एकालाप
यो मे प्रतिबलो लोके*
तुम तो त्रिलोक के स्वामी हो.
तुमने देवों को जीता है.
सब रत्न तुम्हारे चरणों में.
सब पर अधिकार तुम्हारा है.
तुमने ऐरावत छीन लिया
बिगडे घोड़ों को साधा है.
धरती पर्वत आकाश वायु
पाताल सिंधु को बाँधा है.
तुमने मुझको भी रत्न कहा .
चाहा किरीट में जड़ लोगे.
जीवित ज्वाला की लहरों को
अपनी मुट्ठी में कर लोगे.
मुझको यह प्रभुता रास नहीं.
मैं रत्न नहीं! मैं दास नहीं!
तेरा स्वभाव तो प्रभुता का .
'ना' सुनने का अभ्यास नहीं.
तेरी लोलुपता आहत हो
मेरे केशों की ओर बढ़ी.
तू मुझे धरा पर खींचेगा,
मेरी मर्यादा नोंचेगा;
था ज्ञात मुझे तू इसी तरह
वश में करने की सोचेगा.
पर मेरे केश नहीं आते
तेरे जैसों की मुट्ठी में.
मैं तिरस्कार का कालकूट
पी चुकी प्रथम ही घुट्टी में.
मैं कोमल मधुमय दीपशिखा
आशीष बरसने वाली हूँ.
अपनी करुणा की किरणों से
रसधार सरसने वाली हूँ.
पर मैं ही ज्वालामुखी शिखर.
मैं ही श्मसान का आर्तनाद.
प्राणों में झंझावात लिए
मैं प्रलय निशा का शंखनाद.
तू मुझको जान नहीं पाया.
कोई न अभी तक भी जाना.
मैं वस्तु नहीं, जीवित प्राणी.
पर तूने मुझे भोग्य माना.
बस इसीलिए तो मुझको यह
संग्राम जीतना ही होगा.
जो सचमुच मेरा प्रतिबल हो
वह प्रणय खोजना ही होगा!
ऋषभदेव शर्मा
*
यो मां जयति संग्रामे
यो मे दर्पं व्यपोहति.
यो मे प्रतिबलो लोके
स मे भर्ता भविष्यति..
- श्रीदुर्गा सप्तशती, अध्याय ५, श्लोक १२०.
यो मां जयति संग्रामे
यो मे दर्पं व्यपोहति.
यो मे प्रतिबलो लोके
स मे भर्ता भविष्यति..
- श्रीदुर्गा सप्तशती, अध्याय ५, श्लोक १२०.
[शुम्भ के विवाह-प्रस्ताव पर देवी का उत्तर].
पर मेरे केश नहीं आते तेरे जैसों की मुट्ठी में
जवाब देंहटाएंमैं तिरस्कार का काल घूंट पी चुकी प्रथम ही घुट्टी में ..!!
स्तब्ध करते विचार और अदम्य सहस की पराकाष्ठा समाहित है इस कविता में
बहुत आभार इस अतुलनीय प्रस्तुति के लिए ..!!