सोमवार, 27 जून 2011

पाँच बेटियाँ देवा रे ! : कौशल्या बैसंत्री

आत्मकथा अंश




मेरे माँ, बाबा (पिता) नागपुर की एम्प्रेस मिल में काम करते थे । माँ धागा बनाने वाले विभाग में थीं और पिताजी मशीनों में तेल डालने का काम करते थे । रविवार मिल से छुट्‌टी होती थी । पर घर के कामों से न तो माँ को फुरसत थी और न बाबा को । 

माँ ने चिकनी मिट्‌टी से हम पाँचों  बहनों के बाल धो दिए ।

चिकनी मिट्‌टी गाँव की औरतें बेचने आती थीं ।  ये औरतें जंगली खजूर, बेर, मिश्रित साग भी लाती थीं । हम इन चीजों को चावल की खुद्‌दी देकर खरीदते थे । वह औरतें भी पैसे के बदले खुद्‌दी लेना ही पसंद करती थीं ।

माँ हमेशा बाल धोते वक्त बड़बड़ाती  रहती थीं  '' देवा, मैंने ऐसा कौन-सा पाप किया था कि मेरे नसीब में  लडकियाँ ही लिखी हैं ?  

** माँ ने लगातार पाँच बेटियों को जन्म दिया ।

बहुत सवेरे ही माँ ने लकड़ियाँ जलाकर चूल्हे पर नहाने के लिए पानी चढ़ाया और एक के बाद एक हम सबके बाल धोने बैठीं । छोटी बेटी के बाल घने और लंबे थे जो मुश्किल से सुलझ रहे थे । माँ खीजते  खीजते बाल सुलझा रही थीं और साथ में जूंओं को भी निकालकर मार रही थीं । काम खत्म करने के बाद माँ ने सबको रात की बची हुई दाल के साथ एक-एक रोटी खाने को दी । रोटी का नाश्ता सिर्फ रविवार को ही मिलता था, क्योंकि उस दिन बहुत सारा काम करने को होता था और खाना देर से बनता था ।


उस दिन हफ्ते-भर के लिए चावल बीनने का काम था। माँ ने ढेर सारे चावल फटककर उसकी खुद्‌दी अलगकर दी और हम सब बहनों को चावल बीनने के लिए बैठा दिया । किसी ने थाली, किसी ने परात, किसी ने पतीले के ढक्कन में चावल बीनना शुरू किया । मां ने तब तक झाडू से घर की छत के जाले साफ किए । पूरे घर और आँगन को खूब चमकाया । तब तक पूरे चावल बिन कर साफ हो गए थे ।



शनिवार को हमारा स्कूल सवेरे साढ़े सात बजे शुरू होता था और साढ़े दस बजे छुट्‌टी हो जाती थी । उस दिन घर आकर खाना खाने के बाद , हम सब बहनें मिलकर घर की आधी दीवार सफेद मिट्‌टी से और नीचे की जमीन को गोबर से लीपते थे । सफेद मिट्‌टी भी गाँव के लोग बैलगाड़ी पर लादकर बेचने आते थे । माँ एक महीने-भर के लिए यह मिट्‌टी खरीदकर रख लेती थीं । इस सफेद मिट्‌टी को हम एक दिन पहले ही भिगोकर रख देते थे ताकि अच्छा घोल बने। एक बहन घोल में कपड़ा भिगोकर दीवार लीपती थी, और दूसरी बहन गोबर से नीचे की जमीन । माँ ने हमें लीपना सिखाया था । स्कूल के कपडे और कुछ पहनने वाले कपड़े भी हम उस दिन धोकर सुखाने के बाद तकिये के नीचे तह करके रख देते थे ताकि इस्तरी किए लगें । यह काम शनिवार को करने से रविवार का आधा काम निपट जाता था ।


माँ, घर की बिछाने  ओढने वाली गोदडियाँ  कुएँ पर ले गई । मैं छोटी बाल्टी को रस्सी बाँध कर कुएँ में डालकर पानी खींचती और माँ और बड़ी बहन मिलकर उस पानी से कपड़े धोतीं । सबसे छोटी बहन दौड-दौड कर उन कपड़ों को घर ले जाती और घर में जो बहनें थीं वह घर के बाहर बाँस पर बंधी रस्सी पर और खाट बिछाकर, उन पर कपड़े सूखने को डालती थी । सबका काम बँटा था । घर की यह सुविधाजनक व्यवस्था थी ।


