बुधवार, 5 अक्तूबर 2011

तुलसी की स्त्रीनिंदा (?) और स्त्रीविमर्श का ध्येय


तुलसी की स्त्रीनिंदा (?) और स्त्रीविमर्श का ध्येय 

- (डॉ.)कविता वाचक्नवी






कवि तुलसीदास के प्रसंग में उनके स्त्री विषयक कुछ कथनों पर आपत्ति / या प्रश्न-प्रसंग बार बार कई लोग उठाते हैं। आज एक लेख पर प्रतिक्रिया करते हुए किसी ने पुनः यह विषय उठाया तो मैं स्वयं को रोक नहीं पाई। 


ऐसे प्रसंगों में एक बात यह भी ध्यान रखने की है कि भक्तिकाल अथवा सन्यासी आदि की नीति इन प्रसंगों में भिन्न होनी स्वाभाविक है। वह सामान्य व्यक्ति की स्त्री विषयक अवधारणा या दृष्टिकोण का पता नहीं देती अपितु एक संस्कार- विशेष अथवा नीति-विशेष वाले व्यक्ति के दृष्टिकोण का पता देती है । 



दूसरी बात, मेरी जानकारी के अनुसार किसी भी लेखक के लेखन में पात्र भिन्न भिन्न होते हैं, जो खल/दुर्जन और सज्जन इत्यादि विविध सामाजिक कोटियों के ही होते हैं। अब यदि किसी खल पात्र की भूमिका को लेखक लिखेगा तो क्या लिखेगा ? जैसे रावण के संवाद लिखेगा तो लेखक ही; और सज्जन के भी लिखेगा तो लेखक ही। इन सज्जन और दुर्जन पात्रों के संवादो या कथनों को लेखक के निजी विचार मानना कितना न्याय संगत है? 



इसलिए आवश्यक होता है कि किसी भी कथन के प्रसंग, परिप्रेक्ष्य, संदर्भ, समय, तत्कालीनता, अवसर, इत्यादि ढेरों चीजों के साथ जोड़ कर देखना। तभी हम लेखक के साथ न्याय कर सकते हैं। यह भी ध्यान रखना होगा कि जो कथन किसी व्यक्तिविशेष के लिए कहा गया हो, वही समस्त वर्ग के लिए सही नहीं हो सकता। जैसे शूर्पनखा के व्यवहार से स्त्री की जो छवि बनती है उस पर टिप्पणी करते हुए कही गई बातें समस्त स्त्री जगत पर लागू नहीं हो सकतीं। 



अच्छे व बुरे सदा व हर स्थान, हर वर्ग/समुदाय में होते है। जैसे, ऐसा नहीं है कि स्त्री सदा गलत/बुरी व पुरुष सदा सही/अच्छा हो और स्त्री सदा सही/अच्छी व पुरुष सदा गलत/ बुरा हो। ऐसा भी होता है कि एक ही व्यक्ति अलग अलग भूमिका में अलग अलग प्रकार का हो जाता है। जैसे पिता या पुत्र या भाई के रूप में अच्छा व्यक्ति आवश्यक नहीं कि अच्छा पति भी हो; अथवा ठीक इस से उलटा कि कि माँ, बहन और बेटी के रूप में स्त्री बहुत अच्छी हो किन्तु सास के रूप में कर्कश। 



मानव-निर्माण की यह प्रक्रिया संस्कार, परिवेश, समय और परिस्थिति और प्रसंग सापेक्ष होती है। अतः लड़ाई किसी व्यक्ति-विशेष अथवा वर्ग - विशेष के विरुद्ध होने की अपेक्षा प्रवृत्ति के विरुद्ध होनी चाहिए। पुरुष के विरुद्ध होने की अपेक्षा उसकी सामंतवादी और सत्तात्मकता के विरुद्ध होनी चाहिए। यह सत्तात्मकता यदि वंचित व्यक्ति द्वारा सत्ता पा जाने के पश्चात् उसमें भी आई तो उसके विरुद्ध भी। क्योंकि बहुधा ऐसा ही होता है। ऐसा करके हम समाज के वंचित और शोषित वर्गों का (भले ही वह स्त्री हो अथवा दलित) का अधिक भला कर सकेंगे और समाज के अधिक बड़े वर्ग को साथ जोड़ सकेंगे। 



