मंगलवार, 17 नवंबर 2009

पुरुष विमर्श - २

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26/05 /2008 से प्रारम्भ हुए पाक्षिक `एकालाप '  स्तम्भ के २००९ - नवम्बर ( प्रथम ) अंक  में पुरुष-विमर्श शीर्षक से प्रकाशित कविता के क्रम में इस बार प्रस्तुत है उसका दूसरा भाग   -



पुरुष विमर्श - २ 
ऋषभदेव शर्मा 


ओ पिता! तुम्हारा धन्यवाद 
सपनों पर पहरे बिठलाए |
भाई! तेरा भी धन्यवाद 
तुम दूध छीन कर इठलाए ||
           संदेहों की शरशय्या दी 
           पतिदेव! आपका धन्यवाद ;
बेटे! तुमको भी धन्यवाद 
आरोप-दोष चुन-चुन लाए ||



मैं आज शिखर पर खड़ी हुई
इसका सब श्रेय तुम्हारा है!
तुमसब के कद से बड़ी हुई
इसका सब श्रेय तुम्हारा है!
           कलकल छलछल बहती सरिता 
           जम गई अहल्या-शिला हुई;
मन की कोमलता कड़ी हुई 
इसका सब श्रेय तुम्हारा है!




शुक्रवार, 13 नवंबर 2009

औरतों के नाम

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औरतों  के  नाम 
कविता वाचक्नवी




 कभी पूरी नींद तक भी                                                       
न सोने वाली औरतो !
मेरे पास आओ,

दर्पण है मेरे पास
जो दिखाता है
कि अक्सर
फिर भी
औरतों की आँखें
खूबसूरत होती क्यों हैं,
चीखों-चिल्लाहटों भरे
बंद मुँह भी
कैसे मुसका लेते हैं इतना,


और आप!
जरा गौर से देखिए
सुराहीदार गर्दन के
पारदर्शी चमड़े के नीचे
लाल से नीले
और नीले से हरे
उँगलियों के निशान
चुन्नियों में लिपटे
बुर्कों से ढँके
आँचलों में सिमटे
नंगई सँवारते हैं।





टूटे पुलों के छोरों पर
तूफान पार करने की
उम्मीद लगाई औरतो !
जमीन धसक रही है
पहाड़ दरक गए हैं
बह गई हैं - चौकियाँ
शाखें लगातार काँपती गिर रही हैं
जंगल
दल-दल बन गए हैं
पानी लगातार तुम्हारे डूबने की
साजिशों में लगा है,


अंधेरे ने छीन ली है भले
आँखों  की देख,


पर मेरे पास
अभी भी बचा है
एक दर्पण
चमकीला।


 अपनी पुस्तक " मैं चल तो दूँ " (२००५ ) / सुमन प्रकाशन / से उद्धृत

बुधवार, 4 नवंबर 2009

ये दो भारतों के बीच के तीसरे भारत की लड़कियाँ

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वह कहीं भी हो सकती है!





यह कहानी शुरू होती है
गुज़री सदी के आखि़री हिस्से से
जब निराला की प्रिया
किसी अतीत की वासिनी हो गई थी
और प्रसाद की नायिकाएँ
अपनी उदात्तता, भव्यता, करुणा और विडंबना में
किसी सुदूर विगत और
किसी बहुत दूर के भविष्य का स्वप्न बन गई थीं



अब यहाँ थी
एक लड़की जिसके बारे में लिखा था रघुवीर सहाय ने
जीन्स पहनकर भी वह अपने ही वर्ग का लड़का बनेगी
या वह स्त्री जो अपनी गोद के बच्चे को संभालती
दिल्ली की बस में चढ़ने का संघर्ष कर रही थी
और सहाय जी के मन में
दूर तक कुछ घिसटता जाता था
वहाँ स्त्रियाँ थीं, जिनको किसी ने कभी
प्रेम में सहलाया न था
जिनके चेहरों में समाज की असली शक्ल दिखती थी...
उदास, धूसर कमरों में
अपने करुण वर्तमान में जीती
उत्तर भारत के निम्न मध्यवर्ग की वे स्त्रियाँ
कभी हमारी बहनें बन जातीं, कभी माँएँ
कभी पड़ोस की जवान होती किशोरी
कभी कस्बे की वह लड़की
जो अपनी उम्र की तमाम लड़कियों से
कुछ अलग नज़र आती
इतनी अलग कि
किताबों में पढ़ी नायिकाओं की तरह
उसके साथ मनोजगत में ही कोई
भव्य, उदात्त, कोमल, पवित्र प्रेम घटित हो जाता...