बाबा ने तब तक चूल्हे के लिए लकड़ियाँ कुल्हाड़ी से काटकर एक ओर रख दी थीं । गाँव के लोग जंगल से बड़े  बड़े पेड़ों की  लकड़ियाँ काटकर बैलगाड़ी पर बस्ती में बेचने लाते थे । वे थोड़ी थोड़ी लकड़ियाँ नहीं बेचते थे, पूरी बैलगाड़ी पर बस्ती में बेचने लाते थे और उसका मोल  भाव करना पड़ता था । बाबा इन लकड़ियों को खरीदकर घर की दीवार से सटा देते और छुट्‌टी के दिन या मिल से आने के बाद थोड़ी थोड़ी  चीरकर रख देते थे । आज बाबा ने जो लकड़ियाँ काटीं , उनको माँ एक खाली खोखे पर खड़ी होकर मचान पर रख रही थीं । वह इन्हें लाइन से व्यवस्थित रखती जाती थीं और हम सब बहनें उनको लकड़ियाँ लाकर दे रही थीं । बरसात-भर के लिए पिताजी ढेर सारी लकड़ियाँ खरीदकर और काटकर मचान पर रख देते थे ताकि पानी में न भीगें और खाना बनाने में परेशानी न हो ।


माँऔर बाबा बहुत थक गए थे । हम सबने स्नान कर लिया था। अब माँ और बाबा ने गरम  गरम पानी से स्नान किया ताकि उनकी थकावट दूर हो जाए। बड़ी बहन ने भात और रोटियाँ  पकाईं। पिताजी ने सबेरे ही मांस खरीद कर रखा था । ज्यादातर हम लोग गाय का मांस खाते थे । यह मांस सस्ता होता था । हमारी बस्ती से थोड़ी  ही दूरी पर गड्‌डीगोदाम नामक जगह पर यह कसाईखाना था । मुस्लिम कसाई यह मांस बेचते थे । कसाईखाने की खिड़कियाँ  और दरवाजे जालीदार थे । डॉक्टर आकर गायों की जाँच करके काटने की अनुमति देता था । अंग्रेज, ऐंग्लो इंडियन, ईसाइयों के नौकर यहाँ आकर मांस खरीदते थे । गड्‌डीगोदाम में छोटी-सी एक मार्केट थी । काम -भर की जरूरत की चीजें वहाँ मिल जाती थीं । वहाँ हिंदू खटिक बकरियों का मांस बेचते थे । हमारी बस्ती के लोग मांस खरीदकर किसी कपड़े में बाँधकर लाते थे ।


कपड़े में से सारे रास्ते-भर खून टपकता रहता था जो देखने में बहुत भद्‌दा लगता था । माँ को यह देखकर बहुत बुरा लगता था । वह जिसको भी कपड़े में मांस बाँधकर लाते देखतीं, उसे टोक देती थीं । उन्हें समझाती थीं कि किसी डिब्बे या बर्तन में मांस ढककर लाया करो। लोग देखेंगे तो कहेंगे कि हम गंदे लोग हैं ।



बस्ती के लोगों को माँ की बात अच्छी लगी और उन्होंने इस बात पर अमल किया, तब माँ को बहुत खुशी हुई ।


छोटी बहन ने मसाला पीसने के पत्थर पर खूब बारीक मसाला पीसा । हम मांस में ज्यादा मिर्च डालकर पकाते थे । माँ ने मसाला भूनकर मांस को चूल्हे पर चढ़ाया और माँस पकने तक बाबा और माँ और कुछ छोटे  मोटे काम में लग गए । दोनों को खाली बैठना अच्छा नहीं लगता था । बाबा कभी ढीली हो गई खाट को कसते, यहाँ  वहाँ कील ठोंकते । माँ भी फटे  पुराने कपड़े सीने बैठ जातीं, कभी गोदड़ी सीने लगतीं । दोनों जी तोड़  मेहनत करते थे ।


माँ ने हम सबको बालों में तेल लगाने को बुलाया और एक  एक बहन को सामने बिठाकर और तेल लगाकर कंघी करने लगीं । कंघी करते वक्त माँ की आंखों से आँसू बहने लगे थे । माँ के आँसू देखकर हमारी भी आँखें  भर आईं । बड़ी बहन माँ के आँसू पोंछ रही थीं । हम सब माँ के पीछे पड़  गईं कि वह क्यों रो रही हैं । थोड़ी शांत होकर माँ ने कहा कि उनको अपनी माँ की याद आ गई । माँ अक्सर अपनी माँ की याद करके रोती थीं । हम सबने माँ से बहुत आग्रह किया कि वह अपनी माँ के बारे मे बताएँ । सिर्फ बड़ी बहन ने ही आजी को देखा था । मैं दस महीने की थी तभी आजी का देहांत हो गया था ।


