शनिवार, 15 अक्टूबर 2011

सरोज-स्मृति

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निराला जी की पुण्यतिथि (15 अक्तूबर , 1961) पर विशेष


पुत्री की मृत्यु पर लिखी शोकान्तिका
सरोज-स्मृति











प्रभु जोशी की तूलिका से बना चित्र





ऊनविंश पर जो प्रथम चरण
तेरा वह जीवन-सिन्धु-तरण;
तनये, ली कर दृक्पात तरुण
जनक से जन्म की विदा अरुण!
गीते मेरी, तज रूप-नाम
वर लिया अमर शाश्वत विराम
पूरे कर शुचितर सपर्याय
जीवन के अष्टादशाध्याय,
चढ़ मृत्यु-तरणि पर तूर्ण-चरण
कह - "पित:, पूर्ण आलोक-वरण
करती हूँ मैं, यह नहीं मरण,
'सरोज' का ज्योति:शरण - तरण!" --



अशब्द अधरों का सुना भाष,
मैं कवि हूँ, पाया है प्रकाश
मैंने कुछ, अहरह रह निर्भर
ज्योतिस्तरणा के चरणों पर।
जीवित-कविते, शत-शर-जर्जर
छोड़ कर पिता को पृथ्वी पर
तू गई स्वर्ग, क्या यह विचार --
"जब पिता करेंगे मार्ग पार
यह, अक्षम अति, तब मैं सक्षम,
तारूँगी कर गह दुस्तर तम?" --

कहता तेरा प्रयाण सविनय, --
कोई न था अन्य भावोदय।
श्रावण-नभ का स्तब्धान्धकार
शुक्ला प्रथमा, कर गई पार!



धन्ये, मैं पिता निरर्थक था,
कुछ भी तेरे हित न कर सका!
जाना तो अर्थागमोपाय,
पर रहा सदा संकुचित-काय
लखकर अनर्थ आर्थिक पथ पर
हारता रहा मैं स्वार्थ-समर।
शुचिते, पहनाकर चीनांशुक
रख सका न तुझे अत: दधिमुख।
क्षीण का न छीना कभी अन्न,
मैं लख न सका वे दृग विपन्न;
अपने आँसुओं अत: बिम्बित
देखे हैं अपने ही मुख-चित।



सोचा है नत हो बार बार --
"यह हिन्दी का स्नेहोपहार,
यह नहीं हार मेरी, भास्वर
यह रत्नहार-लोकोत्तर वर!" --
अन्यथा, जहाँ है भाव शुद्ध
साहित्य-कला-कौशल प्रबुद्ध,
हैं दिये हुए मेरे प्रमाण
कुछ वहाँ, प्राप्ति को समाधान





पार्श्व में अन्य रख कुशल हस्त
गद्य में पद्य में समाभ्यस्त। --
देखें वे; हसँते हुए प्रवर,
जो रहे देखते सदा समर,
एक साथ जब शत घात घूर्ण
आते थे मुझ पर तुले तूर्ण,
देखता रहा मैं खडा़ अपल
वह शर-क्षेप, वह रण-कौशल।
व्यक्त हो चुका चीत्कारोत्कल
क्रुद्ध युद्ध का रुद्ध-कंठ फल।
और भी फलित होगी वह छवि,
जागे जीवन-जीवन का रवि,
लेकर-कर कल तूलिका कला,
देखो क्या रँग भरती विमला,
वांछित उस किस लांछित छवि पर
फेरती स्नेह कूची भर।



अस्तु मैं उपार्जन को अक्षम
कर नहीं सका पोषण उत्तम
कुछ दिन को, जब तू रही साथ,
अपने गौरव से झुका माथ,
पुत्री भी, पिता-गेह में स्थिर,
छोड़ने के प्रथम जीर्ण अजिर।
आँसुओं सजल दृष्टि की छलक
पूरी न हुई जो रही कलक

प्राणों की प्राणों में दब कर
कहती लघु-लघु उसाँस में भर;
समझता हुआ मैं रहा देख,
हटती भी पथ पर दृष्टि टेक।



तू सवा साल की जब कोमल
पहचान रही ज्ञान में चपल
माँ का मुख, हो चुम्बित क्षण-क्षण
भरती जीवन में नव जीवन,
वह चरित पूर्ण कर गई चली
तू नानी की गोद जा पली।
सब किये वहीं कौतुक-विनोद
उस घर निशि-वासर भरे मोद;
खाई भाई की मार, विकल
रोई उत्पल-दल-दृग-छलछल,
चुमकारा सिर उसने निहार
फिर गंगा-तट-सैकत-विहार
करने को लेकर साथ चला,
तू गहकर चली हाथ चपला;
आँसुओं-धुला मुख हासोच्छल,
लखती प्रसार वह ऊर्मि-धवल।
तब भी मैं इसी तरह समस्त
कवि-जीवन में व्यर्थ भी व्यस्त
लिखता अबाध-गति मुक्त छंद,



पर संपादकगण निरानंद
वापस कर देते पढ़ सत्त्वर
दे एक-पंक्ति-दो में उत्तर।
लौटी लेकर रचना उदास
ताकता हुआ मैं दिशाकाश
बैठा प्रान्तर में दीर्घ प्रहर
व्यतीत करता था गुन-गुन कर
सम्पादक के गुण; यथाभ्यास
पास की नोंचता हुआ घास
अज्ञात फेंकता इधर-उधर
भाव की चढी़ पूजा उन पर।
याद है दिवस की प्रथम धूप
थी पडी़ हुई तुझ पर सुरूप,
खेलती हुई तू परी चपल,
मैं दूरस्थित प्रवास में चल
दो वर्ष बाद हो कर उत्सुक
देखने के लिये अपने मुख
था गया हुआ, बैठा बाहर
आँगन में फाटक के भीतर,
मोढे़ पर, ले कुंडली हाथ
अपने जीवन की दीर्घ-गाथ।
पढ़ लिखे हुए शुभ दो विवाह।
हँसता था, मन में बडी़ चाह
खंडित करने को भाग्य-अंक,
देखा भविष्य के प्रति अशंक।



इससे पहिले आत्मीय स्वजन
सस्नेह कह चुके थे जीवन
सुखमय होगा, विवाह कर लो
जो पढी़ लिखी हो -- सुन्दर हो।
आये ऐसे अनेक परिणय,
पर विदा किया मैंने सविनय
सबको, जो अडे़ प्रार्थना भर
नयनों में, पाने को उत्तर
अनुकूल, उन्हें जब कहा निडर --
"मैं हूँ मंगली," मुडे़ सुनकर
इस बार एक आया विवाह
जो किसी तरह भी हतोत्साह
होने को न था, पडी़ अड़चन,
आया मन में भर आकर्षण
उस नयनों का, सासु ने कहा --
"वे बडे़ भले जन हैं भैय्या,
एन्ट्रेंस पास है लड़की वह,
बोले मुझसे -- 'छब्बीस ही तो
वर की है उम्र, ठीक ही है,
लड़की भी अट्ठारह की है।'
फिर हाथ जोडने लगे कहा --
' वे नहीं कर रहे ब्याह, अहा,
हैं सुधरे हुए बडे़ सज्जन।
अच्छे कवि, अच्छे विद्वज्जन।
हैं बडे़ नाम उनके। शिक्षित
लड़की भी रूपवती; समुचित
आपको यही होगा कि कहें
हर तरह उन्हें; वर सुखी रहें।'


