महिलाओं के विरुद्ध जिन यौन-अपराधों को कई ज्ञात-अज्ञात कारणों/दबावों के कारण कहीं दर्ज नहीं करवाया जाता/जा सकता, उन्हें घर बैठे दर्ज करवाने और सहायता लेने के लिए एक नई महत्वपूर्ण अ-सरकारी साईट -सेफ़-सिटी
कैसे कहा होगा उसने
माता पिता से,
पीहर और ससुराल से -
- नहीं ,मुझे यह विवाह स्वीकार नहीं
- न, मैं नहीं मानती बालपने की शादी को
- गुड़िया के खेल तक की समझ न थी मुझे
विवाह की समझ कैसे होती
- आपका दिया यह पति मेरा पति नहीं !
कैसे टटोला होगा अपने आप को
जवाब दिया होगा दुनिया को -
- बंधन है बिना प्रेम का विवाह
और मुझे अस्वीकार - कोई पुरुष दीखा ही नहीं
प्रेम के योग्य ;
एक परमपुरुष के सिवा
- वह आलोकसुंदर परमपुरुष ही मेरा प्रियतम है !
कैसे किया होगा सामना
तन मन को बींधती ज़हरबुझी नज़रों का ,
नकारा होगा अध्यात्म का भी आकर्षण
तोड़कर शृंखला की कड़ियाँ सारी
भारी -
- स्त्री पुरुष में जो भेद करे
वह धर्म मेरा नहीं
- स्त्री जाति से जो भयभीत हो
वह गुरु मेरा नहीं !
कैसे बाँटा होगा उसने अपने अस्तित्व को
अपने स्वयं रचे परिवार में -
किसी विधवा नौकरानी को
किसी सेवक को
किसी जिज्ञासु को
किसी गाय, किसी गिलहरी , किसी मोरनी को !
उसने जीते जी मुक्ति अर्जित की
विराटता सिरजी -
कभी बदली
कभी दीप
कभी कीर बनकर.
उसी ने दिखाया मुक्ति का मार्ग मेरी स्त्री को
संपूर्ण आत्मदान के बहाने
न्यस्त करके स्वयं को
सर्वजन की आराधना में .
{नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली से शीघ्र प्रकाश्य रामकथा के समस्त स्त्री चरित्रों पर केन्द्रित महाकाव्य `त्रेता 'का एक सर्ग)
अपने पिता कैकय-नरेश के अतिशय लाड़-प्यार ने बना दिया था बाल्यकाल से ही मुझे कुछ दु:साहसी, हठी भी।
किसी भी तरह की मेरी इच्छा पूर्ण होती अविलम्ब।
पुरूष से मैं- स्वयं को न हीन कभी मानती।
सच तो यह था कि उसे निम्नतर और स्वयं को ही श्रेष्ठ मानती मैं!
पुरूष मेरी दृष्टि में था मात्र एक कठपुतली।
पिता हो कि पति हो!
उसी सोच का सम्बल लेकर घुड़सवारी हो या तलवारयुद्ध, या फिर हो धनुषबाण चलाना आग्रह कर सीखी मैंने पुरूषों की प्रकृति के अनुकू ल सभी विद्याएँ- अल्प आयु में ही।
महत्वाकांक्षा का समुद्र था- ठाठें मारता, मेरे भीतर।
अप्रतिम सौन्दर्य ने जगाया था- आत्मविश्वास गहन मुझमें।
सोचती थी मैं- 'विवाह होगा मेरा किसी ऐसे राजकुमार से जो- रूप में, गुणों में मुझसे भी होगा श्रेष्ठ:
'और फिर विवाह के उपरांत उसकी रानी बन उसका हृदय जीतकर मैं उसके माध्यम से करूंगी सत्ता-संचालन।
'रानी, पटरानी, महारानी की पृथक भूमिकाओं को निभाते हुए एक साथ, कालान्तर में पुत्रोत्पत्ति कर उसके युवा होने पर देख उसे सिंहासनासीन, राजमाता होने के गौरव को भी कर सकूँगी साकार मैं।'
किन्तु मेरी सभी इच्छाओं पर ज्यों पड़ा तुषार।
विवाह हुआ महाराज दशरथ से, जो मुझसे आयु में पर्याप्त बड़े, वयोवृद्ध।
मैं जिनकी तीसरी बनी रानी!
मेरे पिता अश्वपति- कैकय नरेश, सूर्यवंशियों से सम्बन्ध जुडऩे पर थे अति प्रसन्न।
उन पर निरंतर आक्रमणरत शत्रुओं का होगा अब पराभव, - ऐसा अनुमान कर।
मैं न थी प्रसन्न, और पक्ष में नहीं थी इस विवाह के, किन्तु पिता की शक्ति बढ़ती देख, शत्रु के प्रति उनकी भावी निश्चिन्ता ने मुझे इस पर सहमति की मुहर लगाने को कर दिया विवश।
मेरी माँ ने मुझे यह समझाया था कि- ''महाराज दशरथ मुग्ध तुम्हारे सौन्दर्य पर, उत्सुक हैं यह संबंध करने को।''
संकेतों में यह भी कहा उन्होंने- कि मेरी ही सन्तान भविष्य में होगी सत्तासीन!
