत्पीड़न वाले मसले पर कोई यह कहता है कि नहीं इसे वृद्ध बनाम सन्तान या युवा का मामला मत बनाओ, यह तो कमजोर बनाम सबल का मामला है।
समाज का सबल वर्ग जिस भी भेस में जिस भी संबन्ध व इकाई पर अपनी सबलता का दुरुपयोग करेगा, वह उस वर्ग पर प्रश्नचिह्न लगाएगा ही।
और क्या ये महिला संगठन सास द्वारा, ननद द्वारा, या बहू द्वारा परस्पर किए जाने वाले अत्याचार को सही ठहराती हैं? क्या ऐसे प्रकरणों में वे उन भूमिकाओं में महिलाओं की निन्दा नहीं करतीं?
सीधी-सी बात है कि अनुपात के आधार पर यह निर्धारण होता है, स्त्रियों के शोषण का ९०% भाग जब पुरुष के माध्यम से सम्पन्न होता, उसके कारण होता है, उसकी शारीरिक व मानसिक कुँठाओं के कारण रचे गए छद्म द्वारा होता है तो सामान्यत: उसे ही तो दोष दिया जाएगा ना!
और जो लोग इस शोषण में हिस्सेदार नहीं हैं, उसे/उन्हें कब किस महिला ने गाली दी, मुझे बताइये। किसने कहा कि वे टार्गेट हैं? ऐसे पुरुषों को कितना मान व आत्मीयता मिलती है, सम्भवत: यह बताने के वस्तु नहीं। और मजे की बात तो यह कि इस मान व आत्मीयता को भी पुरुषों ने स्त्री को ठगने का माध्यम बना लिया है। वे एक प्रकार का स्त्रीहित का छद्म ओढ़ कर महिलाओं की भावनाओं से खिलवाड़ करने से भी नहीं चूकते। बहुधा पुरुष ऐसे भी धूर्त हो जाते है,हैं। स्त्रीविमर्श के नामलेवा तथाकथित नामचीन पुरुषों से आप परिचित ही होंगे।
ऐसे में स्त्री किस आधार पर विश्वास करे पुरुष का। उसके विश्वास को छलनी करने वालों को दोष देने की अपेक्षा यदि कोई कातर,छले हुए को ही दोष दे तो क्या कहा जाए उसकी सोच पर।
यदि वास्तव में पुरुष की अस्मिता को स्त्री से इस प्रकार दोषी ठहराए जाने पर कष्ट पहुँचता है तो इसके लिए स्त्रियों को चुप करवाने की अपेक्षा पुरुषों को धिक्कारने में,शोषण से रोकने में स्त्रियों के साथ मिलकर यत्न किए जाने चाहिएँ ताकि समाज में इस स्त्रियों के लिए रचे गए इस नर्क को समाप्त किया जाए व पुरुषों को भी दोष आने से।
जो पुरुष इस नर्क को रचने में कदापि भागीदार नहीं हैं, वे यह भी जानते हैं कि पुरुषों को दोषी ठहराने वाला तीर उन पर नहीं ताना गया। इसका निशाना वे हैं जो इस पातक के कर्ता हैं। यदि कक्षा में अध्यापक सब बच्चों को डाँटे- फटकारे कि जूते ठीक से पॊलिश नहीं करते हो, या गन्दे ही शाला चले आते हो, तो क्या नियमित व अनुशासनबद्ध रहने वाला कोई विद्यार्थी इस पर तिलमिलाएगा? या क्या ऐसा भी मानेगा कि उसे जूतों के लिए डपटा गया?
अत:जिन पर ये बातें लागू नहीं होतीं, उनको दोषियों के धिक्कारे जाने पर विचलित होने या धिक्कारने वाले को दोष देने या चुप करवाने की जरूरत क्यों आन पड़ती है?