आयेंगे कल।" दृष्टि थी शिथिल,
आई पुतली तू खिल-खिल-खिल
हँसती, मैं हुआ पुन: चेतन
सोचता हुआ विवाह-बन्धन।
कुंडली दिखा बोला -- "ए -- लो"
आई तू, दिया, कहा--"खेलो।"
कर स्नान शेष, उन्मुक्त-केश
सासुजी रहस्य-स्मित सुवेश
आईं करने को बातचीत
जो कल होनेवाली, अजीत,
संकेत किया मैंने अखिन्न
जिस ओर कुंडली छिन्न-भिन्न;
देखने लगीं वे विस्मय भर
तू बैठी संचित टुकडों पर।



धीरे-धीरे फिर बढा़ चरण,
बाल्य की केलियों का प्रांगण
कर पार, कुंज-तारुण्य सुघर
आईं, लावण्य-भार थर-थर
काँपा कोमलता पर सस्वर
ज्यौं मालकौस नव वीणा पर,
नैश स्वप्न ज्यों तू मंद मंद
फूटी उषा जागरण छंद
काँपी भर निज आलोक-भार,
काँपा वन, काँपा दिक् प्रसार।
परिचय-परिचय पर खिला सकल --
नभ, पृथ्वी, द्रुम, कलि, किसलय दल
क्या दृष्टि। अतल की सिक्त-धार
ज्यों भोगावती उठी अपार,
उमड़ता उर्ध्व को कल सलील
जल टलमल करता नील नील,
पर बँधा देह के दिव्य बाँध;
छलकता दृगों से साध साध।
फूटा कैसा प्रिय कंठ-स्वर
माँ की मधुरिमा व्यंजना भर
हर पिता कंठ की दृप्त-धार
उत्कलित रागिनी की बहार!
बन जन्मसिद्ध गायिका, तन्वि,
मेरे स्वर की रागिनी वह्लि
साकार हुई दृष्टि में सुघर,
समझा मैं क्या संस्कार प्रखर।
शिक्षा के बिना बना वह स्वर
है, सुना न अब तक पृथ्वी पर!
जाना बस, पिक-बालिका प्रथम
पल अन्य नीड़ में जब सक्षम
होती उड़ने को, अपना स्वर
भर करती ध्वनित मौन प्रान्तर।
तू खिंची दृष्टि में मेरी छवि,
जागा उर में तेरा प्रिय कवि,
उन्मनन-गुंज सज हिला कुंज
तरु-पल्लव कलिदल पुंज-पुंज
बह चली एक अज्ञात बात
चूमती केश--मृदु नवल गात,
देखती सकल निष्पलक-नयन
तू, समझा मैं तेरा जीवन।



सासु ने कहा लख एक दिवस :--
"भैया अब नहीं हमारा बस,
पालना-पोसना रहा काम,
देना 'सरोज' को धन्य-धाम,
शुचि वर के कर, कुलीन लखकर,
है काम तुम्हारा धर्मोत्तर;
अब कुछ दिन इसे साथ लेकर
अपने घर रहो, ढूंढकर वर
जो योग्य तुम्हारे, करो ब्याह
होंगे सहाय हम सहोत्साह।"




सुनकर, गुनकर, चुपचाप रहा,
कुछ भी न कहा, -- न अहो, न अहा;
ले चला साथ मैं तुझे कनक
ज्यों भिक्षुक लेकर, स्वर्ण-झनक
अपने जीवन की, प्रभा विमल
ले आया निज गृह-छाया-तल।
सोचा मन में हत बार-बार --
"ये कान्यकुब्ज-कुल कुलांगार,
खाकर पत्तल में करें छेद,
इनके कर कन्या, अर्थ खेद,
इस विषय-बेलि में विष ही फल,
यह दग्ध मरुस्थल -- नहीं सुजल।"
फिर सोचा -- "मेरे पूर्वजगण
गुजरे जिस राह, वही शोभन
होगा मुझको, यह लोक-रीति
कर दूं पूरी, गो नहीं भीति
कुछ मुझे तोड़ते गत विचार;
पर पूर्ण रूप प्राचीन भार
ढोते मैं हूँ अक्षम; निश्चय
आयेगी मुझमें नहीं विनय
उतनी जो रेखा करे पार
सौहार्द्र-बंध की निराधार।


वे जो यमुना के-से कछार
पद फटे बिवाई के, उधार
खाये के मुख ज्यों पिये तेल
चमरौधे जूते से सकेल
निकले, जी लेते, घोर-गंध,
उन चरणों को मैं यथा अंध,
कल ध्राण-प्राण से रहित व्यक्ति
हो पूजूं, ऐसी नहीं शक्ति।
ऐसे शिव से गिरिजा-विवाह
करने की मुझको नहीं चाह!"
फिर आई याद -- "मुझे सज्जन
है मिला प्रथम ही विद्वज्जन
नवयुवक एक, सत्साहित्यिक,
कुल कान्यकुब्ज, यह नैमित्तिक
होगा कोई इंगित अदृश्य,
मेरे हित है हित यही स्पृश्य
अभिनन्दनीय।" बँध गया भाव,
खुल गया हृदय का स्नेह-स्राव,
खत लिखा, बुला भेजा तत्क्षण,
युवक भी मिला प्रफुल्ल, चेतन।
बोला मैं -- "मैं हूँ रिक्त-हस्त
इस समय, विवेचन में समस्त --
जो कुछ है मेरा अपना धन
पूर्वज से मिला, करूँ अर्पण
यदि महाजनों को तो विवाह
कर सकता हूँ, पर नहीं चाह
मेरी ऐसी, दहेज देकर
मैं मूर्ख बनूं यह नहीं सुघर,
बारात बुला कर मिथ्या व्यय
मैं करूँ नहीं ऐसा सुसमय।
तुम करो ब्याह, तोड़ता नियम
मैं सामाजिक योग के प्रथम,
लग्न के; पढूंगा स्वयं मंत्र
यदि पंडितजी होंगे स्वतन्त्र।
जो कुछ मेरे, वह कन्या का,
निश्चय समझो, कुल धन्या का।"