''सबसे बड़ी पटरानी आदर का बनती पात्र, और सबसे छोटी को प्यार सर्वाधिक मिलता राजा का।''
महत्वाकांक्षी मेरी सत्ता-प्राप्ति की थी येन-केन-प्रकारेण!
पटरानी तो नहीं बन सकी मैं, किन्तु मैंने मन ही मन किया निश्चय दृढ़ कि अन्ततोगत्वा- अयोध्या की राजमाता की उपाधि/ प्राप्त मुझे करनी है। और मैं यों.... अल्प आयु में ही बनकर महाराज दशरथ की सबसे छोटी रानी....
परम आदरणीय और अति स्नेहिल जैसे विरोधी तटों के बीच जीवन की वेगवती उफनती-उद्याम नदी की लहरों में संतरण के लिए अभिशप्त होने- आ गई अयोध्या के राजमहल के भीतर, मन में संकल्प लिये राजमाता बनने का!
जीवन में नहीं कभी पराजय स्वीकार की थी मैंने।
मेरी तीक्ष्ण बुद्धि ने अविलंब चितंन कर दिया प्रारंभ, और मैं रहने लगी प्रतीक्षातुर किसी ऐसे अवसर की...
जबकि मुझे महाराज का साथ अधिकाधिक समय बिताने के लिए मिल सके।
शीघ्र ही वह मिला जब महाराज- युद्ध में प्रस्थान हेतु करवाकर विजय-तिलक बहन कौशल्या के बाद मेरे कक्ष में ही आ पहूँचे, और चौंक गए मेरे हाथ में म्यान से निकली हुई तलवार और युद्धभूमि के लिए प्रयाणरत क्षत्राणी का वेश देख!
'' यह क्या है रानी? '' पूछा महाराज ने जब तो मैंने कहा:
''महाराज! कैकेयी का विजय तिलक समरभूमि में ही लगेगा मस्तक पर आपके, और वह स्वयं ही लगाएगी आपकी महान जीत की साक्षी बनकर !''
मेरे हठ के आगे महाराज दशरथ की चली नहीं एक और विजय भाव से मैं रथ में उनके साथ बैठ चली युद्धभूमि को ।
रथ के पिछले पहिये को मैंने ही किया था शिथिल और उसे केन्द्र से बाहर होते जैसे ही देखा तो सारथी से कह मैंने रथ को धीमा करवाया उस समय- जबकि महाराज थे शत्रु पर अपने बाणों की वर्षा में निमग्न!
और रथ से कूद उसके साथ भागते हुए रथ के चलते पहिये को पुन: किया केन्द्र में व्यवस्थित!
उसी उपक्रम में मेरी उंगली से रक्तस्त्राव हो उठा।
क्षणभर बाद ही जब दृष्टि महाराज की मुझ पर पड़ी- रथ को रूकवा कर उन्होंने बिठाया पुन: रथ में मुझे और पूछने लगे ''यह क्या हुआ? ''
सब कुछ वैसा ही हुआ - मेरी योजनानुसार!
महाराज ने प्रसन्न होकर मुझसे मांगने को कहा कोई भी दो वर - उनकी जान बचाने के हेतु, किये गए मेरे तथाकथित पराक्रम पर, तो मैंने उचित समझा पहले मौन ही रहना और महाराज के दोबारा बल देने पर कहा यह -
''अभी हम खड़े हैं रणक्षेत्र में और युद्धरत,
''वर मांगने और देने की नहीं उचित बेला यह , आप इस पर बल न दें और जीत की यश: पताका को फहराते हुए युद्ध को समाप्त करें- यही आपका धर्म सर्वोपरि,
''करते हैं आप इतना आग्रह तो निश्चय ही- करूँगी विचार इस संबंध में।
''आप अपने वचनों को रखें स्मरण सदैव।''
सारथी का साक्ष्य था महत्वपूर्ण।
जिसने संकेत मेरा पाकर युद्धभूमि से वापस लौट मेरी कूटनीतिक विजय का संदेश भी प्रसारित किया राजमहल में यथासंशोधित रूप में !