माँ बताने लगीं कि आजी बहुत खूबसूरत थीं । आजी का रंग एकदम गोरा था और नैन  नक्श तीखे थे । आँखें भूरी थीं और काले बने बाल । आजी छह भाइयों की इकलौती बहन थीं और सबसे छोटी । आजी वाकई बहुत सुंदर होंगी । जब मैं बड़ी हो गई तब आजी के किसी भाई के नाती की शादी में माँ हम सबको ले गई थीं । मैंने आजी के जीवित दो भाइयों को और उनके परिवार के लोगों को देखा । वे लोग भी काफी खूबसूरत थे । तब हमें आजी के सुंदर होने का भान हुआ।


आजी के माँ और बाप बचपन में ही गुजर गए थे । सबसे बड़ी  भाभी और भाई ने अपने बच्चों के साथ ही आजी को पाला था । तब गाँव  के अस्पृश्य समाज में बच्चे पढ़ने नहीं जाते थे, न गाँव में स्कूल था । कुछ ही गाँवों में स्कूल थे । परंतु अस्पृश्य समाज में उस वक्त  इतनी जागृति नहीं आई थी । अपने भरण पोषण में ही इनका सारा समय गुजर जाता था । आजी के भाइयों की सबको मिलाकर सिर्फ पाँच  छह एकड जमीन थी और पूरे परिवार का गुजारा इस जमीन की पैदावार से नहीं होता था इसलिए वे दूसरों के खेतों में भी काम करते थे । बस दो वक्त के खाने-भर को अनाज ही वे जुटा पाते थे । घर की सभी औरतें और मर्द खेत में काम करते थे । आजी घर में अपने भाइयों के बच्चों के साथ खेलती थीं और घर के छोटे मोटे काम करती थीं, जब वह छह-सात वर्ष की थीं । कभी  कभी खेतों में भी बड़ों के साथ जाकर जमीन से खर-पतवार वगैरह निकालती थीं । अस्पृश्यता  का पालन बहुत कट्‌टरता से होता था इसलिए सवर्णों के घरों में इनको काम नहीं मिलता था । सिर्फ लकड़ियाँ  काटना या कुछ भारी सामान ढोने का काम ही इन्हें मिलता । अक्सर बड़े कष्ट के काम ही इनके हिस्से में आते थे ।


माँ एक दिन मिल से छुट्‌टी होने के बाद सीधे घर न जाकर हमारे स्कूल के बाहर हमारी प्रतीक्षा में गेट के पास खड़ी थी । जब हम बाहर आईं, माँ का चेहरा बहुत उदास लग रहा था । हमने उनसे पूछा तो उन्होंने कहा कि तुम्हारे कपड़े दूसरी लड़कियों से कितने घटिया लग रहे थे । ब्राह्मणों  की लडकियाँ कितने अच्छे कपड़े पहने थीं । तुम खूब पढ  लिख जाओगी, अच्छी नौकरी करोगी तो तुम भी ऐसे ही कपड़े पहनोगी । इसलिए तुम मन लगाकर पढ़ो । एक-दो दिन के बाद माँ ने कहीं से पैसे उधार लिए और सीताबर्डी की अच्छी दुकान से हमारे लिए अच्छे कपड़े खरीदकर टेलर से सिलवाए । किताबें रखने के लिए अच्छे बस्ते भी खरीद दिए ।


मैं अब साड़ी पहनने लगी थी । नौ गज की साड़ी महाराष्ट्रियन शैली से पहनती थी । अभी बस्ती में हम बहनों के सिवा कोई लड़की स्कूल में नहीं जा रही थी । सिर्फ एक लड़की सातवीं कक्षा पास करके अमरावती में शिक्षिका का कोर्स करने चली गई थी । 



बस्ती में सिर पर पल्ला लेना पड.ता था और बाल खराब हो जाते थे । कंधे पर पल्ला रखने का हमारे समाज में उस वक्त रिवाज नहीं था । समाज से लड़ने की ज्यादा ताकत अभी हममें नहीं आई थी । ब्राह्मणों की लड़कियाँ  अपना साड़ी का पल्ला कंधे पर रखती थीं । मेरा भी कंधे पर पल्ला रखने का मन करता था परंतु हिम्मत नहीं  होती थी । जैसे ही मैं बस्ती से बाहर निकलती और कस्तूरचंद पार्क में आती तब सिर से पल्ला हटा देती । मैं एक टूटा- सा आईना और छोटी- सी कंघी अपने साथ बस्ते में रखती थी । और पेड़  की आड  में बिखरे बालों को ठीक करती थी । मेरी छोटी बहन मधु इधर  उधर देखती रहती थी कि कोई आ तो नहीं रहा है । कोई आता दीखता तो मैं झट से बाल बनाना बंद कर देती थी, क्योंकि रास्ते में लड़कियों का बाल बनाना बहुत बुरा माना जाता था ।  


