बुधवार, 28 अक्टूबर 2009

जाति की जड़ों को काटतीं औरतें

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जाति की जड़ों को काटतीं औरतें
- शिरीष खरे
उस्मानाबाद से, 28-Oct-09


देश में कुल आबादी का एक-चौथाई हिस्सा दलितों और आदिवासियों का है। मगर उनके पास खेतीलायक जमीन का महज 17.9 प्रतिशत हिस्सा है। इसी तरह कुल आबादी में करीब आधी हिस्सेदारी औरतों की है। जो कुल मेहनत में बड़ी हिस्सेदारी निभाती हैं और उन्हें कुल आमदनी का 10 वां हिस्सा मिलता है। ऐसे में दलित और उस पर भी एक औरत होने की स्थिति को आसानी से जाना जा सकता है। मगर मराठवाड़ा की दलित औरतें धीरे-धीरे जाति की जड़ों को काटकर और पथरीली जमीनों से फसल उगाकर अपना दर्जा खुद तय कर रही हैं।


उस्मानाबाद जिले में अनुसूचित जाति की आबादी 15 प्रतिशत से भी ज्यादा हैं। मगर 85 प्रतिशत से भी ज्यादा परिवार अपनी रोजीरोटी के लिए यह या तो सवर्णों के खेतों में काम करते हैं या फिर चीनी कारखानों के वास्ते गन्ने काटने के लिए पलायन करते हैं। स्थायी आजीविका न होने से उनके सामने जीने के कई सवाल खड़े रहते हैं। मराठवाड़ा में ‘कुल कितनी जमीनों में से कितना अन्न उगाया है’ के हिसाब से किसी आदमी की सामाजिक-आर्थिक स्थितियाँ बनती-बिगड़ती हैं। तारामती अपने तजुर्बे से ऐसी बातें अब खूब जानती है।


‘चाईल्ड राईटस एण्ड यू’ और ‘लोकहित सामाजिक विकास संस्था’ ने यहां की जमीनों को आजीविका का स्थायी साधन माना है। यह दोनों संस्थाएं मानती हैं कि वंचित परिवारों को आजीविका का स्थायी साधन दिए बगैर बच्चों के हकों को सुरक्षित नहीं रखा जा सकता है। यहां कई परिवार ऐसे हैं जो गायरन याने अपनी गाय चराने वाली जमीनों पर सालों से जुड़े हैं फिर भी मालिक नहीं कहलाते। इन दोनों संस्थाओं ने उस्मानाबाद जिले के 29 गांवों में जो मुहिम चलाई है उसका नेतृव्य औरतों के हाथों में है। इसके तहत अब 702 परिवारों की औरतें अपनी जमीनों के रास्ते जात-पात से लेकर सभी तरह के भेदभाव तो मिटा रही हैं, साथ ही पंचायत, स्कूल और बाकी जगहों पर भी अपने परिवार की उपस्थिति दर्ज करा रही हैं।



‘‘लड़कियों का बेहिसाब घूमना या किसी गैर से खुलके बतियाना, यह कोई अच्छे रंग-ढंग तो नहीं- बचपन से हमें यही तो सुनाया जाता है।’’ पर तारामती कस्बे अब वैसी नहीं रही, जैसे वह पहले थी। नहीं तो बहुत पहले, किसी अजनबी आदमी को देखा नहीं कि जा छिपती थी रिवाजों की ओट में। इस तरह यहां बाहरी मर्द से बतियाने के सवाल का कोई सवाल ही नहीं उठता था। दलित परिवार की तारामती के सामने ऐसे कई सवाल कभी नहीं उठे थे। उसे तो अपने पति को पिटते हुए देखकर भी चुप रहना था। गाँव के दबंग जात वालों से पूरी मजूरी माँगने की हिम्मत न उसमें थी, न उसके पति में। ऐसा सलूक तो शुरू से ही होता रहा है, सो यह कोई बड़ी बात भी नहीं लगती थी। इसके बावजूद अगर कोई विरोध होता भी था तो मजाल है कि चारदीवारी से बाहर निकल सके। उस पर भी एक औरत की क्या बिसात कि वह ऐसी बातों पर खुसुर-फुसुर भी कर सके ?