आये पंडित जी, प्रजावर्ग,
आमन्त्रित साहित्यिक ससर्ग
देखा विवाह आमूल नवल,
तुझ पर शुभ पडा़ कलश का जल।
देखती मुझे तू हँसी मन्द,
होंठो में बिजली फँसी स्पन्द
उर में भर झूली छवि सुन्दर,
प्रिय की अशब्द श्रृंगार-मुखर
तू खुली एक उच्छवास संग,
विश्वास-स्तब्ध बँध अंग-अंग,
नत नयनों से आलोक उतर
काँपा अधरों पर थर-थर-थर।
देखा मैनें वह मूर्ति-धीति
मेरे वसन्त की प्रथम गीति --
श्रृंगार, रहा जो निराकार,
रस कविता में उच्छ्वसित-धार
गाया स्वर्गीया-प्रिया-संग --
भरता प्राणों में राग-रंग,
रति-रूप प्राप्त कर रहा वही,
आकाश बदल कर बना मही।
हो गया ब्याह आत्मीय स्वजन
कोई थे नहीं, न आमन्त्रण
था भेजा गया, विवाह-राग
भर रहा न घर निशि-दिवस जाग;
प्रिय मौन एक संगीत भरा
नव जीवन के स्वर पर उतरा।
माँ की कुल शिक्षा मैंने दी,
पुष्प-सेज तेरी स्वयं रची,
सोचा मन में, "वह शकुन्तला,
पर पाठ अन्य यह अन्य कला।"



कुछ दिन रह गृह तू फिर समोद
बैठी नानी की स्नेह-गोद।
मामा-मामी का रहा प्यार,
भर जलद धरा को ज्यों अपार;
वे ही सुख-दुख में रहे न्यस्त,
तेरे हित सदा समस्त, व्यस्त;
वह लता वहीं की, जहाँ कली
तू खिली, स्नेह से हिली, पली,
अंत भी उसी गोद में शरण
ली, मूंदे दृग वर महामरण!



मुझ भाग्यहीन की तू सम्बल
युग वर्ष बाद जब हुई विकल,
दुख ही जीवन की कथा रही,
क्या कहूँ आज, जो नहीं कही!
हो इसी कर्म पर वज्रपात
यदि धर्म, रहे नत सदा माथ
इस पथ पर, मेरे कार्य सकल
हो भ्रष्ट शीत के-से शतदल!
कन्ये, गत कर्मों का अर्पण
कर, करता मैं तेरा तर्पण!





शनिवार, 8 अक्टूबर 2011

..... क्योंकि समाज पुरुष-प्रधान है : जिंदा गाड़ दी गई लड़की

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 ..... क्योंकि समाज पुरुष-प्रधान है 

- कविता वाचक्नवी 




पिछले दिनों अलग अलग अवसरों पर जब महिला मुद्दों को लेकर मैंने जरा भी कुछ लिखा तो मेरे ब्लॉग की पोस्ट के बाद व्यक्तिगत रूप से या फेसबुक की वॉल पर टिप्पणी करते हुए अनेक पुरुष - रत्नों ने मुझे समझाईश दी कि कविता जी ज़माना बदल गया है अब कहाँ आप महिलाओं पर अत्याचार की बात करती हैं अब तो ...... आदि आदि अनादि... । 

..... और कुछ महापुरुषों ने तो इतने भद्दे कमेन्ट किए कि उनकी भाषा और विचार पढ़कर उनके प्रति वितृष्णा ही जागी कि कैसे कैसे लोग हैं। अस्तु ! 

आज इस बदले जमाने का सच उघाड़ती सचाई देखें -






कुछ लोग देते हैं कि महिलाओं के प्रति अत्याचार के लिए महिलाओं की ही अधिक भूमिका होती है, उसे क्यों नकारते हैं या पुरुष को क्यों दोषी ठहराते हैं। ऐसा तर्क देने वाले लोग जरा समाज-मनोविज्ञान या समाज शास्त्र आदि को गहराई से जानें समझेंगे तो पता चलेगा कि कभी यदि जब महिलाएँ ऐसा करती हैं तो क्यों करती हैं ।

 ..... क्योंकि समाज पुरुष-प्रधान है। 


बात यह नहीं है कि किसने गलत किया, बात यह है कि क्यों किया गया। हमारी सामाजिक बुनावट में वे कौन- से ऐसे तत्व हैं जो किसी को बाध्य करते हैं ऐसा करने को .... इस पर विचार किया जाना अनिवार्य है। 


ऐसा नहीं कि स्त्री ने जब ऐसा किया तो उसे समझने/ समझाने के लिए किन्हीं बड़े ग्रन्थों का पारायण अनिवार्य है और  न ही इन बातों पर नासमझी का तर्क देकर पीठ फेर लेने से काम चलता है कि केवल  शिक्षित व्यक्ति ही समाज की बनावट और बुनावट को समझ सकते हैं।  यह चीज पुस्तकों से अधिक समाज के मन को और उसकी गतियों को अधिक निकट से समझने की है। क्रिया और प्रतिक्रिया को देखने बूझने की है ,  `किसी ने ऐसा किया तो क्यों किया ' के विवेचन की है। 

जिस आयु में स्त्री माँ बनती है, उस आयु में भारतीय समाज व्यवस्था में वह मुखिया नहीं हो चुकी होती। उसके ऐसा करने के पीछे कई कारक होते हैं, उन कारकों को तलाशना जरूरी है। वे कारक कोई किताबों की चीज नहीं। तब जरा-सा ध्यान देने पर  समझ आ जाएगा कि स्त्री की भूमिका कितनी है और पुरुष की कितनी । 


 एक युवक ने इसी प्रसंग में प्रतिप्रश्न किया कि क्या स्त्री परिवार और समाज में पद पर नहीं होती, क्या उसके पास कोई अधिकार नहीं होते या वह बेटी, माँ, बहू की ज़िम्मेदारी के समय मज़बूर बन जाती है। 

तो ऐसे प्रश्नकर्त्ता ये भूल जाते हैं कि स्त्री के  पद पर होने न होने का प्रश्न नहीं है यहाँ। उसके पद पर होने या अधिकार-सम्पन्न (?) होने से क्या होगा ? 



(1) पहली बात तो यह कि समाज में कितने प्रतिशत महिलाएँ स्वायत्त अथवा अधिकार सम्पन्न हैं?


(2 ) उनके अधिकार की सीमा क्या है ? अर्थात वे अपने निर्णय लेने में स्वतंत्र हैं, या पति के भी, या पति और परिवार के भी या या बच्चों के भी ? क्या आर्थिक और सामाजिक निर्णयों में उनकी भूमिका / निर्णय का कोई महत्ब है ?


(3) वे अधिकार संपन्न (?) महिलाएँ कहाँ रहती हैं, उन पर अन्य दबावों / निर्णयों / परिस्थितियों का प्रभाव कितना होता है ? 

 
(4) बेटी के जन्म के साथ ही उस के पालन पोषण से जुड़ी असुरक्षा से बचाव के कितने हथियार उसके पास होते हैं ? 


(5) बेटी के जन्म से ही उसके साथ जुड़ी पारिवारिक हीनताबोध , संत्रास की स्थितियों में उसके साथ कितने लोग होते हैं?