मनोवांछित फल की कामना के लिए निरंतर सक्रिय रहकर धैर्यपूर्वक उचित अवसर की करनी पड़ती है प्रतीक्षा। शनै:-शनै: महाराज दशरथ भी मेरे रूपजाल में उलझते गए अधिकाधिक।
बड़ी दीदी कौशल्या से तो उनका मन दूर हट चुका था पहले ही
मुझे उस समय अवश्य एक झटका लगा जब मात्र कुछ महीनों के लिए ही महाराज का राजसी कामोद्दीप्त मन मँझली दीदी रानी सुमित्रा की अकलुष सुन्दरता के जाल में हुआ था आबद्ध।
मैंने उस समय चतुरता का व्यवहार किया निकट से निकटतर हो गई मँझली रानी के- इस सीमा तक कि वह राजा के संग-साथ वाले कुछ क्षणों को छोड़ मेरे सानिध्य में ही अधिकाधिक करती व्यतीत समय।
समय पर उत्पन्न हुए पुत्र चार हमारे।
कौशल्या ने जन्मा राम को भरत को मैंने, और सुमित्रा के हुए गौरवर्ण लखन और शत्रुघ्र, अपनी सुन्दर गौरवर्ण माँ की भांति।
जबकी राम और भरत श्यामवर्ण
मात्र वर्ण ही नहीं, जैसे-जैसे बड़े हुए उनके स्वभाव में भी दिखी आश्चर्य भरी समानता।
राम और भरत शान्त, मर्यादा पालक,सत्यनिष्ठ थे, जबकि लखन और शत्रुघ्न- वीर तो थे, किन्तु बड़े क्रोधी भी।
राम और भरत की इस स्वभावगत समानता से मैं बड़ी चकित थी।
क्योंकि मेरी अपनी प्रकृति उलट थी कौशल्या से।
मेरी प्रकृति का क्षीणतर भी अंश भरत में नहीं हुआ प्रतिबिम्बित, मैं इससे भीतर ही भीतर रहती थी क्षुब्ध। चाहती थी मैं निर्मित करना इस रूप में भरत का कि मेरी ही तरह वह चतुर और चालाक , जोड़-तोड़ में प्रवीण और कुटनीतिज्ञहो, राम को सदैव अपना प्रतिद्वन्द्वी माने।
किन्तु वह प्रारंभ से ही शान्त था-अन्तर्मुखी, छोटे भाईयों से स्नेह और राम के लिए अनन्त समर्पण!
मेरे प्रति उसके आदर में नहीं कोई भी कमी थी किन्तु आदर और श्रद्धा अन्य माताओं, गुरूओं, पिता के लिए भी वैसा ही भाव झलकता उसमें!
शस्त्र-चालन में वह निपुण था- धनुर्धर निप्णात, किन्तु शस्त्रों के अध्ययन-मनन में भी रूचि उसकी राम की तरह ही ।
सुमित्रा के दोनों योद्धा बालक लक्ष्मण, शत्रुघ्न राम और भरत को मानते थे। आदर्श अपना-अपना।
लक्ष्मण राम की जैसे परछाई बने थे, भरत को के न्द्र मान शत्रुघ्न भी सदा दिखते उसके आसपास ही।
समान गुणों, वर्ण और स्वरूपवाले भाईयों के दो जोड़ों वाला विचित्र समीकरण नहीं समझ में कभी मेरे आया,
जोकि जारी रहा इनके विवाहित होने पर भी।
सूर्यवंशियों के सम्राट और शक्तिशाली महाराज की रानी मुझे बनाकर- अपनी सर्वाधिक लाड़ली पुत्री को स्वयं को गौरवान्वित करने की जो अभीप्सा जगी थी पिताश्री में- उसे मेरी जननी ने बनाया था युक्तिपूर्ण यह कहते हुए कि- '' महाराज ने वचन दिया है कि तेरी ही कोख से जनमेगा पुत्र जो- होगा वही उत्तराधिकारी अयोध्या का!''
और यह कि-
''सूर्यवंशियों का वचन होता है अकाट्य ब्रहृा वाक्य की तरह, लोक में प्रचलित जनश्रुति यह।''
मुझे लगा था जैसे मान लिया था पिता ने मुझे कन्या नहीं एक पुण्य मात्र, जिसे भेंट कर, अयोध्या-सम्राट को क्रय करना चाहते थे शक्ति और भी वे, किंचित् वृद्धि- अपने गौरव में भी!
और मुझे जन्म देने वाली मेरी माता जानती थी मुझे पूर्णत:, मेरी महत्वाकांक्षा को और जैसे उसी को सहलाते हुए कन्यादान की ओट में पिता के भीतर उठे हीन-भाव को रूप दे रही थी शास्त्रार्थ का!
इतनी तो भोली, अबोध थी न मैं!
किन्तु मैंने तौला मन ही मन में सारी परिस्थितियों को-
कैकय प्रदेश शत्रुओं से घिरा, पिता युद्ध करते हुए उनसे जर्जर थे- बाहर से भीतर तक।
सूर्यवंशियों का तेज व्याप्त था भूमंडल में। अस्वीकृति की स्थिति में कैकय राज्य का था ध्वंस सुनिशिचत
और उसे स्वीकार करते ही मैं- अयोध्या की रानी थी, अपने भावी पुत्र को राजसिंहासन पर बैठा देखने का स्वप्न बुनती एक सम्भावित महारानी, राजमाता भी!