मैं जवान भी हो गई थी इसलिए और भी संभल के रहने के लिए माँ कहती थीं ताकि किसी को कुछ कहने का मौका न मिले । महाराष्ट्रियन शैली से साड़ी पहनना मेरा कॉलेज जाने पर ही छूटा, वह भी कॉलेज के दूसरे वर्ष में ।


बाबा ने अब कबाड़ी का धंधा छोड़  दिया था । उन्हें अब नागपुर की एम्प्रेस मिल में मशीन में तेल डालने की नौकरी मिल गई थी । अब माँ और बाबा साथ-साथ मिल में जाते थे और साथ - साथ घर आते थे । अब हम सब बहन  भाई बड़े होने लगे थे । खाने  पहनने और किताबों का खर्चा बहुत बढ़  गया था और दूसरा महायुद्ध शुरू हो जाने से महंगाई भी बहुत बढ़  गई थी । राशन की लाइन, मिट्‌टी के तेल की लाइन लगती थी । कभी  कभी तो बहुत लंबी लाइन होती थी । अपनी बारी आने तक दुकान बंद हो जाती थी और खाली हाथ लौटना पड़ता था । सबसे ज्यादा परेशानी मिट्‌टी के तेल की होती थी । मिट्‌टी का तेल न मिलने से पढ़ने के लिए बहुत दिक्कत आती थी , क्योंकि घर में बिजली तो थी ही नहीं । माँ सवेरे छह बजे सबको उठाकर पढ़ने बिठातीं या हम स्कूल से आते ही पढाई शुरू कर देते थे । रात में कभी कभी खाने के तेल में बाती लगाकर किसी तरह निभा लेते थे । लाइन लगाने के लिए कभी छोटी बहन या भाई को भेज देते थे । बड़े आदमी उनको भगा देते थे । कभी मुझे कभी छोटी बहन को स्कूल से छुट्‌टी लेनी पड़ती थी । माँ-बाबा के छुट्‌टी लेने पर पैसे कट जाते थे इसलिए वे छुट्‌टी नहीं लेते थे । राशन में बहुत घटिया अनाज मिलता था । लाल रंग के मोटे चावल मिलते थे । उस चावल को ओखली में लकड़ी के मूसल से कूटकर एकदम सफेद बनाते थे । चावलों की खुद्‌दी अलग करते थे । खुद्‌दी का भात चने की मसाले वाली दाल या मट्‌ठे की कढ़ी के साथ खाते थे । बस्ती में एक औरत मट्‌ठा बेचने आती थी । कभी कभी दही भी लाती थी । उससे भी हम कढ़ी बनाते थे ।


माँ सवेरे ही उठ जाती थीं और नल से पानी भरती थीं । पिताजी सब्जी काटकर रख देते थे । सब्जी के लिए माँ शाम को ही मिर्च  मसाला पत्थर पर पीसती थीं। खाना लकडि.यों पर बनता था । घर में खूब धुआँ होता| पिताजी चूल्हा जलाकर नहाने के लिए पानी चढ़ा देते । बाबा स्नान करते, तब तक माँ भात और कोई रसे वाली सब्जी झटपट बना लेती थीं । समय हो तो बाबा के कपड़े और अपने कपड़े भी धो लेती थीं । थोड़ा थोड़ा खाना माँ  बाबा खाते, कभी देर होने से नहीं भी खाते । दोनो खाना बाँधकर साथ में ले जाते थे ।


हम सब मुँह वगैरह धोकर, कोई झाडू देती, कोई बर्तन माँजती थी । माँ ने कपड़े नहीं धोए तो हम कपड़े धोती थीं । नहाकर अपने कपड़े भी धोती थीं । और रात का कुछ खाना बचा हो तो छोटे बहन  भाई खा लेते थे । गरमी के दिनों में अगर बासी खाना बचा हो तो उसे पानी डालकर रख देते थे और सवेरे उसमें इमली का पानी डालकर खिचड़ी की तरह पकाते । इसे घाटा या आंबूकरा कहते थे । जरा-सा भी अन्न फेंकते नहीं थे । किसी के घर शादी हो और खाना बचा हो तो ऐसा ही घाटा बनाकर मोहल्ले में बाँट देते थे । अगर बहुत-सा भात बना हो तो उसको धूप में सुखाते और खूब सूख जाने पर उसको पीसकर उसकी रोटियाँ  बनाकर खाते थे। मतलब अन्न न फेंककर किसी न किसी रूप में उसका उपयोग करते थे ।