(6) बेटी के साथ जुड़ी बलात्कार, छेड़छाड़, अपहरण, दहेज, वर ढूँढने , उसे संतुष्ट करने, उसे बेटी पसंद आने/ न आने, बेटी के बार बार रिजेक्ट हो कर बाजार में बिकती वस्तुओं की तरह अपनी बोली लगाए जाने की पीड़ा ..... अनगिन समस्याओं का क्या हल है उस तथाकथित अधिकार सम्पन्न महिला के पास ?


(7) बेटी के ससुराल में जला दिए जाने , मार दिए जाने या पति के परस्त्रीगामी होने पर उस अधिकार सम्पन्न स्त्री का कितना बस है?

आशा है इतने जरा से कारक उसकी भूमिका का कुछ तो खुलासा कर देंगे । या कम से कम इतना तो पता दे ही देंगे कि सामाजिक संरचना में वे कौन-से तत्व हैं, जिनके कारण यह सब आज भी हमारे आसपास ही चुपचाप व सरेआम भी चल रहा है। 



बुधवार, 5 अक्टूबर 2011

तुलसी की स्त्रीनिंदा (?) और स्त्रीविमर्श का ध्येय

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तुलसी की स्त्रीनिंदा (?) और स्त्रीविमर्श का ध्येय 

- (डॉ.)कविता वाचक्नवी






कवि तुलसीदास के प्रसंग में उनके स्त्री विषयक कुछ कथनों पर आपत्ति / या प्रश्न-प्रसंग बार बार कई लोग उठाते हैं। आज एक लेख पर प्रतिक्रिया करते हुए किसी ने पुनः यह विषय उठाया तो मैं स्वयं को रोक नहीं पाई। 


ऐसे प्रसंगों में एक बात यह भी ध्यान रखने की है कि भक्तिकाल अथवा सन्यासी आदि की नीति इन प्रसंगों में भिन्न होनी स्वाभाविक है। वह सामान्य व्यक्ति की स्त्री विषयक अवधारणा या दृष्टिकोण का पता नहीं देती अपितु एक संस्कार- विशेष अथवा नीति-विशेष वाले व्यक्ति के दृष्टिकोण का पता देती है । 



दूसरी बात, मेरी जानकारी के अनुसार किसी भी लेखक के लेखन में पात्र भिन्न भिन्न होते हैं, जो खल/दुर्जन और सज्जन इत्यादि विविध सामाजिक कोटियों के ही होते हैं। अब यदि किसी खल पात्र की भूमिका को लेखक लिखेगा तो क्या लिखेगा ? जैसे रावण के संवाद लिखेगा तो लेखक ही; और सज्जन के भी लिखेगा तो लेखक ही। इन सज्जन और दुर्जन पात्रों के संवादो या कथनों को लेखक के निजी विचार मानना कितना न्याय संगत है? 



इसलिए आवश्यक होता है कि किसी भी कथन के प्रसंग, परिप्रेक्ष्य, संदर्भ, समय, तत्कालीनता, अवसर, इत्यादि ढेरों चीजों के साथ जोड़ कर देखना। तभी हम लेखक के साथ न्याय कर सकते हैं। यह भी ध्यान रखना होगा कि जो कथन किसी व्यक्तिविशेष के लिए कहा गया हो, वही समस्त वर्ग के लिए सही नहीं हो सकता। जैसे शूर्पनखा के व्यवहार से स्त्री की जो छवि बनती है उस पर टिप्पणी करते हुए कही गई बातें समस्त स्त्री जगत पर लागू नहीं हो सकतीं। 



अच्छे व बुरे सदा व हर स्थान, हर वर्ग/समुदाय में होते है। जैसे, ऐसा नहीं है कि स्त्री सदा गलत/बुरी व पुरुष सदा सही/अच्छा हो और स्त्री सदा सही/अच्छी व पुरुष सदा गलत/ बुरा हो। ऐसा भी होता है कि एक ही व्यक्ति अलग अलग भूमिका में अलग अलग प्रकार का हो जाता है। जैसे पिता या पुत्र या भाई के रूप में अच्छा व्यक्ति आवश्यक नहीं कि अच्छा पति भी हो; अथवा ठीक इस से उलटा कि कि माँ, बहन और बेटी के रूप में स्त्री बहुत अच्छी हो किन्तु सास के रूप में कर्कश। 



मानव-निर्माण की यह प्रक्रिया संस्कार, परिवेश, समय और परिस्थिति और प्रसंग सापेक्ष होती है। अतः लड़ाई किसी व्यक्ति-विशेष अथवा वर्ग - विशेष के विरुद्ध होने की अपेक्षा प्रवृत्ति के विरुद्ध होनी चाहिए। पुरुष के विरुद्ध होने की अपेक्षा उसकी सामंतवादी और सत्तात्मकता के विरुद्ध होनी चाहिए। यह सत्तात्मकता यदि वंचित व्यक्ति द्वारा सत्ता पा जाने के पश्चात् उसमें भी आई तो उसके विरुद्ध भी। क्योंकि बहुधा ऐसा ही होता है। ऐसा करके हम समाज के वंचित और शोषित वर्गों का (भले ही वह स्त्री हो अथवा दलित) का अधिक भला कर सकेंगे और समाज के अधिक बड़े वर्ग को साथ जोड़ सकेंगे। 



सोमवार, 3 अक्टूबर 2011

‘एक औरत - तीन बटा चार’

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लेखिका सुधा अरोड़ा जी के जन्मदिवस पर विशेष 


औरत की ज़िंदगी का दुखद सच दर्ज करती कहानी :  ‘एक औरत - तीन बटा चार


औरत की पीड़ा और वेदना पर केंद्रित आज तक बहुत कहानियाँ मैंने पढीं, लेकिन यह एक ऐसी कहानी थी, जिसे पढ़ कर मेरे आँसू जो बहने शुरू हुए तो बहते ही रहे और अंत तक चेहरा आँसुओं से तर रहा. हाल ही में जून माह में बोधि प्रकाशन, जयपुर से प्रकाशित हिन्दी की शीर्षस्थ लेखिका ‘सुधा अरोड़ा’ का कहानी संग्रह ‘एक औरत - तीन बटा चार’ पढ़ा. यूँ तो इस संग्रह की सभी कहानियाँ जीवन के महत्वपूर्ण आयामों से जुडी हैं लेकिन जिस कहानी ने मुझे भीतर तक झकझोर दिया वह है : ‘एक औरत - तीन बटा चार’. इस कहानी ने जिस पुरजोर ढंग से मुझे अपनी गिरफ्त में लिया, उससे बाहर निकलने में मुझे पूरे पच्चीस दिन लगे. मेरी दृष्टि में यह इस संग्रह की सर्वश्रेष्ठ कहानी है. इस कहानी का शीर्षक ही नहीं अपितु शुरुआ़त भी बड़ी चुम्बकीय और जिज्ञासा जगाने वाली है -‘‘ तीस बरस पुराना एक घर था. वहाँ पचास बरस पुरानी एक औरत थी. उसके चेहरे पर घर जितनी ही पुरानी लकीरें थीं.’’