22 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अपर्याप्त लेख -विषय प्रवर्तन तक अधूरा सा लगा ...यह एक गंभीर और विस्तृत विवेचन का विषय हो सकता था .मात्र कतिपय सामान्य सी बातें कहकर (लेखकीय ) उत्तरदायित्व की इति श्री सी कर दी गयी है...तुलसी ही नहीं विश्व वांगमय में नामचीन साहित्यकारों ने अधिकाँश नारी पात्रों के बुद्धि आचरण पर टिप्पणियाँ की हैं ...तुलसी तो इसमें सबसे ..बढे चढ़े हैं ..अवगुण आठ सदा उर रहहीं ...अरण्यकाण्ड में नारद के इस प्रश्न 'जब विवाह मैं चाहऊँ कीन्हा केहिं कारण प्रभु करहिं न दीन्हा 'के जवाब में स्वयं भगवान् राम ने नारी भर्त्सना की जो कमान संभाली है वह ऑंखें खोलने वाली है -लेखिका ने यदि इंगित संदर्भ का पारायण नहीं किया है तो उन्हें इसके पारायण की सिफारिश की जाती है और तदुपरांत सम्यक विवेचन का सुझाव !

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  2. post lekhak pratham pratikriya ke nihitarth samjhne ki prayas karengi.......kyonki vimarsh ke sandarbh
    'tulsi' hain.....

    pranam.

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  3. आपका टिप्पणी बक्सा बड़ा जालिम है। जो टिपियाता है उसके नाम का सिरा उड़ा देता है। :)

    जैसे अधिकतर सरकारी अफ़सरों के लिये कहा गया है कि वो जहां निकल जाता है वहीं उसका दौरा हो जाता है। वैसे ही आदर्श पात्र किसी परिस्थिति में जो कुछ भी कर देते हैं वही उसका उस समय का आदर्श हो जाता है। किसी घटना विशेष के संदर्भ में कही बात को लोग अपने युवावस्था में अर्जित गणितीय ज्ञान का समाकलित कर के सारे परिवेश के लिये सही बताकर अपनी धारणा को पुष्ट करते हैं।

    जैसा अरविन्द जी ने नारद जी के मसले में बताया तो इस बात को पूरे संदर्भ में देखा जाये तो देखिये क्या सीन बनता है:

    एक तरह से देखा जाये तो भगवान जी ने नारद जी को मामू बनाया है। पहले नारद जी धांस के तपस्या की। फ़िर कामदेव उनको जीत नहीं पाया। इससे उनके मन में अहंकार आया। उन्होंने अपने कामदेव को पराजित करने की गाथा भगवान को (शिव जी के मना करने के बावजूद) सुनाई। इस पर भगवान जी ने उनकी मौज ली। उनको बन्दर बनाकर मायाजनित स्वयंवर में अकुलाने के लिये विवश किया कि राजकुमारी उनका वरण करे। पुनि-पुनि मुनि अकुसहिं अकुलाहीं। देखि दशा हरि गन मुस्काहीं॥


    इसके बाद जब नारद जी ने भगवान को वो दिया जो श्रृषियों-मुनियों का हथियार है जिसे लोग श्राप के नाम से जानते हैं।

    अरण्यकांड में फ़िर नारद जी ने अपने साथ किये व्यवहार का कारण पूछा तो भगवान जी ने उनको अपनी बात जस्टीफ़ाई करने के लिये नारी के बारे में नकारात्मक बातें कहीं। ताकि वे नारद जी को बहला सकें कि उनके साथ ऐसा इसलिये किया गया क्योंकि वे उनको परम प्रिय हैं। देव्ता लोग पाप-पुण्य, भला-बुरा जो भी करते हैं वो अपने भक्तों के कल्याण के लिये करते हैं।