माँ  बाबा यहाँ  रहने आ गए थे फिर भी थोड़े  दिनों तक वे मिल में काम करने जाते रहे । अभी भाई इंजीनियरिंग कर रहा था । मधु भी बी.टी. कर रही थी । पारू भी टीचर्स ट्रेनिंग कर रही थी । भाई की पढ़ाई पूरी होने और उसकी नौकरी लगने तक माँ  बाबा मिल में जाते रहे । 


माँ- बाबा के घर के आसपास सवर्ण लोग रहते थे परंतु माँ में अपनी हीनता को लेकर कोई भावना कभी नहीं आई । वह रोब से रहती थीं । आसपास के सवर्ण भी माँ को सम्मान देते थे । वे जान गए थे कि माँ बाबा ने अपने बच्चों को पढ़ाया है । वे उन लोगों के बराबर हो गए हैं । सिर्फ एक परिवार घर के पिछवाड़े रहता था, वह ज्यादा पढ़ा लिखा नहीं था । वे ब्राह्मण थे परंतु अनपढ  थे । वे तीन भाई और उनकी पत्नियाँ  रोज आपस में लड़ते  झगड़ते रहते थे और एक  दूसरे को कहते थे कि कैसा महारवाड़ा लगाया है । माँ ने यह दो  तीन बार सुना । उन्हें यह सहन नहीं हुआ । माँ ने उनसे कहा कि अगर यह शब्द आगे कहेंगे तो वह उनकी अच्छी खबर लेंगी । वे डर गए और यह कहना छोड़  दिया ।


बाबा बहुत शांत स्वभाव के थे । उनको किराएदार कभी  कभी तंग करते थे , परंतु माँ से डरते थे , इसलिए माँ ही घर का सारा कारोबार देखती थीं । बाबा को अकेले रहने की आदत थी । माँ को अच्छे लोगों से मिलना, उनकी अच्छी बातें सुनना अच्छा लगता था। कहीं बाबा साहब पर भाषण हो, सभा हो, तो माँ वहाँ  जाकर भाषण सुनती थी । रेडियो की खबरें भी जरूर सुनती थीं ।


बाबा साहब ने जहाँ बौद्ध  धर्म की दीक्षा ली थी, उस भूमि को दीक्षा भूमि कहते हैं । यह भूमि हमारे घर से थोड़ी दूरी पर ही है । वहाँ  बिल्डिंगें और बौद्ध विहार बने हैं । वहाँ  भदंत आनंद कौसल्यायन जी तथा एक दो बौद्धभिक्षु रहते थे । माँ ने दीक्षा भूमि में एक कुआँ भी अपने पैसों से बनवाया है ।


माँ ने कामी रोड पर बने बौद्ध  विहार में भी कुआँ खुदवा दिया । आने वाले लोगों को इससे पानी पीने की सुविधा हो जाती है । माँ ने कुछ अस्पृश्य  विद्यार्थिंयों को जो गाँव से नागपुर कॉलेज में आए थे , कुछ कम किराए पर कमरा दिया था । वे पढ. लिखकर अच्छी पोस्ट पर नौकरी करने लगे तब माँ ने बड़ी  बहन की लड़कियों की उनके साथ शादी करा दी ।


माँ जो भी अच्छी बातें कहीं पर सुन आती थीं, उन्हें हमें बताती थीं । माँ को किसी ने कहा था कि डायरी रोज लिखनी चाहिए, तब माँ मेरे पीछे पड़ी  कि तुम डायरी लिखा करो । मैंने थोडे दिन लिखी फिर छोड़  दी । कितना अच्छा होता, यदि माँ की बात मानकर मैं डायरी लिखती रहती । अभी भी कुछ प्रसंग दिमाग पर बहुत जोर डालने पर याद आते हैं, कुछ प्रसंग याद ही नहीं आते ।


माँ-बाबा ने बहुत कष्ट उठाया हमें पढ़ाने के लिए । बाबा कभी किसी डॉक्टर  का या वकील का बोर्ड दीवार पर ठोकने जाते थे। और भी कुछ काम मिले तो मिल से आने के बाद करते थे। माँ भी अब चूडियाँ, कुंकुम, शिकाकाई वगैरह बेचने लगीं। वह सिर्फ रविवार को ही गड्‌डीगोदाम, अपनी बस्ती और पास वाली पॉश कॉलोनी में यह सामान बेचने जाती थीं । वहाँ  की हिंदू उच्चवर्णीय महिलाएँ भी अब माँ से चूडियाँ, कुंकुम, शिकाकाई खरीदती थीं । यह काम माँ रामदास पेठ में जाने के पहले करती थीं । गड्‌डीगोदाम के कसाई मुसलमानों की औरतें माँ से ही चूडियाँ  खरीदती थीं, क्योंकि वे परदे में रहती थीं, किसी पुरुष से चूड़ी पहनना उन्हें अच्छा नहीं लगता था । उनसे काफी बिक्री हो जाती थी ।