स्वप्न को यथार्थ में परिवर्तित करना तो निर्भर था मुझ पर ही। चुनौती बड़ी थी किन्तु-स्वीकारना उसे था मुझे।
साहस की मुझमें- थी नहीं कोई कमी।
अपने रूप और अपनी चतुरता पर गहन था विश्वास मुझे।
किन्तु अयोध्या पहुँची तो मुझे अनुभूति हुई- वह सब कुछ नहीं बहुत सहज था।
लम्बे समय तक मुझे धीरज रखना था।
देखना-परखना था अयोध्या की आन्तरिक परिस्थिति को।
महाराज के प्रति वितृष्णा के भाव को सुषुप्त रखते हुए!
इस क्रम में शनै:शनै:मैने महारानी कौशल्या, सुमित्रा को, महर्षि वशिष्ठ- सूर्यवंशियों के कुलगुरू को, मन्त्री सुमंत को विश्वास में लिया जीता उनके अन्तर्मन को।
राम के प्रति इसीलिए रखती थी मैं अनुग्रह विशेष, ताकि मेरे भीतर का कपट-भाव न हो जाए कभी प्रकट क्योंकि- राम अपने सुसंस्कृत आचार और विचार से राजमहल के ही नहीं जनता के भी थे परम लाड़ले।
महाराज तो मेरे रूपगर्वित सौन्दर्य के समक्ष खो बैठे थे अपनी पहले ही सुधि-बुधि:
किन्तु राम के प्रति उनका मोह, उनका स्नेह था इस सीमा तक- जैसे उनके प्राण ही बसे उसमें!
मुझे आया स्मरण कैकय के युद्ध में अपनी कूटनीतिक रणनीति से मैंने प्राप्त किये थे महाराज से ऐसे दो वर-
प्रयोग जिनका था मुझे करना उचित अवसर पर अमोघ अस्त्र की तरह- अपनी बरसों की संचित आकांक्षा की पूर्ति-हेतु।
जनकपुरी में जनकसुता के स्वंयवर में शिवधनु के भंजन के बाद राम-सीता के परिणय-उत्सव का जब समाचार पहुँचा तो- राजमहल सहित पूरी अयोध्या ही हर्षित हो नृत्य कर उठी जैसे।
मैंने भी लिया सुमित्रा को संग और बधाई दी कौशल्या को हर्ष से भर फूली न समाती जो।
महाराज दशरथ भी भरे हुए आनन्दतिरेक से।
उसी रात शयनकक्ष में अपने जाने जब लगी मैं तो मेरी प्रिय,सखी मन्थरा मेरे आई निकट और बोली- व्यंग्य-स्मिति ला अपने मुख पर।
''रानी कैकेयी। तुम बहुत हो प्रसन्न राम के विवाह से लेकिन मैं तो तभी अनुभूति सुख की कर पाऊँ गी देखुँगी जब मैं तुम्हें राजमाता रूप में।''
''और मुझे लगता है वैसा सुख मुझे नहीं मिलेगा अब कभी भी इस जीवन में।''
''क्योंकि तुम्हें कोई चिन्ता नहीं है भरत की।
''लगता है रामसुत की परिणय-वेला में ही तुम्हें आएगी स्मृति प्रौढ़ावस्था में पहँुचे भरत के विवाह की!''
कहकर वह मन्थर गति से चलती हुई महल में अदृश्य हुई, किन्तु उसी एक क्षण में जगा गई मेरे भीतर सुषुप्त वितृष्णा से भरी अभिमानिनी महत्त्वाकांक्षी स्त्री को।
मैंने उसी क्षण संदेश भेजा महाराज दशरथ को।
राम कल जब लौटेंगे सीता को पत्नी रूप में लेकर लक्ष्मण के संग यहाँ अयोध्या में-
उनके स्वागत में होगा भारी मंगलोत्सव और उसी उसय उनके अनुजों का भी विवाह कल के शुभमुहूर्त में ही होना उचित सभी दृष्टियों से।
क्योंकि तीनों पुत्रों के लिए भी कितने वैवाहिक प्रस्ताव आ चुके पूर्व में ही।
सुमित्रा तो देगी ही अपनी प्रसन्न-सहमति ऐसे संदेश पर- यह जानती थी मैं, और-
महाराज भी प्रसन्न ही होंगे, सोच नहीं पाएँगे- मेरे मस्तिष्क में चल रहा कैसा वात्याचक्र!
मेरी मुख्य चिन्ता थी भरत के विवाह की, किन्तु उस चिन्ता को देना था स्वरूप वह- कि चिन्ता वह लगे सभी पुत्रों की।
प्रकट में तो थी मैं सभी की माता!