    वैसे शायद भगवान जी ने नारी के बारे में इसलिये भी ऐसा कहा होगा ताकि कलयुग में उनके भक्त उनके कहे का अपने हिसाब से प्रयोग करते हुये नारी के बारे में अपनी धारणाओं को बेखटके सही समझ सकें कि जब भगवान ने ऐसा कहा है तो भाई उसको तो हमें सही मानना ही है।

    वैसे उन्हीं भगवान ने यह बालि वध को सही ठहराने के लिये जो तर्क दिया है उसमें भी उनकी स्त्री के बारे में कुछ धारणा है। बालि मरते समय राम से पूछते हैं:
    मैं बैरी सुग्रीव पियारा। कारन कवन नाथ मोहि मारा॥
    राम जी उनको समझाइस देते हैं:
    अनुज वधू भगिनी सुत नारी। सुनु सठ कन्या सम ए चारी॥
    इनहिं कुदृष्टि बिलोकइ जोई। ताहिं बधे कछु पाप न होई॥

    इसका विस्तार किया जाये तो हर स्त्री किसी न किसी की अनुज बधु, भगिनी या सुत नारी होती है। इस तरह किसी भी स्त्री को बुरी नजर से देखने वाले का अगर कोई वध करता है तो उसको पाप नहीं लगता है।

    अंतत: बात वहीं पर आकर ठहरती है:
    इसलिए आवश्यक होता है कि किसी भी कथन के प्रसंग, परिप्रेक्ष्य, संदर्भ, समय, तत्कालीनता, अवसर, इत्यादि ढेरों चीजों के साथ जोड़ कर देखना। तभी हम लेखक के साथ न्याय कर सकते हैं।


    बहुत पढ़ाई हो गयी आपकी पोस्ट और अरविंद जी की टिप्पणी के चक्कर में आज। बोल सियावररामचन्द्र की जय।

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  4. देश , काल , प्रसंग और परिस्थितियाँ ही किसी भी बात के लिये मायने रखती है और उस संदर्भ मे देखना और उन्हे समझना बहुत जरूरी होता है तभी कोई निष्कर्ष निकाला जा सकता है। आपका आलेख तर्कसंगत है।

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  5. @ अरविंद मिश्रा जी, अनूप जी ने प्रसंग को व्याख्यायित कर ही दिया है; सो मेरे अधिक कहने से क्या !

    @ संजय झा जी, सब स्पष्ट लिखा ही है।

    @ अनूप जी, अतिशय धन्यवाद कि आपने प्रसंग का समाधान कर दिया। मुझे लगता है कि लाइसेन्स लेने के लिए जैसे व्यक्ति सौ तामझाम, तीन पाँच करता है तैसे ही इस प्रकरण में स्त्री को भोग्या बनाए रखते हुए उसे प्रताड़ित व कमतर सिद्ध करने का लाईसेंस लेने के लिए लोग तुलसी सहित जाने किस किस के संदर्भों के साथ तीन पाँच और तरह तरह के ताम - झाम रचते हैं लोग। यह सब असल में लाईसेंस लेने की जद्दोजहद है।
    आपको सुबह सुबह पढ़ाई का अवसर देने के लिए धन्यवाद होना चाहिए ! :)

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  6. Mahesh Dube जी लिखते हैं -

    Bahut sargarbhit our sateek vivechan hai....