‘‘6 साल पहले, यहाँ की औरतों को हमने ऐसी ही हालत में देखा पाया था।’’ ‘लोकहित समाज विकास संस्थान’ के बजरंग टाटे आगे बताते हैं ‘‘काम शुरू करने के बाद, हम हर रोज यहाँ आते-जाते, मगर जो भी बातें निकलकर आतीं वो सिर्फ मर्दों की होतीं। हम औरतों में सोचने की आदत के बारे में भी जानना चाहते थे। तब ‘स्वयं सहायता समूह’ ने औरतों के विचारों को आपस में जोड़ के लिए एक कड़ी का काम किया। इस समूह के जरिए धीरे-धीरे पता चला कि औरतों के भीतर गुस्सा फूट-फूटकर भरा है, वह बहुत कुछ बदल देना चाहती हैं, उन्हें अगर खुलेआम बोलने का मौका भी मिला तो काफी कुछ बदल जाएगा।’’ ग्राम धोकी, जिला उस्मानाबाद से तारामती जैसी दर्जनों औरतें धीरे-धीरे ही सही मगर अपने जैसे सबके भीतर भरे गुस्से से एक होती चली गईं।


 लंबा वक्त गुजरा, एक रोज धोकी की औरतों ने चर्चा में पाया कि जब-तक जमीनों से फसल नहीं लेंगे तब-तक रोज-रोज की मजूरी के भरोसे ही बैठे रहेंगे। अगले रोज सबके भरोसे में उन्होंने अपना-अपना भरोसा जताया और गांव से बाहर बंजर पड़ी अपनी जमीनों पर खेती करने की हिम्मत जुटायी। जैसे कि आशंका थी, गाँव में दबंग जात वालों के अत्याचार बढ़ गए ‘‘उन्होंने सोचा कि जो कल तक हमारे गुलाम थे, वो अगर मालिक बने तो उनके खेत कौन जोतेगा ?’’ हीरा बारेक उन दिनों को याद करती हैं ‘‘पंचायत चलाने वाले ऐसे बड़े लोगों ने मेरे परिवार को खूब धमकियाँ दीं। मगर अब हम अकेले नहीं थे, संगठन के बहुत सारे लोग भी तो हमारे साथ थे। इसलिए सबके साथ मैंने आगे आकर ललकारा कि अगर तुम अपनी ताकत अजमाओगे, मेरे पति को मारोगे, तो हम भी दिखा देंगे कि हम क्या कर सकते हैं ?’’


एक बार दबंग जात वालों ने कुछ दलित औरतों को जमीनों पर काम करते देखा तो उनके पतियों को बुलवाया। गाँव से बंद करने जैसी धमकियां भी दीं। अगली सुबह तारामती और उनकी सहेलियों ने अपने-अपने घरों से निकलते हुए कहा कि ‘मर्द लोगों को डर लगता है तो रहो इधर ही, हम तो काम पर जाते हैं।’ थोड़ी देर बाद, बहुत सारे दलित मर्द जमीनों पर आए। कुल जमा 50 जनों ने वहीं बैठकर फैसला लिया कि वो ‘ गाँव में भी समूह बनाकर रहेंगे और खेतों में भी ’। और इसी के बाद ‘स्वयं सहायता समूह’ की बैठक में औरतों के साथ पहली बार मर्द भी बैठे। इसके पहले तक तो औरतों का समूह अपनी रोजमर्रा की बातों पर ही बतियाता था। मगर अबकि यह समूह गाँव के नल से पानी भरने जैसी बातों पर भी गंभीर हो गया। यहाँ की औरतों ने पानी में अपनी हिस्सेदारी के लिए लड़ने का मन बना लिया। खुद को ऊँची जात का कहने वालों ने सार्वजनिक उपयोगों की जिन बातों पर रोक लगाई थी, वो एक-एक करके टूटने लगी थीं।


यह सच था कि तारामती के समूह से जुड़ी औरतों के मुकाबले दूसरी जात की औरतों में भिन्नताएँ साफ-साफ दिखती थीं। फिर भी एक बात सारी औरतों को एक साथ जोड़ती थी कि पंरपराओं के लिहाज से सबको मानमर्यादा का ख्याल रखना ही हैं। ऐसे में तारामती और उसके समूह के गाँव से बाहर आने-जाने, बार-बार संगठन के दूसरे साथियों से मिलने-जुलने के ऐसे मतलब निकाले गए जो उनके चरित्र पर हमला करते थे। तारामती नहीं रूकी, वह तो एक कदम आगे जाकर उप-सरपंच का चुनाव भी लड़ी। यह अलग बात है कि वह चुनाव हारी। मगर जहाँ किसी दलित के चुनाव लड़ने को सामान्य खबर न माना जाए, वहाँ एक दलित औरत के मैदान में कूदने की चर्चा तो गर्म होनी ही थी। तारामती, हीरा बारेक, संगीता कस्बे को तो और आगे जाना था, इसलिए यहाँ पहली बार मर्दो के बराबर मजूरी की माँग उठी। इसके पहले इन्हें रोजाना 40 रूपए मजूरी मिलती थी, जो मर्दो के मुकाबले आधी थी। विरोध के बाद उन्हें रोजाना 65 रूपए मजूरी मिलने लगी, जो मर्दो से थोड़ी ही कम थी।