मेरे परामर्श पर मुहर लगी सबकी स्वीकृति की
ठीक इसी समय मुझे- झोली में आ गिरे
सुखद संयोग की तरह- दूसरा सन्देसा मिला मन्थरा के ही द्वारा- कि क्षीरध्वज-महाराज जनक- के अनुज कुशध्वज ने भेजा प्रस्ताव था अयोध्या में उनकी तीनों पुत्रियों माण्डवी, उर्मिला और श्रुतिकीर्ति बँध जाएँ वैवाहिक बन्धन में भरत, लखन, शत्रुघन से, और उसे महाराज दशरथ ने दे दी है स्वीकृति भी!
कल प्रात: पहुँचेंगे भरत, शत्रुघन भी वहाँ पर, और विवाह-बन्धन में बँधेंगे पूर्व में ही उपस्थित लक्ष्मण-संग वैदिक रीति-नीति के अनुसार ही।
चारों भाइयों का कन्यादान होगा शुभमुहूर्त के अनुसार कल ही।
मुझे लगा जैसे विधि ने मेरी आकांक्षा का समादर किया!
और इस तरह मैंने- अपनी योजना का चरण पार किया पहला!
अन्तिम और निर्णायक चरण दूर न था बहुत।
समय अधिक नहीं हुआ था व्यतीत।
एक दिन सन्देश मिला मुझे अपने मैके कैकय से कि भरत को देखने को आँखें तरस रहीं कैकय नरेश मेरे पिताश्री, माताश्री की।
वयोवृद्ध हैं और नहीं रहेंगे वे अधिक दिन।
उनकी इच्छा का पालन होना अनिवार्य था तत्काल।
मेरी अनुमति से भरत गए अपने ननिहाल, स्वाभाविक रूप से सँग में शत्रुघ्न भी।
उसी सायंकाल महर्षि वशिष्ठ से सुना मैंने महाराज दशरथ ने भरे दरबार बीच राम को बनाया युवराज और घोषित कर दिया अपना उत्तरदाधिकारी उन्हें।
''किया जाएगा अगले ही दिन प्रात: राजतिलक उनका धूमधाम से।''
-मंथरा की सूचना स्तब्धकारी थी- मेरे लिए क्षणभर को ही,
क्योंकि ऐसी सूचना की अपेक्षा थी मुझको।
प्रजा की हर्षध्वनियों बीच अपने शयनकक्ष को ही बनाकर ज्यों कोपभवन लेट गई मैं शैय्या पर अस्त-व्यस्त हो।
देती हुई जैसे यह सूचना कि शान्ति जो यह दिखती है वस्तुत: है सूचक उस प्रभंजन की.....
जो अपना शक्तिवान वेग ले आ रहा किसी भी क्षण सारी सृष्टि को जैसे उड़ाकर ले जाने को!
मन्थरा को करना था कार्य सर्वाधिक महत्व का- मेरे कुपित होने की सूचना को महाराज दशरथ तक पहुँचाना।
उसने बुद्धिमत्ता की, सूचित किया सुमंत को!
मन्त्री सुमंत, मिली अनायास- ऐसी अशुभ सूचना से स्तब्ध हो, पहँुचे महाराज के निकट, जो प्रसन्न भाव-
अगले ही दिन प्रात:काल में सुनिश्चित राम को युवराज बनाए जानेवाले महा-उत्सव की तैयारियों में व्यस्त दे रहे निर्देश थे।
महाराज ने देखा सुमंत का मुखमण्डल उल्लसित नहीं, चिन्ता की रेखाएँ उभर रही थीं- ललाट पर उनके ।
भ्रकुटि हुई वक्र सुमंत को देखा- प्रश्रवाचक दृष्टि से उन्होंने-
सुमंत ने कहा मात्र इतना ही-
''मन्थरा ने मुझे बताया है कि महारानी कैकेयी अचानक अस्वस्थ हो अपने शयनकक्ष में...''
महाराज ने चिन्तित हो कहा सुमंत से- ''राजवैद्य को अभी बुलाओ, व्यवस्था जारी रक्खो- कल के उत्सव की, जाता हूँ इसी मध्य रानी कैकेयी को देखने।''
महाराज आए मेरे शयनकक्ष में, मुझे अस्तव्यस्त अवस्था में बालों को बिखराए देखकर मृदुल स्वर में बोले यों'' ''इस उत्सव के क्षण में आपकी अवस्था यह चिन्ताजनक है बड़ी''
''बुलवाया है राजवैद्य को हमने अभी।''
तब मैने कहा ''महाराज! मेरी देह नहीं मन है रुग्ण, जिसकी चिकित्सा है मात्र आपके ही पास।''
''आपने मुझे कैकय के समरांगण में दिये थे जो वचन उन्हें भूल गए; किन्तु मैं न कभी भूल सकी उन्हें।''
''जब तक वे वचन नहीं होंगे पूर्ण मेरा मन रुग्ण ही रहेगा।'' महाराज ने स्मिति बिखेरी अधरों पर- ''यह तो है छोटी-सी बात रानी कैकेयी! शुभ अवसर यह पूर्ण करेगा तुम्हारी सारी मनोकामनाएं।''
''मांग लो तुम कुछ भी आज, मेरा मन इतना है उत्फुल्ल आज पूर्ण करूँगा मैं उन्हें इसी क्षण।''
शैय्या पर उठकर बैठ गई मैं, और कहा 'महाराज! ,एक बार और चिन्तन कर लें आप; कहीं ऐसा न हो कि मेरी इच्छाओं को जानकर उनकी पूर्ति करने से कर दें इनकार आप।''
महाराज दशरथ का क्षुब्ध स्वर सुना मैने मन ही मन मुदित हो:
''रानी कैकेयी! नहीं शोभती तुम्हारे मुख से यह वाणी, तुम्हें ज्ञात है सूर्यवंशियों की आन-बान और शान;''
''प्राणों को देकर भी पूर्ण करते है अपना वचन वे, मांग लो तुम नि:संकोच- जो भी चाहती मुझसे। ''
यही, हाँ, यही था चिर प्रतीक्षित वह क्षण जिसकी उपस्थिति की कामना करती थी मैं वर्षो से, रानी के रूप में अयोध्या में रखते हुए पहला पग!