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  7. Anil Shastri Sharad जी ने संदेश लिखा है -

    स्त्री विमर्श व इस विषय में लेखन पर बहुत सुन्दर विवेचना प्रस्तुत की है आपने । आप बधाई की पात्र हैं।

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  8. कोलकाता से Rajendra Nath Tripathi जी की प्रतिक्रिया -

    कविता जी, अच्छा लगा। आपका दृष्टिकोण तर्क संगत है।शास्त्री जी ने इस पर विस्तार से चर्चा की थी। वैसे डॉ.गोपीनाथ तिवारी ने इस पर एक बहुत अच्छा निबन्ध लिखा है।कृपया उसे देखें।वह निबन्ध मेरे पास है। कोशिस करूँगा कि उसे यहाँ दे सकूँ।

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  9. Rakesh Narayan Dwivedi ने लिखा -

    tadna ka arth pahchanna bhi hota hai aur bahut se log isee arth se is choupai ka arth lagate hain.'

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  10. फुरसतिया जी का संदेश -

    आपकी बात से सहमत! स्व.आचार्य विष्णु कान्त शास्त्री जी ने अपने एक व्याख्यान बहुत अच्छी तरह से यह बात कही थी। उन्होंने कहा : श्रेष्ठ रचनाकार अपने अनुकरणीय आदर्शों की स्थापना अपने आदर्श पात्र से करवाता है। अनुकरणीय आदर्श ,कथन अपने श्रेष्ठ पात्र के मुंह से कहलवाता है। http://hindini.com/fursatiya/archives/63

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  11. Sanjiv Nigam जी से प्राप्त उनकी राय है -

    जब लोग तुलसीदास के लेखन की बात करते हैं तब ये भूल जाते हैं कि तुलसी के आदर्श कौन थे या तुलसी ने किन्हें आदर्श बना कर प्रस्तुत किया? जिन तुलसीदास पर नारी विरोधी होने के आरोप लागाये जाते हैं उनके बारे में लोग ये भूल जाते हैं कि तुलसी के वो दो - तीन उद्धरण किन परिस्थितियों और किन पात्रों द्वारा कहे गए हैं. तुलसी ने स्त्री के सर्वश्रेष्ठ रूप में सीता का आदर्श प्रस्तुत किया है, क्या वह गलत है ? क्या उसे देख कर हम कह सकते हैं कि तुलसी नारी विरोधी थे? इसी प्रकार की भूल लोग तुलसी को निम्न जाति के लोगों का विरोधी बता कर करते हैं. तुलसी के आराध्य ने निषाद राज को गले लगाया, शबरी के झूठे बेर खाए. फिर भी तुलसी पर आरोप जड़े जाते हैं.

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  12. यदि तुलसी के स्त्री विमर्श को समझना है तो खंड-खंड दृष्टियाँ काम न आएँगी.

    सही ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य भी आवश्यक है.
    और तुलसी को भी तो अंतर्विरोध की स्वतंत्रता देनी होगी.

    विमर्श हमें अपने अपने पाठ रचने की छूट देता है और टिप्पणीकारों ने उसका लाभ भी लिया है. तो यह लाभ कवि को क्यों नहीं मिलना चाहिए.

    स्त्री भी मानव प्राणी है और उसमें भी तमाम तरह के गुण-दोष हैं, संदर्भानुसार ही कवि टिप्पणी करता है जिसमें स्तुति भी हो सकती है और निंदा भी. जो टिप्पणियाँ समाज के अनुभवों पर खरी उतरती हैं वे सूक्ति बन जाती हैं. अब क्या कीजे कि समाज ही पुरुषवर्चस्वमय है और केवल उन उक्तियों को सूक्ति बनाता है जिनसे स्त्रियों को नीचा दिखा सके. वरना तुलसी और कबीर जैसे नारी को संपूर्णता में सिरजने वाले रचनाकार विरले ही मिलेंगे.