'' लड.कियों के जन्म का , मृत्यु का पंजीयन तब होता ही नहीं था , और वे दुनिया से ऐसे चली जाती थीं जैसे पैदा ही न हुई हों ।"     ब्रजेश्वर मदान,  हंस,  फरवरी २००७

माँ को ग्यारहवी संतान लड.की हुई थी । उस लड़ की का नाम अहिल्या रखा गया था । माँ मिल में जाती थीं, हम भी स्कूल में जाते थे । अहिल्या को उठाकर और साथ में खाने का डिब्बा लेकर माँ जल्दी  जल्दी मिल में नहीं जा सकती थीं इसलिए उसे घर छोड  जाती थीं । बाद में हम बहनें घर का बाकी बचा काम करके अहिल्या को नहला  धुलाकर उसे मिल के पालनाघर में छोड़  जातीं । अहिल्या को जब मैं अपनी पीठ पर उठाती तब मेरी बहन मधु मेरा और अपना बस्ता पकड़  कर चलती । जब मैं थक जाती तब वह अहिल्या को उठाती और मैं बस्ते पकड़ती थी । हमें रोज दुगुना चलना पड़ता था, घर से मिल और वहाँ  से स्कूल ।


अक्सर स्कूल में देर हो जाती थी । तब शिक्षक हमें कक्षा के बाहर खड़ा  रखते थे । शिक्षक हमारी मजबूरी नहीं समझते थे । हमें कक्षा की लड़कियों के आगे अपमानित करते थे । हमें रोना आता था । परंतु इसके सिवा हम क्या कर सकती थीं । अफीम खिलाकर अहिल्या को सुला देते थे, इससे वह  बहुत चिड़  चिड़ी  हो गई थी । बहुत रोती थी । उसका जिगर बढ़   गया था ।


एक दिन उसको तेज बुखार हुआ । माँ ने उस दिन मिल से छुट्‌टी ली । मूर मेमोरियल अस्पताल हमारे स्कूल के रास्ते से हटकर था । माँ ने कहा, इसे अस्पताल ले जाकर लाइन में खड़े रहना, क्योंकि बाद में बहुत बड़ी  लाइन लग जाएगी । मैंने अहिल्या को पीठ पर लिया और छोटी बहन मधु ने दोनों बस्ते पकड़े । माँ ने कहा कि वह घर का काम खत्म करके अस्पताल पहुँच जाएँगी । तब हम लोग स्कूल चली जाएँगी। हम दोनों बहनें अस्पताल में लाइन में खड़ी हो गईं। हमारे आगे काफी औरतें खड़ी थीं। अहिल्या का बुखार बहुत बढ़ने लगा और वह छटपटाने लगी । मैं बहुत जोर से चीखी । नर्स दौड़ कर आई और मुझे बहन के साथ अंदर बुलाया । डॉक्टर ने अहिल्या को अस्पताल में भरती करने को कहा । नर्स ने अहिल्या को पकड़ा। मैं उसके पीछे  पीछे वार्ड में गई । मैंने मधु को माँ को बुलाने घर भेजा कि वह जल्दी आएँ । मधु बेचारी रोते  रोते घर भागी । वार्ड में नर्स ने अहिल्या का बुखार देखा और किसी काम से वार्ड से बाहर गई ।


इधर अहिल्या ने आँखें घुमाईं और झटका देकर शांत हो गई । उसके प्राण  पखेरू उड़   गए । फिर भी मैंने उसे झूले में डाला कि शायद जीवित हो। वह एक ओर लुढ़क गई। मुझे चक्कर आने लगा । मै बहुत जोर से चीखकर बेहोश हो गई थी । नर्स दौड़  कर आई और मुझे दवा पिलाई । मुझे जल्दी होश आ गया । नर्स ने अहिल्या को उठाया और मुर्दाघर में लाकर एक सीमेंट के बने बेंच पर लिटा दिया । मैं मुर्दाघर के आगे अकेली बैठकर रो रही थी । माँ पहुँचीं तब उन्हें अहिल्या की मृत्यु का पता चला । वह रोती हुई मुर्दाघर पहुँचीं । माँ को देखकर मैं बहुत जोर से रोने लगी । माँ और मधु भी रो रही थीं । एक तांगे वाला बहुत मुश्किल से हमें घर ले जाने को तैयार हुआ । घर पहुँचते ही माँ ने बस्ती के एक लड़के को मिल में बाबाको यह खबर पहुँचाने भेजा । बाबा और जीजाजी भी आए । और भी रिश्तेदारों को खबर भेजी गई । वे भी आए और अहिल्या को दफनाया गया । घर बहुत उदास लग रहा था ।