अन्ततोगत्वा आ ही चुका था वह- करने के लिए मुझे उपकृत, और- सिद्ध होनेवाला था निर्णायक सूर्यवंशियों के महाकाल के इतिहास में! मेरी नियति भी जिससे जुड़ी अविच्छिन्न रूप।
मैंने कहा- ''सुनिए महाराज! ध्यान से मेरी बात- जो मैं कहती अब आपसे।''
''बाल्यकाल से ही मैं मुखर थी, चपल भी; और पिता अश्वपति की थी परम लाडली।''
''मेरी कोई आकांक्षा कभी अपूर्ण नहीं रही पिता के सामथ्र्य में ''
''अपनी सखियों को जब एक-एक कर मैं सुन्दर राजकुमार की दूल्हरन बनते देखती तो- कामना यह करती थी कि एक दिन आएगा जब इस कैकय राज्य की सर्वाधिक सुन्दर लावण्यमयी कन्या- राजकुमारी मैं- वरण करूँगी किसी सुन्दर, श्रेष्ठ युवा राजकुमार का।''
''इसी बीच शक्तिशाली रिपुओं के सतत आक्रमणों से पिताश्री अशक्त हुए, चिन्तित मैं उन्हें देखती प्रतिदिन।''
''वही था समय जबकि सुनी आपने मेरे रूप की प्रशंसा चारों ओर, और प्रस्तावित किया मुझे अयोध्या की महारानी बनाकर ले जाने का।''
''पिता शयद नहीं चाहते थे यह।'' ''मेरी आपकी आयु का अन्तर था बड़ा।''
''जैसे एक पिता और पुत्री के बीच होता है आयु का अन्तर।''
''पर वे लाचार, जर्जर हो चुके थे पूर्णत: आये दिन शत्ऱुओं के धावों से।''
''उन्हें यह प्रतीत हुआ-
''शक्तिशाली अयोध्या नरेश के श्वसुर का पद उनके सम्मुख मुँह बाये खड़ा था,''
''और देखकर उनका असमंजसयुक्त भाव मैंने ही आगे बढ़ कहा था पिता से कि- 'चिन्ता नहीं करें आप,क्योंकि मैं पाणिग्रहण संस्कार करती स्वीकर हूँ महाराज दशरथ की तीसरी रानी बनकर''
''महाराज दशरथ चकित-भ्रमित हो देख रहे थे मुझे; उनकी समझ में आ रहा था नहीं इस उत्सव वेला में कोपभवन में बैठी क्रुद्ध कैकेयी-मैं'' क्यों चर्चा कर रही इन बीती बातों की!''
आतुरता और कातरता के सम्मिश्र भाव उनके मुख पर आते और जाते थे बारंबार।
मैंने कहा-''महाराज! अधिक उद्विग्न नहीं हों; आपकी समझ में शीघ्र आएगा क्यों मैं आज ये सारी बातें आपके समक्ष कर रही?''
''मैं चाहती हूँ आज बताना यह कि स्त्री की भी होती हैं भावनाएँ कुछ, जीवनसाथी उसका सुन्दर हो, युवा हो, पौरुष के तेज से सम्पन्न हो, आदर-सम्मान उसका करता हो नहीं उसको होती चाह महारानी बनने की;''
''किन्तु मेरी भावनाओं पर लगा कुठाराघात- आपने मुझे जब अयोध्या की महारानी बनाने का किया प्रस्ताव मेरे पिता के समक्ष अपने रूपलोभी मन से विवश हो!'
''माध्यम बनाया पिता की शक्तिहीनता को।''
''मैंने उस प्रस्ताव पर जो सहमति दी, वह थी मात्र विवशता पिता की ही; मेरे मन में कोई अनुराग-भाव- लेता था नहीं हिलोरें आपके लिए!''