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  13. @अनूप जी और डॉ. कविता वाचक्कनवी
    किसी भी विमर्श की भागीदारी में अकादमीय ईमानदारी जरुरी है ...
    आपने बालि प्रसंग से जुड़े राम के कथन को तो अपनी सर्वज्ञात नारी सहिष्णुता के अधीन उद्धृत कर दिया...और वह अपने अर्थबोध के लिहाज से कतई गलत भी नहीं है मगर संदर्भ से कटा हुआ है -वह पुरुषों के लिए है -बात यहाँ नारी निंदा की चल रही थी ..आप की बैसाखी पाकर पोस्ट लेखिका जो एक स्वयं एक विदुषी हैं समस्या का तात्कालिक निपटान देख हर्षित हो गयीं ....
    तुलसी ने सीधे श्री(राम)मुख से यह सब कहलावाया नारी के बारे में ....मैंने अभी तक अपनी कोई निष्पत्ति नहीं दी है बस उद्धरण दे रहा हूँ -यह विषय मेरे विचाराधीन सूची में है -क्वचिद...पर आएगा ही देर सवेर ....
    यह प्रश्न था नारद का -
    तब बिबाह मैं चाहउँ कीन्हा। प्रभु केहि कारन करै न दीन्हा॥
    जवाब :

    दोहा- काम क्रोध लोभादि मद प्रबल मोह कै धारि।
    तिन्ह महँ अति दारुन दुखद मायारूपी नारि॥४३॥

    सुनि मुनि कह पुरान श्रुति संता। मोह बिपिन कहुँ नारि बसंता॥
    जप तप नेम जलाश्रय झारी। होइ ग्रीषम सोषइ सब नारी॥
    काम क्रोध मद मत्सर भेका। इन्हहि हरषप्रद बरषा एका॥
    दुर्बासना कुमुद समुदाई। तिन्ह कहँ सरद सदा सुखदाई॥
    धर्म सकल सरसीरुह बृंदा। होइ हिम तिन्हहि दहइ सुख मंदा॥
    पुनि ममता जवास बहुताई। पलुहइ नारि सिसिर रितु पाई॥
    पाप उलूक निकर सुखकारी। नारि निबिड़ रजनी अँधिआरी॥
    बुधि बल सील सत्य सब मीना। बनसी सम त्रिय कहहिं प्रबीना॥

    दोहा- अवगुन मूल सूलप्रद प्रमदा सब दुख खानि।
    ताते कीन्ह निवारन मुनि मैं यह जियँ जानि॥४४॥

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  14. इतनी अच्छी चर्चा खुद इस बात का प्रमाण है कि लेखिका ने सफ़लता पाई है इस लेखन से:) छोटा किंतु सारगर्भित लेख॥

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  15. @ अरविंदजी,
    आप फ़िर हमको सुनवायेंगे कि लिये ’रामायण’ जुटे हो सबेरे से। :)

    ये जो अरण्यकांड के उद्धरण आपने बताये वो हमने कल ही पढ़े थे। मैंने कल ही अर्ज किया था कि ये सारी समझाइस राम जी ने नारद जी को दी थी। नारद मुनि थे। मुनि अगर नारी/माया के प्रति आकर्षित तब तो गया मामला हाथ से। इस लिये उन्होंने मुनि नारद को समझाया कि वत्स तू इस झमेले में न पड़। इसई लिये उन्होंने स्त्री के लिये धांस के नकारात्मक बातें लिखीं। इससे स्त्री विरोधियों की बांछें( बकौल श्रीलाल शुक्ल- वे जहां कहीं भी होती हों) खिली रहती हैं और वे दे देनादन उन उद्धरणों को पटकते रहते हैं अपनी धारणाओं के समर्थन में।

    तुलसी जी के अपने जीवन के पारिवारिक/गृहस्थ अनुभव भी (जैसा पता है हमको) अच्छे नहीं थे। शायद इसलिये भी उन्होंने काम/वासना को बहुत गर्हित रूप प्रकट किया होगा।

    वे ऋषि/मुनियों के लिये काम-कंट्रोल कितना आवश्यक मानते थे यह इस चौपाई से पता चलता है:
    मदन अंध ब्याकुल सब लोका। निसिदिनुनहिं अवलोकहिं कोका॥
    देव दनुज नर किन्नर व्याला।प्रेत पिसाच भूत बेताला॥