 इस कहानी में नायिका कहीं भी रोती बिसूरती नहीं;  लेकिन उसका दर्द, सिर से पाँव तक कतारबद्ध हुआ, उसके समूचे व्यक्तित्व से कतरा-कतरा रिसता है. उस एकाकी औरत का दर्द मेरे दिल में ऐसा घनीभूत हुआ कि मैं उससे न सिर्फ अभिभूत हुई बल्कि बड़े कष्ट में रही. ऐसे दर्द से सामना होने पर, उससे पहचान होने की वजह से , हम अनजाने ही उसे अपने में सोखते चले जाते हैं. यह शायद तादात्म्य होने की प्रक्रिया थी. ऐसा तभी घटता है जब हमारे अंदर सूक्ष्म अनुभूति को ग्रहण करने वाली पारदर्शिता और संवेदनशीलता हो. वह मेरे अंदर शायद कहीं खामोश पडी थी, जो इस कहानी को पढते ही सक्रिय हो उठी और लेखिका द्वारा सर्जित नायिका की एक-एक चिटकन, भटकन, बोझिल धडकन के साथ एकात्म होती गई. कहानी में नायिका को पढते हुए, ब्रिटिश लेखिका Jill Briscoe की यह उक्ति ‘The storms in my life have become workshops ’ मुझसे बार बार-बार टकराने लगी ! 

हर एक की ज़िंदगी के झंझावात उसे कुछ न कुछ सीख देते हैं. इस कहानी की नायिका तूफ़ान के बदले तूफ़ान उठाने के बजाय खामोश रहना सीख लेती है - घर को घर बनाए रखने की खातिर, लेकिन उसकी इस कुर्बानी के बावजूद भी, उसका घर सच्चे अर्थों में घर बना रहता है क्या ? जब घर को सहेज कर रखने वाली के दिल में न सुकून हो, न प्रफ्फुलता, उलटे भावनात्मक रुग्णता के चलते वह गहन खामोशी का शिकार बन गई हो, तो ऐसी कुर्बानी का क्या लाभ ? उस घर में सब साजो-सामान के होते हुए भी एक खालीपन अखरता है. सन्नाटे के साए तले वह घर, खुद-ब-खुद ऊँची-ऊँची दीवारों वाला एक मकान बन के रह जाता है. 



 यह महज़ एक इत्तेफाक है कि नायिका का कहानी में कोई नाम नहीं है. मेरे अनुसार, यह इत्तेफाक यानि उसका कोई नाम न होना, कहानी के शीर्षक से पूरी तरह तालमेल में जाता है, क्योकि जो औरतें पूरी तरह घरेलू हैं, सिर्फ पति से ही नहीं, घर की चारदीवारी से भी उनका विवाह हुआ होता है - उनके नाम होकर भी ‘नहीं’ के बराबर होते हैं , वे इस्तेमाल ही कहाँ होते है ? खासतौर से एक घरेलू नारी की पहचान उसके नाम से उतनी नहीं होती जितनी कि उस पर लदे रिश्तों से होती है...किसी की बेटी, किसी की पत्नी, किसी की माँ. इन रिश्तों के खोल में वह ऐसी समाती है कि अपनी पहचान, अपना नाम सब भूल जाती है. दूसरे भी उसे, उसके नाम से न पहचान कर पिता या पति के नाम से ही पहचानते हैं. इसलिए नायिका का नाम हो या ना हो फर्क ही क्या पडता है. ‘अनाम नायिका’ की कहानी होते हुए भी यह ‘ हर नाम ’ की कहानी है. वह ‘अनाम’ पात्र कहानी में पूरी तरह छाई हुई है. इस कहानी में नायिका अपने बेतरतीब, बिखरे व्यक्तित्व के कारण पाठक मन को बेइंतहा अजीबोगरीब ढंग से अपने से बाँधे रखती है. अपनी इस खूबी के कारण वह प्राणविहीन औरत कहानी का प्राण है, बिखरी होने पर भी केंद्रबिंदु है. अजीब-सा विरोधाभास है, लेकिन है बड़ा ख़ूबसूरत और चित्ताकर्षक ! कहानी की शुरुआत में दूसरे पैरा की ये पंक्तियाँ – ‘‘घर के साहब और बच्चों की उपस्थिति में भी उनका जहाँ-तहाँ फैला सामान उनकी बाकायदा उपस्थिति की कहानी कहता था.’’ हालाँकि ये पंक्तियाँ घर में सिर्फ बच्चों और पति के फैलाव की बात करती हैं , लेकिन इसके साथ-साथ एक शब्द मेरे ज़ेहन में उभरा कि उस फैलाव से घर में अकेले होने पर अधिक उलझती, उस फैलाव को अधिक बेडौलपन से महसूस करती - उस औरत का बिखराव घर में हावी था. आगे - 

"उस घर को ‘घर’ बनाती हुई, यहाँ से वहाँ घूमती वह एक खूबसूरत औरत थी’’ -

 कहानी की इस पंक्ति में प्रच्छन्न रूप से चलता, एक और भाव है कि वह औरत उस फैलाव के नीचे पसरे अपने स्थायी बिखरेपन को, मानो अधिक समेटना चाहती थी. उस मकां को अकेले अपनी जान लगा कर ‘घर’ बनाती हुई, इस कमरे से उस कमरे में भटकती हुई, एक ऐसी औरत थी जिसकी खूबसूरती, वीरानी से एकरस हो, उदासी बन सदा के लिए सरापा उसके व्यक्तित्व पर छप गई थी. 



 दिल तो अकेला होता अक्सर सुना है, किन्तु जब सबके होते हुए भी जीवन अकेला हो, तो उसकी वेदना की कोई सीमा नहीं होती. वह पीड़ा आकाश की तरह बिना ओर-छोर की होती है. ‘ आखिरी उंगली पर डस्टर लपेटे - हर कोने की धूल साफ़ करती हुई, हर चीज़ को करीने से रखती हुई ’ - उस एकाकी नारी की त्रासदी ही यही है कि घर की चीजों की धूल और साहब और बच्चों के कमरे का कचरा साफ़ करते-करते, वह उसे मानो अपने में समेटती जाती है.