''सत्य तो यह है कि मेरे मन में उसी क्षण में आपके लिए गहरी घृणा ने लिया था जन्म!''
''और उसे लिए हुए आपकी चहेती, सबसे छोटी, भविष्य की तथाकथित महारानी बन आ गई थी मैं यहाँ अयोध्या के राजमहल के भीतर दो सौतों को हर क्षण अपने सामने देखती हुई छाती पर पत्थर रक्खे हुए।''
''मात्र इसलिए क्योंकि कैकय प्रदेश की सर्वाधिक लाडली अकेली राजकन्या मैं कैकेयी समय के एक-एक पल को जीती थी- आगत की अयोध्या की राजमाता बनकर।''
''और आपने आज मेरे उस सुन्दर स्वप्न को किया चकनाचूर, कल प्रात: राम को युवराज बनाने की उद्घोषणा करते हुए।''
''मैं कैसे कर सकती स्वागत इस क्षण का?
''आपने जो वचन दिया था मेरे पिता और माता को कैसे उसे विस्मृत कर गए आप?''
महाराज दशरथ स्तब्ध थे। कुछ-कुछ आभास उन्हें होने लग गया था अनहोनी का;
मुखमण्डल उनका विवर्ण हो चला।
''क्या चाहती हो तुम?'' महाराज ने पूछा था मुझसे।
स्वर उनका काँपने लगा था।
मेरे भीतर अवस्थित स्त्री मुस्कुराई मन ही मन में मैंने देखा स्त्री वह क्रूर हो चुकी थी।
लोहा गर्म हो चुका पर्याप्त, और उस पर हथौड़े की सघन चोट के लिए चिर प्रतीक्षित पल नृत्य कर रहा था मेरे समक्ष।
मैंने कहा- ''महाराज! आपने जो परिस्थिति खड़ी कर दी है समक्ष मेरे उसमें अब- नहीं शेष रह गया कोई विकल्प।''
''कैकय युद्ध के समय जो दो माँगें मेरी पूर्ण करने का वचन दिया आपने, और जिन्हें मैंने अब तक रक्खा था स्थगित-''
''उन्हें माँगती हूँ इस क्षण में-''
''राम का नहीं कल निर्धारित शुभमूहर्त में भरत का हो राजतिलक घोषित युवराज उन्हें करते हुए,''
और दूसरा यह वर दें कि कल ही- राम चौदह वर्षों की अवधि के लिए वन को प्रस्थान करें।''
''दोनों ही वर चलेंगे साथ-साथ।''
''और आप इन्हें पूर्ण करने की स्थिति में नहीं हों तो जगत को यह बता दें कि रघुवंशियों के वचन की नहीं होती कोई मर्यादा!''
''वचन देकर उसे पूर्ण करना वे कभी जानते नहीं।''
मुझे भलीभाँति ज्ञात था- कितने भयानक थे मुख से निकले शब्द वे,
किन्तु मैं विवश थी।
राम अयोध्या में यदि रहते तो प्रजा में विद्रोह अवश्यम्भावी था जन-जन के प्रिय थे वे इतने ही।
चौदह वर्ष की अवधि पर्याप्त थी- भरत को अपना राजकाज सुस्थापित करने हेतु।
मेरे इन कल्पना से भी परे कठोरतम वचन सुन महाराज दशरथ खो बैठे अपनी सुधि-बुधि और गिरे भूमि पर मूच्र्छित होकर।
यह तो प्रत्याशित था!
मैं थी उस क्षण तत्पर कैसी भी अनहोनी का करने सामना!
स्वयं को तैयार कर लिया मैंने अपने सम्भावित वैधव्य-हेतु!