    (सब लोग कामान्ध होकर व्याकुल हो गये। चकवा-चकई रात-दिन नहीं देखते। देव, दैत्य, मनुष्य, किन्नर, सर्प,प्रेत, पिसाच, भूत-बेताल...)
    इन्ह कै दसा न कहेहुं बखानी। सदा काम के चेरे जानी॥
    सिद्ध बिरक्त महामुनि जोगी। तेपि कामबस भये बियोगी॥

    (ये तो (ऊपर वाले लोग) सदा ही काम के गुलाम हैं, यह समझकर मैंने इनकी दशा का वर्णन नहीं किया। सिद्ध, विरक्त, महामुनि और महान योगी भी काम के वश होकर योग रहित या स्त्री के विरही हो गये हैं)

    इससे लगता है कि तुलसी जी के मन में योगियों/मुनियों के लिये कोड आफ़ कन्डक्ट ज्यादा कड़ा था। कुछ इस तरह से कि आज भी अपने समाज में किसी भी और विभाग का अनुशासन और फ़ौज का अनुशासन अलग है। अन्य विभागों में हड़ताल के बाद सब कुछ सामान्य हो जाता है लेकिन फ़ौज में हड़ताल का मतलब अनुशासनहीनता होता है। कोर्टमार्शल होता है।

    .......अगले कमेंट में जारी

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  16. ....पिछ्ले कमेंट से आगे

    अरण्यकांड के जो उद्धरण आपने दिये वे एक मुनि को आज से पांच-छह सौ साल पहले की सामाजिक मान्यताओं के लिहाज से दिये गये उपदेश और समझाइस हैं। वे सारे समाज पर लागू नहीं किये जा सकते।(हम तो ऋषियों/मुनियों पर भी लागू करने के खिलाफ़ हैं)

    ऋषियों/मुनियों के लिये बरजने वाले स्त्री संबंधी उद्दरण देखने की बजाय गृहस्थ लोगों के लिये रचे चित्र क्यों न देखे जायें। राम-सीता की पहली मुलाकात देखिये:
    कंकन किंकिन नुपुर धुनि सुनि। कहत लखन सम रामु हृदयँ गुनि॥
    मानहुं मदन दुंदभी दीन्ही। मनसा बिस्व विजय कहँ कीन्ही॥

    (हाथ के कंगन, करधनी और पायल के शब्द सुनकर श्रीराम हृदय में विचार कर कहते हैं यह ध्वनि ऐसी आ रही है मानो कामदेव ने विश्व को जीतने का संकल्प करके डंके पर चोट मारी है)
    अस कहि फ़िरि चितए तेहि ओरा। सिय मुख ससि भए नयन चकोरा॥
    भए विलोचन चारु अचंचल। मनहुं सकुचि निमि तजे दिगंचल॥

    (ऐसा कहकर श्रीरामजी ने फ़िरकर उस ओर देखा। श्रीसीताजी के मुख रूपी चन्द्रमा को निहारने के लिये उनके नेत्र चकोर बन गये। सुन्दर नेत्र स्थिर हो गये। मानो निमि(जनक के पूर्वज जिनका सबकी पलकों में निवास माना गया है लड़की-दामाद के मिलन-प्रसंग को देखना उचित नहीं है इस भाव से) ने सकुचाकर पलकें छोड़ दीं (पलकों में रहना छोड़ दिया, जिससे पलकों का गिरना रुक गया है)
    देखि सीय सोभा सुखु पावा। हृदयँ सराहत बचनु न आवा॥
    जनु बिरंचि सब निच निपुनाई। बिरचि बिस्व कहँ प्रगट देखाई॥