हर अपराधी को दण्ड/ फाँसी मिलनी चाहिए, मिले! परन्तु जो अपराध में संलिप्त नहीं है, उनका न्यायप्रक्रिया या अपराध की प्रतिक्रिया करते व्यक्ति को ही दोषी ठहराना गले न उतरने वाली बात है।
ऋषभदेव जी की कविता पढ़कर उस दिन ‘कुछ’ लोगों ने अपनी तिलमिलाहट में प्रश्नचिह्न लगाए कि "सब पुरुष ऐसे नहीं होते", "उक्त कविता का लेखक भी तो पुरुष ही है" आदि आदि। बात सही है। और यही प्रमाणित करती है कि जो पुरुष स्त्री की अस्मिता की रक्षा के युद्ध में उसके साथ खड़े हैं, उन्हें स्त्री कभी नहीं धिक्कारती। उन्हें स्त्रियाँ मान ही देती हैं। इसका प्रमाण भी यही उदाहरण है कि एक पुरुष की रचना को एक स्त्री ने इतने आदर पूर्वक छापा और उसकी एक पंक्ति के मान के लिए चक्रव्यूह में घिर लोहा लिया। और, इतना ही नहीं, उस पुरुष को अन्य महिला-प्रकल्पों में भी अत्यन्त आदर दिया गया।
दूसरी ओर ऐसे भी लोग हैं कि उन्हें हर स्त्री केवल देह दिखाई देती है। उदाहरण आप से छिपा नहीं है। जब किसी की प्रशंसा में लिखते लिखते लेखक इतना बहक जाता है कि उसके घर परिवार की स्त्रियों पर ही उसकी कलम बहक जाती है। ‘इन्द्रलोक’ (संकेत समझ रहे होंगे)की कल्पना ही उसका ईमान डिगा देती है और वह सामान्य सामाजिक मर्यादा तक से स्खलित हो जाता है कि ....।
और अरविन्द मिश्रा की उस समझ पर क्या कहूँ, जो स्त्री के समक्ष पुरुष के दैहिक बल अधिक होने को स्त्री के "अभिभावक" होने का नाम देकर अपना अहं पोसते हैं और स्त्री के मानापमान की रक्षा करने वालों को SHE MAN और दुनिया के सारे शोषक व चुगद दम्भी पुरुषों को HE MAN समझ उनकी ओर से स्त्री को वस्तु ही ठहराते हैं, जो केवल पुरुष द्वारा उसके आनन्द व उपभोग के लिए बनी है, उसकी मानसिक शारीरिक तृप्ति के लिए बनी है। जब तक, जब-जब, जो-जो आनान्ददायी रहेगी तब तक, वह-वह अच्छी स्त्री कहलाएगी वरना गन्दी, घटिया, पथभ्रष्ट, समाज की पातक व और जाने क्या क्या कहलाएगी।
आपके बहाने बहुत-सी चीजें साफ़ कहने का अवसर मिला, आपके प्रश्नों ने विचार के लिए बाध्य किया, तदर्थ आभारी हूँ। आपकी जागृत सम्वेदना प्रशंसनीय है, बस, उसे बहकने मत दीजिए, अभी उसे बहकाने वालों के असर से बाहर आना है, बस। मानवीयता के संस्कार जब हिलोरें लेते हैं तो समाज मुस्काता है।
शुभकामनाएँ।
पुनश्च-
आपके लेख का मूल स्वर वास्तव में जिस भावना को लेकर उठा है, उसके लिए आपकी प्रशंसा की जानी अत्यावश्यक है।
आप सभी का का क्या कहना है? जो विचार आपके मन में इस सन्दर्भ में उठते हों हमें उनसे परिचित कराइए, व्यक्त कीजिए।
- कविता वाचक्नवी
विचारशील पोस्ट! सभी टिप्पणियां पढ़ीं! अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएंआपका सूत्र वाक्य मानवीयता के संस्कार जब हिलोरें लेते हैं तो समाज मुस्कराता है। पढ़कर अच्छा लगा! मुस्करा रहे हैं! :)
सिद्धार्थशंकर त्रिपाठी जी द्वारा ईमेल से प्रेषित टिप्पणी-
जवाब देंहटाएंस्त्री विमर्श पर आपकी पोस्ट के लिए साधुवाद। निम्न टिप्पणी करना चाह रहा था लेकिन पोस्ट नहीं हो सकी। आप अपने कम्प्यूटर से कर दें।
सादर!
(सिद्धार्थ)
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आदरणीया कविता जी,
मैने सभी नारीवादी लेखिकाओं पर टिप्पणी नहीं की है बल्कि कुछ... जी हाँ कुछ के बारे में यह बात लिखी है-
"आजकल स्त्री विमर्श के नाम पर कुछ नारीवादी लेखिकाओं द्वारा कुछेक उदाहरणों द्वारा पूरी पुरुष जाति को एक समान स्त्री-शोषक और महिला अधिकारों पर कुठाराघात करने वाला घोषित किया जा रहा है और सभी स्त्रियों को शोषित और दलित श्रेणी में रखने का रुदन फैलाया जा रहा है।"
लेकिन आपने इसे सभी नारीवादी महिला लेखिकाओं के ऊपर टिप्पणी मान ली। यहीं हमारी असहमति है। इस समाज में हर वर्ग में अच्छे-बुरे, तीव्र-मध्यम, उग्र-शान्त, दुष्ट-सज्जन या चरमपन्थी-मध्यमार्गी लोग भरे पड़े हैं। ऐसे में सामान्यीकरण से बचना चाहिए। बल्कि कोई एक व्यक्ति भी पूरा का पूरा खराब या अच्छा नहीं होता। एक ही व्यक्तित्व में कुछ अच्छी और कुछ खराब बातें मिल जाती हैं। इसलिए किसी को भी पूरी तरह खारिज या स्वीकार नहीं किया जा सकता। अच्छे या बुरे ‘विचार’ होते हैं जिनका मण्डन या खण्डन किया जाना चाहिए, न कि सम्पूर्ण व्यक्ति का।
--
सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी
http://satyarthmitra.blogspot.com
1. क्षमा करें, मुझे तो यार लोगों का छेड़ा ऐसा घमासान कभी-कभी बैठे ठाले का शगल भी लगता है.