आसपास के घरों से और हमारे रिश्तेदारों के घर से शाम को हम लागों के लिए खाना आया । हम बच्चों ने खाना खाया परंतु माँ और बाबा ने नहीं खाया । मृत्यु के तीसरे दिन माँ  बाबा की मित्रमंडली, हमारे कुछ पड़ोसी और रिश्तेदार चंदा इकट्‌ठा करके माँ  बाबा को बाजार ले गए और उन्हें कुछ सब्जियाँ  खरीद दीं । यह रिवाज था । सबने ताड़ी पी । औरतें भी ताड़ी पीती थीं । सबने पान खाया । शायद दुःख भूलने के लिए यह सब होता होगा । जिसे रिवाज का रूप मिल गया था  । कुछ दिन तक हमें अहिल्या की याद आती रही । वह अभी " बाबा- माँ"  कहना सीख गई थी और चलने लगी थी । बाबा को देखकर बहुत खुश होती थी । " बाबा- बाबा " कहकर मिल से आते ही उनसे लिपट जाती थी । उसकी याद आते ही माँ बाबा के आँसू निकल आते थे ।




स्वतंत्रता सेनानी पति भी पुरुष पहले है , सेनानी बाद में

मेरी और मेरे स्वतंत्रता सेनानी पति देवेन्द्र कुमार की कभी नहीं बनी । देवेन्द्र कुमार सिर्फ अपने ही घेरे में रहने वाला आदमी है । गर्म मिजाज और जिद्‌दी । अपने मुँह से कहता कि मैं बहुत शैतान आदमी हूँ । उसने मेरी इच्छा, भावना, खुशी की कभी कद्र नहीं  की । बात  बात पर गंदी गंदी गालियाँ और हाथ उठाना। मारता भी था तो बहुत क्रूर तरीके से । उसकी बहनों ने मुझे बताया था कि वह माँ  बाप,  पहली पत्नी को भी पीटता था ।  मारपीट की उसे आदत थी । मेरी माँ  बहनें कह रही थीं कि उसे छोड. दो । पर मेरी नौकरी नहीं थी, बच्चे भी छोटे थे । उनकी देखभाल करने के लिए भी घर में कोई नहीं था । दूसरा कारण, माँ बाबा ने हमारे लिए बहुत कष्ट उठाए थे । हमें पालने  पोसने, पढ़ाई के लिए समाज से अपमान, मानसिक यातनाएँ  सही थीं परंतु हिम्मत नहीं हारी थी इसलिए अब उनकी ढलती उम्र में मैं उन्हें मानसिक यातना नहीं देना चाहती थी ।


देवेन्द्र कुमार को पत्नी सिर्फ खाना बनाने और उसकी शारीरिक भूख मिटाने के लिए चाहिए थी । दफ्तर के काम और लिखना यही उसकी चिंता थी । मुझे किसी चीज की जरूरत है, इस पर उसने कभी ध्यान नहीं दिया । मैंने कभी उसके लिखने  पढ़ने में बाधा नहीं डाली, न उसका विरोध किया । बच्चे छोटे थे । घर के कामों में व्यस्त रही । काम करने की आदत बचपन से ही थी । सामाजिक कार्य स्थगित हो गया था । मैं कभी घर के आँगन में बागबानी करती तो कभी हस्तकला की वस्तुएँ बनाती । मेरा मैट्रिक तक पेंटिंग विषय रहा था । मैंने जे. जे. स्कूल ऑफ आर्ट की दो परीक्षाएँ भी दी थीं ।


देवेन्द्र कुमार पैसे अपनी आलमारी में ताले में बंद रखता और रोज गिनकर दूध और सब्जी के पैसे देता । कभी  कभी देना भूल जाता । उसे याद दिलाना पड़ता ।  कभी कोई बात पूछो तो  दस मिनट तक तो कोई उत्तर ही नहीं देता । उसके बाद चलते  चलते संक्षिप्त-सा जवाब मिलता । मेरे कपड़े, चप्पल की  सिलाई के लिए पैसे लेने में बहुत पीछे पड़ना पड़ता, तब जाकर पैसे मिलते । वे भी पूरे नहीं पड़ते | कभी  नहीं  भी देता । कहता अगले महीने लेना । जब अगले महीने पैसे देने की बात आती तब कोई   न कोई कारण निकालकर झगड़ा करता । मारने दौड़ता । मैंने बाद में उसके साथ ज्यादा बात करनी छोड दी क्योंकि वह जरा- जरा-सी बात पर गाली देने लगता था ।