फिर वह सदी भी गुज़र गई
निराला और प्रसाद तो दूर
लोग रघुवीर सहाय को भी भूल गए
और उन लड़कियों को भी जो
अभी-अभी गली-मुहल्ले के मकानों से कविता में आई थीं
फिर वे लड़कियाँ भी खुद को भूल गईं
और जैसे-तैसे चली आईं
महानगरों में....



एक संसार बदल रहा था
इस नई बनती दुनिया में लड़कियों के हाथों में मोबाइल फोन थे
बहुराष्ट्रीय पूँजी की कृपा से ही क्यों न हो
आँखों में कुछ सपने भी थे
ये दो भारतों के बीच के तीसरे भारत की लड़कियाँ
इस दुनिया को बेहतर जानती थीं


साहित्य-संस्कृति, कविता, विश्व-सिनेमा
फिर मॉल और मल्टीप्लैक्स की यह दुनिया
गद्गद् भावुकता और आत्मविभोर बौद्धिकता
और हिंदी की इस पिछड़ी पट्टी से आए
स्त्री-विमर्श-रत खाए-अघाए कुछ कलावंत, कवि, साहित्यकार...


दो भारतों के बीच के इस तीसरे भारत की
इन लड़कियों के अलावा एक और दुनिया थी लड़कियों की
जो आलोकधन्वा की भागी हुई लड़कियों की तरह
न तो साम्राज्यवादी अर्थ-व्यवस्था की सुविधा से
अपने सामंती घरों से भाग पाईं
न ही टैंक जैसे बंद और मजबूत घरों के बाहर बहुत बदल पाईं
कवि का यूटोपिया पराजित हुआ.


यह तीन भारतों का संघर्ष है
स्त्रियाँ ही कैसे बचतीं इससे
वे तसलीमा का नाम लें या सिमोन द बोउवा का
उनकी आकांक्षाएँ, उनके स्वप्न, उनका जीवन
उन्हें किसी ओर तो ले ही जाएगा
ठीक वैसे ही जैसे
मार्क्सवाद, क्रांति, परिवर्तन का रूपक रचते-रचते
पुरुषों का यह बौद्धिक समाज
व्यवस्था से संतुलन और तालमेल बिठा कर
बड़े कौशल से
अपनी मध्यवर्गीय क्षुद्रताओं का जीवन जीता है....


बेशक ये तफ़़सीलें हमारे समय की हैं
समय हमेशा ही कवियों के स्वप्न लोक को परास्त कर देता है
पर यदि हम अपने ही समय को निकष न मानें तो
कवियों के पराजित स्वप्न भी
अपनी राख से उठते हैं
और पंख फड़फड़ाते हुए
दूर के आसमानों की ओर निकल जाते हैं
फिर लौटने के लिए...


हो सकता है वनलता सेन अब भी नाटौर में हो....
या चेतना पारीक किसी ट्रॉम से चढ़ती-उतरती दिख जाए....
या फिर वह झारखंड से विदर्भ तक कहीं भी हो सकती है
कोई स्वप्न तलाशती
और खुद किसी का स्वप्न बनी!


01 नवंबर, 2009



आलोक श्रीवास्तव,
ए-4, ईडन रोज, वृंदावन काम्पलेक्स,
एवरशाइन सिटी, वसई रोड, पूर्व,
पिन- 401 208 (जिला-ठाणे, वाया-मुंबई)

मंगलवार, 3 नवंबर 2009

पुरुष विमर्श

2 टिप्पणियाँ
एकालाप 

 पुरुष विमर्श


ओ पिता! तुम्हारा धन्यवाद
नन्हें हाथों में कलम धरी.
भाई! तेरा भी धन्यवाद
आगे आगे हर बाट करी.
तुम साथ रहे हर संगर में
मेरे प्रिय! तेरा धन्यवाद;
बेटे! तेरा अति धन्यवाद
हर शाम दिवस की थकन हरी.



शिव बिना शक्ति कब पूरी है
शिव का भी शक्ति सहारा है.
मेरे भीतर की अमर आग
को तुमने नित्य सँवारा है.
अनजान सफ़र पर निकली थी
विश्वास तुम्हीं से था पाया;
मैं आज शिखर पर खड़ी हुई
इसका कुछ श्रेय तुम्हारा है.

- ऋषभदेव शर्मा


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