एकालाप
अम्मा, ग़रज़ पड़ै चली आओ चूल्हे की भटियारी !
दो बेटे हैं मेरे.
बहुत प्यार से धरे थे मैंने
इनके नाम - बलजीत और बलजोर!
गबरू जवान निकले दोनों ही.
जब जोट मिलाकर चलते,
सारे गाँव की छाती पर साँप लोट जाता.
मेरी छातियाँ उमग उमग पड़तीं.
मैं बलि बलि जाती
अपने कलेजे के टुकडों की!
वक़्त बदल गया.
कलेजे के टुकडों ने
कलेजे के टुकड़े कर दिए.
ज़मीन का तो बँटवारा किया ही,
माँ भी बाँट ली!
ज़मीन के लिए लड़े दोनों
- अपने अपने पास रखने को,
माँ के लिए लड़े दोनों
- एक दूसरे के मत्थे मढ़ने को!
बलजोर ने बरजोरी लगवा लिया अँगूठा
तो माँ उसके काम की न रही,
बलजीत के भी तो किसी काम की न रही!
दोनों ने दरवाजे बंद कर लिए,
मैं बाहर खड़ी तप रही हूँ भरी दुपहरी;
दो जवान बेटों की माँ!
जीवन भर रोटी थेपती आई.
आज भी जिसका चूल्हा झोंकूँ,
रोटी दे दे ....शायद!
-ऋषभ देव शर्मा
बहुत सुन्दर रचना प्रस्तुति . धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना। मन भिगो गई।
जवाब देंहटाएंसामयिक व्यंग्य रचना हेतु साधुवाद
जवाब देंहटाएंकितना खूबसूरत अंदाज़ है आपके लिखने का ,मुबारक हो
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