मेरे भीतर की क्रूर स्त्री ने अयोध्या के चक्रवर्ती वयोवृद्ध महाराज दशरथ की हत्या का सुनियोजित कार्य कर दिया था पूर्ण,
जिन घटनाओं को हम दुर्घटना या कभी-कभी के हादसे मान लेते थे, अब रोज़मर्रा के वाकयात बन गए हैं। अख़बार में, टीवी पर दिन भर हमारे सामने कत्ल, ख़ून के दृश्य होते हैं। यह विचार आता है कि दहशत भरे इस विकृत नज़ारे को किसने सरंजाम दिया? बमकाँड, चोरी-डकैती और हत्या की वारदातों से भी भयानक हैं ये घटित नज़ारे, क्योंकि ये दृश्य हमारी औलादों ने पैदा किए हैं।
औलाद, संतान हमारी आँखों के तारे, जिनको माता-पिता ने अपने ख़ून-पसीने से सींचकर पाल-पोसा है। इन दुलारों में दुर्व्यवहार की भावना आज आम है। बेटे माता-पिता को कहीं नज़रअंदाज़ कर रहे हैं, तो कहीं अपमानित और माँ-बाप बराबर उनमें श्रवण कुमार की छवि देखने को तरस रहे हैं, जबकि अब श्रवण कुमार की भूमिका में बेटियाँ हैं। बेटियाँ बिना संपत्ति में अधिकार लिए भी माता-पिता की हमदर्द हैं, इसकेसबूत अधिकांश परिवारों में मौजूद हैं।
मगर कुछ उदाहरणों ने बेटियों की सद्भावना से जुड़ी छवि को क्षतविक्षत कर डाला। इन दिनों जब मिस मेरठ प्रियंका या दिल्ली की साक्षी द्वारा माँ-बाप या माँ का कत्ल सामने आया, ख़बरों को पढ़ते हए लोगों की आँखों के सामने अँधेरा छा गया।
माँ की सबसे नज़दीकी मानी जाने वाली बेटियाँ क्यों करने लगीं माँ का कत्ल? इस "क्यों" शब्द ने तमाम गुत्थियाँ खोलनी शुरू कर दीं। सबसे पहले तो यही कि; ये लड़कियाँ इतनी छोटी नहीं थीं, जिनको बच्चे कहा जाए। साक्षी 26 साल की है और हम जानते हैं कि 26 साल की लड़की बच्ची नहीं, स्त्री हुआ करती है। अत: मैंने माना कि स्त्री ने स्त्री का कत्ल किया (अगर उसी ने किया है तो)। इस उम्र में माँ-बेटी का रिश्ता कहने भर का होता है, होती तो वे आपस में सखी-सहेली जैसी ही हैं।
लेकिन सखी के पायदान पर खड़े होना माँ के सिंहासन की तौहीन है। इसे मर्यादा से जोड़कर अधिकाँश माएँ मानेंगी। जब तक मर्यादा का पालन यथावत् कराया जाता है, तब तक घर और समाज में सुख-शांति बनी रहती है। मधुर संबंधों के चलते माँ-बेटी अपने सुख-दुख कहा करती हैं। मगर बेटी ने, वह भी कुँआरी 26 साला बेटी ने कहा, मैं भी स्त्री हूँ, मुझे भी साथी की ज़रूरत है, शारीरिक सुख मेरा भी हक़ है। क्या लड़की जैसी आज्ञाकारी मानी जाने वाली बंधुआ के मुँह में आया यह वाक्य़ विद्रोह की घोषणा नहीं है? यहीं से शुरू होती है उसकी अपनी आज़ादी की ख़तरनाक शुरूआत।
इस उम्र में माँ भी क्यों निरंकुश हो जाती हैं। पत्नी के रूप में दबी-कुचली माँ का अमानवीय रूप बेटी पर टूटता है, क्योंकि घर में उसकी ही सबसे कमज़ोर स्थिति होती है। मगर नई बेटियों को वे कड़े नियम मान्य नहीं हैं, और न मनवानेवालों के प्रति सम्मान, क्योंकि इन आत्मनिर्भर लड़कियों का उदय तो पुरानी मान्यताओं को तोड़कर ही हुआ है। अब इनकी निजी इच्छाएँ ही ऐसी सनक हैं, जो कहीं से गुज़र जाने के लिए तैयार हैं। माँ इस बात को कैसे बर्दाश्त करे, जो कल से आज तक सिवाय भजन-कीर्तन के कहीं निकल नहीं पाती थीं। गुस्ताख़ लड़कियाँ या तो मारी जाएँगी या मारने पर उतारू हैं। माँ और बेटी को इस खूनखराबे की स्थिति से बाहर आना ही होगी अपनी-अपनी समझदारियों के साथ। माँ के लिए बेटी के बॉयफ्रेंड की परिभाषा बलात्कारी की नहीं होती, एक दोस्त की भी होती है और बेटी के लिए माँ का चेतावनी देना उसके भविष्य के लिए शुभ संकेत के रूप में है।
हे अग्नि! तुम्हें प्रणाम करते हैं हम। बहुत क्षमता है तुममें बड़ा ताप है - बड़ी जीवंतता।
तुम जल में भी सुलगती हो और वायु में भी, भूगर्भ में भी तुम्हीं विराजमान हो और व्यापती हो आकाश में भी तुम। हमारे अस्तित्व में अवस्थित हो तुम प्राण बनकर।
परमपावनी! तुममें अनंत संभावनाएँ हैं तुम्हीं से पवित्रता है इस जगत में। फूँकती हो तुम सारे कलुष को, शोधती हो फिर-फिर हिरण्यगर्भ ज्ञान की शिखा को। तुम ही तो जगती हो हमारे अग्निहोत्र में और आवाहन करते हैं तुम्हारा ही तो संध्या के दीप की लौ में हम।
जगो, आज फिर, खांडवप्रस्थ फैला है दूर-दूर डँसता है प्रकाश की किरणों को, फैलाता है अँधेरे का जाल उगलता है भ्रम की छायाओं को।
उठो, तुम्हें करना है छायाओं में छिपे सत्य का शोध। तुम चिर शोधक हो, हे अग्नि! तुम्हें प्रणाम करते हैं हम।