‘ हर चीज़ को करीने से रखने वाली वह औरत,' अपने अंदर कुछ भी करीने से नहीं सहेज पाती. अपने लिए उसे फुर्सत ही नहीं है. ‘फिर रात को सबके चेहरे की तृप्त मुस्कान को अपने चेहरे पर लिहाफ की तरह ओढ़ कर सोती हुई ’ वह निरीह सबकी मुस्कान को अपने चेहरे पर पहन कर, उसके तले अपनी पीड़ा और मन के सन्नाटे के गुबार को छिपाती हुई, सच में, कितना सो पाती है यह तो वह ही जानती होगी. कहानी में आगे की पंक्तियाँ हांलाकि घर की चीजों की, लजीज़ खाने की, ख़ूबसूरत बर्तनों की बात करती हैं, किन्तु इन सबसे जुडी घर की सबसे ‘महत्वपूर्ण चीज़,' किन्तु घर के लोगों के लिए नितांत ‘महत्वहीन’ उस औरत के मन के भाव, उसके खामोशी से काम करते रहने के बावजूद भी, मेरे मन में इस तरह गुंजायमान होते रहे कि मैं कहानी से हट कर उस औरत के अंदर की कहानी, उसके मन के एकाकी दुःख को, भावनात्मक उजाड़पन को पढती रही. दर्द पीकर, खामोशी से, एक के बाद एक काम करती जाती, वह औरत एक भी आँसू नहीं टपकाती, लेकिन मैं उसकी खामोशी, असहज एकाकीपन से असहज हो नम आँखों से कहानी पढ़ती जाती थी - मानो मैं उससे रू-बरू थी और सामने बैठी उसे चलते-फिरते देख रही थी, उसके हर हाव-भाव से उजागर होती पीड़ा को महसूस रही थी. ‘‘इस दिनचर्या से समय निकालकर वह औरत बाहर भी जाती - बच्चों की किताबें लेने, साहब की पसंद की सब्जियाँ लेने, घर को ‘घर’ बनाये रखने का सामान लेने !’’ यूँ कोई पढ़े तो ये सामान्य पंक्तियाँ नज़र आएगीं लेकिन एक ओर मुझे इन शब्दों की पोर-पोर में बसी आकुलता ने विचलित किया तो दूसरी ओर ढेर वीरानियों के साथ जीती उस औरत के साहस ने भी प्रभावित किया कि पथरीले दर्द से टूटने और घर के किसी अकेले कोने में दुबक कर रोने के बजाय, वह घर को ‘घर’ बनाने में लगी रहती है. मानो किसी अदृश्य अनुशासन के तहत, वह अपने हिस्से का दर्द, अपने हिस्से की पीड़ा, खुशी से खाती-पीती है और इसी से यंत्र चालित-सी, कामों को करती जाती है ! उसने अपने को समझदारी और खूबसूरती से दो हिस्सों में बाँट लिया है. जब भी वह घर से बाहर जाती है, तो एक चौथाई हिस्सा घर में छोड़ जाती है, जो उसके लिए ‘सेफ्टी एलार्म’ का काम करता है. वह बाहर जाकर चाहे घर का सामान खरीद रही हो या सहेलियों के साथ चाय नाश्ता करती बैठी हो, घर में छोड़े गए, एक चौथाई हिस्से की आवाज़ सुन कर झटपट उठ खड़ी होती है. जैसे ही वह घर में कदम रखती है, वह एक चौथाई हिस्सा उसके तीन चौथाई से गले मिल, एक हो जाता है और उसे सुख-चैन से भर देता है. आजीवन यही सिलसिला कर्तव्यपरायण, भावुक और संवेदनशील औरतों के साथ चलता रहता है. घर लौट कर वह एकाकी औरत, स्कूल से आए बच्चों को बाँहों में भर कर, ताज़ा नाश्ता देकर, साहब का इंतज़ार करती है. यह पढ़ कर एब्राहम लिंकन की यह पंक्ति एकाएक मेरे मन में कौंधी और उस एकाकी औरत पर सही उतरती लगी -
 Lonely men seek companionship while lonely women sit at home and wait...! 

पति के आने पर, उसकी आवभगत कर, अपना जीवन जैसे सार्थक करती है. लेकिन जब इतना ख्याल-प्यार करने पर भी उसे रूखा-सूखा व्यवहार मिलता है, तब अंदर से कितना निरर्थक महसूस करती है...! अपने लक्ष्यहीन जीवन की त्रासदी उससे बेहतर कौन जानता होगा ? 



घर की खुशियों, पति की हिदायतों, बच्चों की फरमाइशों के वितान में उसे पता ही नहीं चलता कि उसके दो हिस्सों के बीच फासला कितना बढ़ गया हैं, क्योंकि हर दिन, हर रात उसका घर के लिए नियत हिस्सा (Cardiomegaly - हृदय रोग की तरह ) इस कदर फैलता जाता है कि वह उसके अपनी पहचान वाले तीन चौथाई हिस्से को ढाँप लेता है. अपनी बेजान, कंपकंपाती  पहचान को बनाए रखने की नाकामयाब कोशिश में, घबरा कर वह, दूसरों के लिए जीवंत रहने वाले, अपने एक चौथाई हिस्से को ओढ़ती जाती है. उसे पता ही नहीं चलता कि उसका तीन बटा चार हिस्सा कब एक चौथाई में लुप्त हो गया. इस नए रूप के चलते अब वह जब भी बाहर जाती है तो वह ‘वह’ नहीं होती - सिर्फ बच्चों की माँ होती या पति की आज्ञाकारी पत्नी होती या घर की ‘केयरटेकर’ होती है, जिसे बाहर निकलते ही घर लौटने की जल्दी सताने लगती है और तब तक वह बेचैन रहती है, जब तक घर नहीं लौट आती. इस मानसिकता से उसका अपना वजूद गुम होता जाता है. वह जान ही नहीं पाती - अपनी उस खोती हुई पहचान को. उसके इस पराए रूप को दख उसकी सहेलियाँ, नाते-रिश्तेदार खामोश रहते हैं, अनदेखा करते. घर लौटकर वह ‘अपने उसे एक चौथाई हिस्से को ढूँढती फिरती है’ - इस अभिव्यक्ति को पढकर मेरी आँखें छलछ्ला आई. यदि आपको कभी कोई, इस कमरे से उस कमरे में, रसोई से बालकनी में, इस तरह भटकता दिखे, तो समझ लें कि ‘आइडेंटिटी क्राइसिस’ है. वह महिला उखड़ी  हुई है और अपनी पहचान खोज रही है, जो उसे घर के किसी कोने में, न अलमारी में, न दराज़ में, कहीं भी नहीं मिल रही है. कहीं हो तो मिलेगी न ! क्योकि उसकी पहचान अन्य प्राणियों की पहचान तले दबी हुई है. औरत इसी तरह तो बँटी होती है. इसके अलावा भी उसके कई टुकड़े होते है. एक टुकड़ा बच्चों के लिए सक्रिय होता है, तो एक हिस्सा पति को समर्पित रहता है, तो एक टुकड़ा सास-ससुर की सेवा पर तैनात रहता है.जब कभी मेहमान, नाते-रिश्तेदार रहने आते हैं, तो इन टुकड़ों में से किसी तरह वह अपना एक और टुकड़ा करती है और उसे उन मेहमानों की सेवा में लगा देती है. यूँ टुकड़ों में बँटी वह जीने की आदी हो जाती है .... अपने अस्तित्व से कोसों दूर चली जाती है फिर भी उफ़ तक नहीं करती. 