    (सीता की शोभा देखकर श्रीराम जी ने बड़ा सुख पाया। हृदय में वे उसकी सराहना करते हैं, किन्तु मुख से वचन नहीं निकलते। वह शोभा अनुपम है। मानों ब्रह्मा ने अपनी सारी निपुणता को मूर्तिमान कर संसार को प्रकट करके दिखा दिया हो)

    सुंदरता कहुँ सुंदर करई। छबिगृहँ दीपशिखा जनु बरई॥
    सब उपमा कबि रहे जुठारी। केहिं पटतरौं बिदेहकुमारी॥

    ( सीताजी सुंदरता को भी सुंदर करने वाली हैं। मानो सुन्दरता रूपी घर में दीपक की लौ जल रही है। सारी उपमाओं को तो कवियों ने जूठा कर रखा है। मैं जनकनन्दिनी श्रीसीताजी की उपमा किस मुंह से दूं)

    ऐसे सौंदर्य को त्यागकर जिसको देखकर स्वयं भगवान श्रीराम भी चकित रह गये कहां आप भी काम/क्रोध/मद/मत्सर आदि मेढकों को हर्ष प्रदान करने वाली वर्षा की उपमाओं में रम गये।

    रमानाथ अवस्थीजी ने कहा भी है:
    मेरी रचना के अर्थ अनेकों हैं।
    तुमसे जो लग जाये लगा लेना।


    तुलसीदास जी महान कवि थे। आज से पांच-छह सौ साल पहले की सामाजिक मान्यताओं को नजरिये से उन्होंने लोकमंगल के लिये रामचरित मानस रचा। उनका कवि रूप अलग है। लेकिन उनके लिखे को आज के समय में जस की तस अपनी स्थापनाओं के लिये तर्क के रूप में इस्तेमाल करना कैसे उचित हो सकता है।

    ऋषभ जी ने जो बात कही है हमारा समाज पुरुषवर्चस्व मय है। केवल उन्हीं को सूक्ति बनाता है जिनसे स्त्रियों को नीचा दिखाया जा सका। स्त्रियों का लिखा बहुत कम है अपने समाज में। शायद आगे कभी आये तो उनके भी तर्क सामने आयें।

    एक स्त्री की कविता के भाव देखिये:
    इन सब बातों के लिये भी ज्यादातर
    औरतें ही जिम्मेदार हैं
    क्योंकि उसने ही पुरुष को
    परमेश्वर बनाया और
    वह पूरा इंसान भी न बन सका
    और वह औरत पर भी हुकूमत करने लगा।
    उसने परमेश्वर बनते ही स्त्रियों के लिये
    आजीवन निषेधाज्ञा लागू कर दी।


    पढ़ने-लिखने से अपने तर्क ग्रहण करने के साथ-साथ हमारे अनुभव भी तो हैं। किसी ने आज से पांच-सौ साल पहले स्त्री के बारे में किसी पात्र के बहाने के कुछ कहलाया तो उसको सारा का सारा सच मानने के बजाय मैं वह धारणा बनाना ज्यादा पसंद करूंगा जो मेरी देखी सुनी धारणा है। और उस धारणा में स्त्री पुरुष से किसी किस्म से कमतर नहीं है।

    बहुत पढ़ना/टाइप करना हो गया आज भी। चलिये दशहरा मुबारक हो!

    @कविताजी, कल पढ़ाई का अवसर मिला उसके लिये तो आभार! लेकिन सुबह-सुबह जो सुनना पड़ा( सुबह से बैठ गये लैपटाप पर :()
    उसका क्या किया जाये। आज भी वही हुआ। बल्कि आज तो हमारे लिये स्टेटस भी सुझाया गया टेलिविजन का कोई कार्यक्रम देखते हुये- मनुष्य का जैसा विश्वास होता है वैसे ही उसके विचार होते हैं।
    आपको भी दशहरा मुबारक!
    बोल सियावररामचन्द्र की जय।