तारामती के समूह की औरतें पंचायत में जगह से लेकर जायज मजूरी पाने की जद्दोजहद इसलिए कर सकी, क्योंकि आजीविका के लिहाज से उन्हें अपने खेतों से फसल मिलने लगी थी। संगीता कस्बे बताती हैं ‘‘इससे पहले, वो (सवर्ण) हमें नाम की बजाय जात से बुलाते थे। जात न हो जैसे गाली हो। ‘क्या रे ऐ मान’, ‘क्यों रे महार’- ऐसे बोलते थे। अब वो ईज्जत से बुलाते हैं, बतियाते हैं। ‘आज तुम काम पर आ सकते हो या नहीं ?’- पूछते हैं। सबसे बढ़कर तो यह हुआ कि पंचायत से हमारे काम होने लगे। हम जानने लगे कि सही क्या है, हक क्या हैं। हर चीज केवल उनके हिसाब से तो नहीं चल सकती है ना।’’ हम जब तारामती के समूह से बतिया रहे थे तो दूर के डोराला  गाँव से कुछ औरतें भी पहुँचीं। वे भी अपने यहाँ  ‘स्वयं सहायता समूह’ बनाना चाहती थीं। उसी समय जाना कि औरतों का समूह जरूरत पड़े तो मर्दो को भी कर्ज देता है। इस समूह में बच्चों की पढ़ाई और किसी अनहोनी से निपटने को वरीयता दी जाती है। पांडुरंग निवरूति ने बताया कि ‘‘आसपास ऐसे 16 महिला घट बनाये गए हैं। हर घट में कम से कम 10 औरतें तो रहती ही हैं।’’


तारामती कहती हैं ‘अगर हम ऐसे ही बैठे रहते तो जो थोड़ा बहुत पाया है, वो भी हाथ नहीं लगता। ऐसा भी नहीं है कि हमारी हालत बहुत सुधर गई है, अभी भी काफी कुछ करना है।’’ यह सच है कि यहाँ काफी कुछ नहीं बदला है फिर भी कम से कम इन औरतों की दुनिया बेबसी के परंपरागत चंगुलों और उनके बीच उलझी निर्भरताओं से किनारा पा चुकी है। यह अब अपने बच्चें को स्कूल भेजकर बेहतर सपना देख सकती है। माया शिंदे की यह कविता यहाँ  की जिंदगियों में आ रहे बदलावों को बयान करने के लिए काफी है :


‘‘मुझे अपना हक पता है
फिर कैसे किसी को अपना कुछ भी यूँ ही निगलने दूँ
हो जाल कितना भी घना
कितना भी शातिर हो बहेलिया। अंत तक लड़ता है चूहा भी
उड़ना नहीं भूलती है कोई चिड़िया कभी।’’



(शिरीष खरे ‘चाईल्ड राईटस एण्ड यू’ के ‘संचार-विभाग’ से जुड़े हैं।)
संपर्क:shirish2410@gmail.com ब्लॉग: crykedost.blogspot..com   

मंगलवार, 20 अक्टूबर 2009

मुझे मेरा पीहर लौटा दो

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एकालाप

मणिपुरी स्त्री का पर्वगीत


मुझे मेरा पीहर लौटा दो



कब से देख रही हूँ रास्ता
माँ के घर से बुलावा आएगा
मैं पीहर जाऊँगी
सबसे मिलूँगी
बचपन से अपनी पसंद के पकवान
जी भर खाऊँगी
निंगोल चाक्कौबा पर्व मनाऊँगी


बरस भर से देख रही हूँ रास्ता


याद आता है बचपन
बड़ी बहन इसी दिन हर बरस आती थी
दूर पहाडी पर बसे खिलखिलाते गाँव से
घाटी के घर में,
भाभी इसी दिन हर बरस जाती थी
पर्वत शिखर से बतियाते अपने पीहर
ससुराल की घाटी से


कितनी बार कहा इमा से
कितनी बार कहा इपा से
कितनी बार कहा तामो से


मैं इतनी दूर नहीं जाऊँगी
इतनी दूर ब्याही गई तो जी नहीं पाऊँगी


पर ब्याही गई इतनी ही दूर
काले कोसों
कहाँ घाटी में माँ का घर
कहाँ नौ पहाड़ियों के पार मेरी ससुराल