सबसे अधिक कष्ट की बात यह है कि उसका ज़रूरत के अनुसार इस तरह टुकड़े-टुकड़े होना उसकी जानकारी के दायरे में घटता रहता है फिर भी वह बिफरती नहीं. किसी को उसके इस तरह टुकड़े-टुकड़े होने की भनक नहीं पडती.जब-जब वह चिटकती है, टूटती है, बिखरती है, तो उसके आसपास रहने वाले अपनों को उसके चिटकने, टूटने की न तो आवाज़ सुनाई देती है और न उसमे पड़ती दरारें दिखाई देती हैं. इस पर भी, वह टूट कर अपने आप को जोड़ने की कोशिश करने में लगी रहती है. कितना मुश्किल होता है ऐसे टूटने को अंदर ही अंदर जोड़ना, अपने को ‘वनपीस’ बनाए रखना. कितना भी जगह-जगह से अपने को तरह-तरह की झूठी तसल्ली से जोड़े, दरारे तो रह ही जाती हैं जिनसे पीड़ा धृष्टता से निकल कर - कभी उसके चेहरे पर मुर्दनगी बन कर सिमट जाती है, तो कभी आँखों में नमी बन कर तैर जाती है, फिर भी घर के लोग उसे देख नहीं पाते. वह माँ, बहू, पत्नी के धागों से कठपुतली की तरह बंधी - उन धागों के चलाने वालों के इशारे पर नाचती, सबको सुबह से लेकर रात तक खुशी की चमक से भरती है. जैसे ही घर के सूत्रधार रात के निस्तब्ध अंधेरे में सो जाते हैं, वह भी निश्चेष्ट कठपुतली बन जाती है.



 वह औरत घर की चीजों से टकराते हुए, बदहवास सी होकर अक्सर, अपने एक चौथाई हिस्से को इधर-उधर बेताबी से खोजती है, जो इतना ढीला हो गया है, इतना छीज गया है कि उसे पहचानने में समय लगता है. वह एक चौथाई हिस्सा कभी प्लास्टिक के फूलों में, तो कभी घर के ओने-कोने में मिलता है. घर की औरत का घर के लिए नियत हिस्से को यों इधर-उधर ढूँढना - मेरे दिल को बार-बार बोझिल बनाने को काफी था. वह अक्सर ही अपने तीन चौथाई हिस्से को अपने में समेटे, एक चौथाई हिस्से को इधर-उधर खोजती फिरती है - बौराई-सी, व्याकुल-सी, कमरों में, लान में....कभी वह उसे गेंदे की क्यारी के किनारे, ईंटों की तिकोनी बाड़ पर लुढ़का हुआ मिलता है, तो कभी जूतों के बीच धूल मिट्टी खाता मिलता है. वह उसे झाड़ पोंछ कर, सबकी नज़रों से बचाती, अपने दुपट्टे में छिपाती, साथ लिए चलती है. बड़े हो गए बच्चे सामने पड़ जाते हैं तो उसे कुछ छिपाते देख पूछ बैठते है – ‘‘यह तुमने पल्लू में क्या छिपा रखा है ?’’ अपने मरे गिरे, बेजान से ‘एक बटा चार हिस्से’ को, बेचारगी से भरी पहचान को, अपनों से ही छिपाने का दर्द कितना असहनीय हो सकता है, उसे या तो झेलने वाला जान सकता है या उस दर्द से गुज़रा व्यक्ति जान सकता है. बच्चों के पूछने पर वह और अधिक सतर्कता से उसे ढक लेती है और हकबकाई-सी कहती है – ‘’कहाँ कुछ भी तो नहीं....’’ उस तीन बटा चार औरत के इन शब्दों की लाचारगी पर किसका दिल न भर आएगा ? कभी-कभी वह प्यार से उमड़ कर सबके द्वारा अनदेखे, उस एक बटा चार हिस्से के बारे में बड़े हो गए बच्चों से बात करने का साहस जुटाती है तो इतनी ही देर में कि वह कुछ बोल पाती, जीवन की रफ्तार में दौड़ते-भागते बच्चे – ‘ओ.के , समथिंग पर्सनल..’ कह कर आगे बढ़ लेते है. वह फिर वैसी ही अपने भोथरे हिस्से को जिसमें उसके दिल की कुछ धडकनें, कुछ संवेदनाएँ, कुछ निहायत ही कोमल भावनाएँ भी जहाँ-तहाँ चिपकी हुई हैं, पल्लू में छिपाए सन्न-सी खड़ी रह जाती है. न जाने कितनी बार इन भावनात्मक चोटों से गुज़रती है वह. किन्तु अब ये सब चोटें उसका अपना अंश बन चुकी हैं. 


केनेडियन लेखिका ‘सबरीना वार्ड हैरीसन’ ने कहा है -
“What we don't let out, traps us…… So we don't say anything. And we become enveloped by a deep loneliness.

उपेक्षा से उपजे दर्द को बाहर उगलने के बजाय खामोशी से झेलना, अपने जीवन में वीरानियों को दावत देना है. ठीक यही इस कहानी में, दो हिस्सों में बँटी औरत के साथ घट रहा है. मन की बात किसी से बाँटती ही नहीं, बाँट लेने से शायद वह खुद तो न बँटती. कभी वह साहस जुटाती भी है अपनी बात कहने का तो, कह नहीं पाती और दूसरों के पास इतना समय नहीं कि दो घड़ी फुर्सत के निकाल कर उससे कुछ पूछे, उसकी सुनें और इस तरह अपनों से उपेक्षित वह, ‘अकेलेपन’ की परतों में लिपटती जाती है. 



घर में फर्नीचर के वार्निश का बेरौनक होना, पौधे का मुरझाना, सोफे की गद्दियों की सीवनों का उधड़ना, दरवाजो, खिड़कियों के काँचों का धुंधलाना, तस्वीरों के फीके पड़े रंग - ये सब तो उसे नज़र आते है किन्तु इन सबके साथ, उसका अपना एक चौथाई और तीन बटा चार हिस्सा जो दिन-पर-दिन धुंधलाता जा रहा है, वह उस पर कभी ध्यान ही नहीं देती. देती भी है तो अनदेखा करती देती है. चीजों के फीकेपन और उधड़ेपन में वह अपना फीका और उधड़ा अस्तित्व भूल जाती है. अपने अस्त-व्यस्त बेरौनक अस्तित्व की सिलवटों, झोल को सम्हाले वह एक धुंधली उम्मीद के साथ रोज साहब का इंतज़ार करती है कि शायद आज उसे इस तरह उखड़ा, उधड़ा देख कर, वे उसके बिगड़े अनुपात के बारे में कुछ पूछें, लेकिन साहब या तो दो मेहमानों के साथ घर आते हैं - मेहमानों के आने की सूचना देना भी गँवारा नहीं करते, या कभी -कभी होटल में ही खाकर देर गए लौटते हैं. फिर किसी फ़ाइल में उलझ कर घर में होने पर भी नहीं होते. इस तरह रात उतर आती है, सब चैन और सुकून से सो जाते हैं और वह अपने हिस्से में सदा के लिए आई बेचैनी से गले लग कर, उस ढीले हिस्से को थपक-थपक कर सुला देती है. कैसा अकेला, वीरान जीवन है उसका...! उसकी यह स्थिति पाठक के मन में गहरी निराशा और अवसाद को जन्म देने के साथ-साथ, उसे मिटाने का एक आक्रोश भी देती है. 