अब मुझे अकेले रहने की आदत पड. गई थी । माँ कभी  कभी नागपुर से किसी के हाथ कुछ पैसे, मिठाई बच्चों के लिए भेज देती थीं, साथ में बडियाँ  पापड, सेंवइयाँ  वगैरह भी भेज देती थीं। पैसे मैं बचाकर रखती, कभी सब्जी आदि खरीदने पर कुछ पैसे बचते, वह भी जमा करती । अखबार की रद्‌दी बेचकर भी कुछ पैसे आते, उसी से मेरा अपना खर्चा चल जाता था । रिटायर होने के बाद देवेन्द्र कुमार रद्‌दी अखबार बेचकर उसके पैसे खुद रखने लगा । तंगी रहती ही थी क्योंकि देवेन्द्र कुमार मुझे खर्च के लिए पैसे नहीं देता था । बहुत लड़  झगड़ कर उसने मुझे चालीस रुपये महीने देना शुरू किया । जब देवेन्द्र कुमार अपने गाँव बिहार जाता, तब एक कागज पर इतने पैसे दूध के, इतने सब्जी के, इतने राशन के और चालीस रुपये तुम्हारी पगार, लिखकर रख देता, जैसे मैं उस घर की नौकरानी हूँ ।


देवेन्द्र कुमार को ताने देने की आदत थी । मैंने शादी के लिए पहल की थी जरूर । यह कोई बड़ा अपराध नहीं था । मैंने कोई जोर  जबर्दस्ती नहीं की थी । फिर भी मुझसे बार  बार कहता कि तुम्हें कोई नहीं मिला, इसलिए तुमने मेरे साथ शादी की । एक बार छोटे बेटे ने बाप को टोका कि आपकी शादी को चालीस साल हो गए और आप बार  बार इसी एक बात की रट लगाते हो । तब उसके उस पर नाराज हो गया । कोई बच्चा मेरा पक्ष लेता तो वह इसे सहन नहीं कर पाता । देवेद्र कुमार को स्वतंत्राता सेनानी का ताम्रपत्रा मिला और पेंशन भी मिलती है । सरकार ने उसके कार्य की प्रशंसा की थी । किंतु यही व्यक्ति अपने घर में हर वक्त  लड़ता था अपनी पत्नी से । प्रशंसा तो दूर, उसे पेंशन के जो पैसे मिलते, उनमें से भी पत्नी को एक पैसा भी नहीं देता  । उसके द्वारा घर का सारा काम करने पर भी । जो चालीस रुपये मेरा जेब  खर्च नियत किया था, उसे भी बंद कर दिया । तब मैंने घर का दूध लाना, दोनों हाथों में बड़े बड़े थैले लेकर जाना छोड  दिया ।


मुझसे कहता कि मैंने तुम्हें पालने का ठेका नहीं लिया है । मैंने कहा, शादी के बाद पत्नी को पालने की जिम्मेदारी पति की होती है । मैं भी यहाँ मुफ्त में तो नहीं खाती । यहाँ काम करती हूँ । तब कहता, बाहर जाकर काम करो और खाओ । पत्नी को वह स्वतंत्रता सेनानी भी एक दासी के रूप में ही देखना चाहता था। मैं कपड़े नहीं धोती थी, इसलिए वह साबुन भी अपनी आलमारी में बंद रखता, चीनी भी बंद, थोड़ी  थोड़ी रोज लड़के के लिए, चाय के लिए एक कटोरी में रख देता । खुद राशन, दूध  सब्जी आदि लाता । पकाने के लिए सब्जी टेबल पर निकालकर रख देता । मैं सिर्फ खाना पकाकर रखती ।


बहुत अत्याचार होने पर मैंने कोर्ट में देवेन्द्र कुमार पर केस दायर किया । आज दस वर्ष से कोर्ट में केस अटका पड़ा है । मुझे हर माह ५०० रुपये गुजारे के लिए मिलते हैं । देवेन्द्र कुमार इसे देने में भी देर लगाता है, चार  चार महीने नहीं भेजता । न्यायपालिका भी स्त्री के लिए ज्यादा फिक्र नहीं करती । औरत को न्याय कब मिलेगा आखिर ?



प्रस्तुति सहयोग : सुश्री सुधा अरोड़ा 

1 टिप्पणी:

  1. Dr. kavita,
    Apka blog ek bahut hi mahatvpoorn samajik mude ko vyakat karta hai. Is post mein, gaav aur chote shaharo mein ladkiyon ki dasha poori tarah se vayakt kari gayi hai. Bahut hi dilchusp aur bhavpoorn kahani hai.
    Gladly following your blog. You may like to follow mine. http://dharbarkha.blogspot.com/2011/07/its-dowry-not-gender.html

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