सबने यही कहा था
निंगोल चाक्कौबा पर तो हर बरस आओगी ही
[इस दिन मिट जाती हैं सब दूरियाँ
घाटी और पहाड़ी की]
सारी सुहागिनें इस दिन
न्यौती जाती हैं माँ के घर


प्रेम से भोजन कराएगी माँ अपने हाथ से
उपहार देगा भाई


हमारे मणिपुर में इसी तरह तो मनाते थे
निंगोल चाक्कौबा पिछले बरस तक
विवाहित लड़कियों [निंगोल] को घर बुलाते थे
भोजन कराते थे [चाक्कौबा]


घाटी और पहाड़ी का प्यार
इस तरह
बढ़ता जाता था हर बरस
सारा समाज मनाता था मणिपुरी बहनापे का पर्व


पर इस बार
कोई बुलावा नहीं आया
कोई न्यौता नहीं आया


भाई भूल गया क्या?
माँ तू कैसे भूल गई
दूर पहाड़ी पार ब्याही बेटी को?
मैं तड़प रही हूँ यहाँ
तुम वहाँ नहीं तड़प रहीं क्या?


माँ बेटी के बीच में
भाई बहन के बीच में
पर्वत घाटी के बीच में
यह राजनीति कहाँ से आ गई अभागी???


क्यों अलगाते हो
पर्वत को घाटी से
भाई को बहन से
माँ को बेटी से ???


मुझे मेरा पीहर लौटा दो
मेरी माँ मुझे लौटा दो
मेरा निंगोल चाक्कौबा लौटा दो !!!


कब से देख रही हूँ रास्ता ........


- ऋषभ देव शर्मा








[दीपावली की शुभ कामनाएँ देने के लिए प्रो. देवराज को इम्फाल फोन किया तो वे उत्साहहीन से लगे, पूछने पर पहले तो टालते रहे , बाद में बताया कि इस बार वहाँ भैया दूज जैसा परन्तु सामाजिक धार्मिक एकता का पर्व निंगोल चाकऔबा सार्वजनिक रूप से नहीं मनाया जा रहा है . देर तक बातें हुईं . फोन कट भी गया... पर एकालाप चलता रहा.  > ऋ.]

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गुरुवार, 1 अक्टूबर 2009

यो मे प्रतिबलो लोके

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एकालाप


यो मे प्रतिबलो लोके*


तुम तो त्रिलोक के स्वामी हो.
तुमने देवों को जीता है.
सब रत्न तुम्हारे चरणों में.
सब पर अधिकार तुम्हारा है.
तुमने ऐरावत छीन लिया
बिगडे घोड़ों को साधा है.
धरती पर्वत आकाश वायु
पाताल सिंधु को बाँधा है.



तुमने मुझको भी रत्न कहा .
चाहा किरीट में जड़ लोगे.
जीवित ज्वाला की लहरों को
अपनी मुट्ठी में कर लोगे.



मुझको यह प्रभुता रास नहीं.
मैं रत्न नहीं! मैं दास नहीं!



तेरा स्वभाव तो प्रभुता का .
'ना' सुनने का अभ्यास नहीं.



तेरी लोलुपता आहत हो
मेरे केशों की ओर बढ़ी.
तू मुझे धरा पर खींचेगा,
मेरी मर्यादा नोंचेगा;
था ज्ञात मुझे तू इसी तरह
वश में करने की सोचेगा.



पर मेरे केश नहीं आते
तेरे जैसों की मुट्ठी में.
मैं तिरस्कार का कालकूट
पी चुकी प्रथम ही घुट्टी में.
मैं कोमल मधुमय दीपशिखा
आशीष बरसने वाली हूँ.
अपनी करुणा की किरणों से
रसधार सरसने वाली हूँ.
पर मैं ही ज्वालामुखी शिखर.
मैं ही श्मसान का आर्तनाद.
प्राणों में झंझावात लिए
मैं प्रलय निशा का शंखनाद.
तू मुझको जान नहीं पाया.
कोई न अभी तक भी जाना.
मैं वस्तु नहीं, जीवित प्राणी.
पर तूने मुझे भोग्य माना.



बस इसीलिए तो मुझको यह
संग्राम जीतना ही होगा.
जो सचमुच मेरा प्रतिबल हो
वह प्रणय खोजना ही होगा!


 ऋषभदेव शर्मा 


 
* 
यो मां जयति संग्रामे
यो मे दर्पं व्यपोहति.
यो मे प्रतिबलो लोके
स मे भर्ता भविष्यति..
- श्रीदुर्गा सप्तशती, अध्याय ५, श्लोक १२०.

[शुम्भ के विवाह-प्रस्ताव पर देवी का उत्तर]. 
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