इस अवसाद के तहत कहानी की नायिका कई बार मटमैले लगने वाले उस ‘अपने’ घर से कहीं दूर चली जाना चाहती है लेकिन इससे पहले कि वह पलायन करती, एक दिन साहब तेज़ दर्द से कहराने लगते हैं. जांच-पडताल के बाद हकीम, वैद्य बताते हैं कि लगातार वर्षों से बाईं ओर झुक कर काम करने की आदत के कारण, साहब की गर्दन और पीठ की शिराओं में संकुचन हो गया है, इसलिए दवाओं के बाद भी मर्ज़ लाइलाज है. किन्तु उनकी पत्नी कहलाई जाने वाली, वह अस्तित्वहीन औरत उनकी उस विवश घड़ी में उनका ऐसा मज़बूत सहारा बनती है कि उसके द्वारा की जाने वाली सेवा से वे ठीक होने लगते हैं. चलने के लिए एडजस्टेबल छडी मंगाई जाती है, लेकिन कमज़ोर बाँए हिस्से के लिए वह छड़ी व्यर्थ सिद्ध होती है और दो हिस्सों में बँटी हुई निरर्थक वजूद लिए जीती वह औरत उनका सार्थक और स्थायी सहारा बन जाती है. साहब की ज़रूरत को देखते हुए उसका तीन चौथाई हिस्सा जो उसका अपना था, उसकी पहचान था, वह साहब को समर्पित हो जाता है. लेकिन इस घटना से एक बात औरत के पक्ष में जाती है; साहब के स्वस्थ होने के साथ-साथ औरत का निष्क्रिय, बेजान हिस्सा भी सक्रिय और स्वस्थ होने लगता है. हमेशा के लिए साहब के पार्श्व में उसकी जगह ‘सहारे’ के रूप में स्थायी होने के कारण शायद उसे अपनी एक पहचान मिल गई थी. हालात से विवश साहब द्वारा उनके पार्श्व में अपने लिए जगह पाकर वह सुख और सुकून महसूस करती है. वह साहब के निकट संपर्क में रहने की खुशी का 'कारण' नज़रंदाज़ कर सिर्फ उनके पास बने रहने, उनको सहारा देने में अपने तीन बटा चार हिस्से के अस्तित्व की सार्थकता देखती है इसलिए ही उसका वह तीन चौथाई हिस्सा बड़ा खुश और सेहतमंद होने लगता है. इस सकारात्मक बिंदु पर कहानी अंत हो जाती है उस उपेक्षित, एकाकी औरत के जीवन में गुनगुने उजाले की कुछ उम्मीद बंधा कर.



निसंदेह यह एक कालजयी कहानी है, जो हर युग, हर काल - अतीत, वर्त्तमान और भविष्य के नारी व्यक्तित्व को किंचित परिवर्तन के साथ परिभाषित करती है और करती रहेगी. वे नारियाँ मेरी बात से ज़रा भी असहमत न होएँ जो घर से बाहर काम पर या मस्त होकर, अपनी मर्जी से घूमने जाती हैं - बड़े साहस से घर-परिवार की आवाजों से परे - अपने को ये ‘ऑटो सजेशन्स’ देती हुई - ‘‘वे भी तो इंसान हैं, उन्हें भी अपनी ज़िंदगी जीने का कुछ तो हक है.’’ यदि वे भी अन्तस्तल को टटोलेगीं तो पायेगी कि ऊपर की बलात् कठोर बनाई गई परतों के नीचे घर-परिवार व बच्चों की चिंता से त्रस्त और ध्वस्त परतें ही है. बाहर रहते हुए भी बीच-बीच में न जाने कितनी बार पति का, बच्चों का ख्याल उनके मन में उठता है. वे चाह कर भी कुछ घंटों, कुछ दिनों के लिए कहाँ अपने को अलग कर पाती हैं ? कुछ दिनों के लिए दूर होकर भी उनके अस्तित्व में समाई रहती हैं, इतना ही नहीं, अगर घर के लोग उदारता से उन्हें घूमने फिरने का मौक़ा भी दें तो वे और सघनता से घर-परिवार की ओर पलट जाती हैं. समस्या तो वे खुद हैं अपने लिए. उनकी भावुकता और ममता उन्हें ले डूबती है. 



कहानी यद्यपि बँटी-बिखरी औरत से शुरू होती है और उसी पर अंत, लेकिन कहानी की खासियत यह है कि वह अपनी मुख्य पात्र की तरह न कहीं बंटी हुई , न कहीं बिखरी हुई, बड़ी ही सुगठित और कसावट के साथ बुनी हुई - एक उत्कृष्ट कहानी बन पडी है ! किसी भी बिंदु , किसी भी रेखा पर कहानी भटकती नहीं बल्कि रवानगी से भरी हुई, पाठक मन पर अपनी अमिट छाप छोडती है. अनूठी अंतर्दृष्टि को संजोती, औरत से जुडी ज़मीनी सच्चाईयों को उजागर करती इस भावप्रवण कहानी के लिए सुधा जी की जितनी भी सराहना की जाए कम है.
- दीप्ति गुप्ता  

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Update 

वंदना जी की टिप्पणी के पश्चात् सुधा जी की कहानी का लिंक जोड़ना आवश्यक लगा। अच्छा हो कि यों तो पुस्तक ही पढ़ी जाए किन्तु जब तक वह संभव न हो तब तक इस कहानी को यहाँ पढ़ा जा सकता है -



- कविता वाचक्नवी




शनिवार, 1 अक्टूबर 2011

कम से कम एक दरवाज़ा

10 टिप्पणियाँ





कम से कम एक दरवाज़ा 
                - सुधा अरोड़ा 







चाहे नक्काशीदार एंटीक दरवाजा हो

या लकड़ी के चिरे हुए फट्टों से बना ,

उस पर ख़ूबसूरत हैंडल जड़ा हो

या लोहे का कुंडा !



वह दरवाज़ा ऐसे घर का हो

जहाँ माँ बाप की रजामंदी के बगैर

अपने प्रेमी के साथ भागी हुई बेटी से

माता पिता कह सकें --

'' जानते हैं, तुमने गलत फैसला लिया

फिर भी हमारी यही दुआ है

खुश रहो उसके साथ

जिसे तुमने वरा है !

यह मत भूलना

कभी यह फैसला भारी पड़े

और पाँव लौटने को मुड़ें

तो यह दरवाज़ा खुला है तुम्हारे लिए ! ''

बेटियों को जब सारी दिशाएँ

बंद नज़र आएँ

कम से कम एक दरवाज़ा

हमेशा खुला रहे उनके लिए !

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