जवाब देंहटाएंसमाज में आम औरत की दु:स्थिति किसी भी जागरूक नागरिक से छिपी नहीं है.ऐसे में रेत में सिर छिपाने की कोशिश को पलायन कहा जाना चाहिए.
और हाँ , सबकी अपनी वर्गीय पक्षधरताएं भी तो होती हैं. कभी बड़े मानवीय सरोकारों के लिए निहित वर्गीय पक्ष का अतिक्रमण भी करना पड़ता है. स्त्री-पक्ष मेरे लिए व्यक्तिगत रूप से सदा ऐसा ही वृहत मानवीय सरोकार रहा है इसलिए शी-मैन जैसी गाली भी शिरोधार्य है ........'निन्दन्तु नीति-निपुणा: यदि वा...'
2. शायद यार लोगों की आपत्ति का मूल कारण यह नहीं है कि यह कविता उन्हें अतियथार्थवादी अथवा स्त्री- तुष्टिकरणवादी प्रतीत हुई ....ऐसा प्रतीत होने का कोई आधार नहीं है क्योंकि यथार्थ इससे अधिक वीभत्स है....इसे वे भी जानते हैं. आपत्ति का वास्तविक कारण है....इस कविता [औरतें औरतें नहीं हैं] का
निर्णयात्मक तेवर .
कविता का जजमेंटल होना कुछ दोस्तों को हजम नहीं हो पाया, बात बस इतनी सी है.
पर मैं क्या करूँ कि मेरे निकट निर्णयात्मक होना या न होना रचना के क्षण में अप्रासंगिक था , मैं तो एक सच्चाई को शब्दबद्ध कर रहा था .......और मेरा मानना है कि पूरी बात उन शब्दों में बंध नहीं पाई.
befitting reply , kavita
जवाब देंहटाएंपढ़ा, विचारा -सधा हुआ लेखन-विषय से जरा भी नहीं डिगा और बांधे रखा. साधुवाद!!
जवाब देंहटाएंआपका लेख प्रभावी है ,जवाब सटीक है।दिक्कत यह है कि स्त्री आन्दोलनों को हमेशा इसी तरह देखा जाता है ये पुरुषों के खिलाफ ज़हर उगलती भरती हैं।
जवाब देंहटाएंयह ध्यान रखना चाहिये कि स्त्री कभी किसी मज़दूर आन्दोलन,हरित आन्दोलन ,स्वतंत्रता आन्दोलन या किसी भी मोर्चे मे न्याय की आवाज़ उठाने से नही चूकी है ,तब कोई नही कहता कि नारे लगाने वाली हैं या भाषण बाज़ी वाली हैं या इस -उस के खिलाफ बोलने वाली है लेकिन जैसे ही वह अपने अधिकार के लिए आवाज़ उठाती है आप निशाना बना देते हैं।
कविता दी...अभी अभी आपकी फेसबुक की पोस्ट पर आपके दिए इस लिंक को पढ़ा तो अनायास ही मुझे मेरी लिख ये पंक्तियाँ याद आ गयी....
जवाब देंहटाएंसमझ नहीं पा रही है
वह कि
जब वह अपनी
निस्सहाय ,
बीमार पड़ी माँ की
सेवा करते हुए
पेट पालन के लिए
बाहर काम पर जाती है
अपनी पीड़ा सबसे छुपाते हुए
हँस कर
सबसे बतियाती है
तो क्यूँ
कुलटा, कुलक्षिणी
कहलाती है
जबकि
"वह "
जो काम के बहाने
दौरे पर जाता है
और
मौज -मस्ती व
रंगीनियों में
अपनी शाम बिताता है
फिर भी
"बेचारा "
ही कहलाता है ....
आप बिलकुल सही कह रही हैं....औरत के सशक्तिकरण के विरुद्ध सिर्फ वाही व्यक्ति आवाज़ उठाएगा जो खुद उसके दमन की प्रक्रिया का हिस्सा है...शायद अपनी गिल्ट-फीलिंग के चलते वह ऐसा कर रहा है...