    पुनश्च:1. आपका कमेंट बक्सा ये हमारे नाम के प्रथमाक्षर का सिरच्छेद करना कब बंद करेगा?
    2.टिप्पणी का पांच प्रयास कर चुके हैं अभी तक टिप्पणी गयी नहीं है। :)

    जवाब देंहटाएं
  17. @शुक्ल जी ,
    अब आपको रामचरित मानस के वे सारे अंश दिखाने होंगे जिन्हें आप जानबूझ कर अनदेखा कर रहे हैं -और वो वेद वाक्य जो अक्सर आप दुहराते रहते हैं उतनी ही शिद्दत के साथ आप पर भी लागू होते हैं ..यह आप हर बार भूलते हैं ....लोग याद दिलाते रहते हैं तब पर भी ...
    मगर यहाँ आपकी तरह विद्वता दिखाने का मैं कोई अवसर नहीं लेना चाहता -विषय गंभीर है ...और डॉ. वाचक्कनवी से अपेक्षा थी विषय प्रवेश के उपरान्त उसका गंभीर विवेचन करें मगर वो तो आपको डोर थमा निरुत्तर हो गयीं ...यह अपेक्षा उनसे रहेगी ...बाकी आपसे क्या बात की जाय ....?
    क्वचिदन्यतोपि पर विषय को विस्तार से लेने का अजेंडा है -युग द्रष्टा देव ऋषियों की वाणी को केवल एक सीमित काल खंड के संदर्भ में देखना उचित नहीं है .....!
    बहरहाल विषयासक्त जुझारू भूमिका निभाई है यहाँ आपने ....पोस्ट लेखिका और चर्चा में भाग लेने वाले सभी सुधी जनों को मेरी ओर से विजयदशमी की शुभकामनाएं!

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  18. जैसा कि दिख रहा है 'रामायण' के सहारे 'महाभारत' कि रचना कर दी गई है.लेखिका ने थोड़ा-सा संकेत भर किया था,पर अरविन्दजी व अनूपजी ने कई सन्दर्भ देकर नारी-महिमा को अपने अपने चश्मे से देखा है.दर-असल तुलसी ने जो भी लिखा है वह उस समय और पात्र की अनुकूलता देखते हुए कही है.केवल नारी के विषय को लेकर ही नहीं यदि 'मानस' को हम संकीर्ण द्रष्टि से देखना शुरू कर देंगे तो ढोल गंवार सूद्र पशु नारी,सकल ताड़ना के अधिकारी ,का न करै अबला प्रबल ,केहि जगु काल न खाइ ,पूजिय विप्र सील,गुन हीना,सूद्र न गुन गन ज्ञान प्रबीना आदि कई ऐसे सन्दर्भ हैं जिनको व्याख्यायित करके 'मानस' का औचित्य ही संदेह में पड़ जायेगा !स्त्री,शूद्र और ब्राह्मण के बारे में गलत धारणाएं कुछ लोग इसी आधार पर बिठा लेते हैं.पुरुष-पात्र कि भी आलोचना अनगिन बार हुई है.रावण,मारीच,कुम्भकर्ण,मेघनाद ,बालि आदि पुरुष ही थे.
    रही बात नारद-प्रसंग को लेकर तो पूरी कथा ही प्रभु कि लीला का हिस्सा थी नकि केवल नारद को ज्ञान या सबक देना !
    कौन है जो सुन्दर नारी के वार से अपने को बचा सकता है ? नारद ने विश्वामित्र से अधिक तप नहीं किया था !

    इसलिए मेरी राय में नारी,पुरुष को आज के सन्दर्भ में ही आंकें इसके लिए तुलसी को नारी-पीड़ित कहकर उनके सारे किये-धरे पर पानी न फेरा जाए ! आज नारी भी किसी तरह पुरुष से कम नहीं है पर कई जगह वह अपनी खाल बचाने के लिए 'विशेषाधिकार' की भी ख्वाहिश रखती है ,यहीं पर दोहरापन उजागर होता है !

    सभी को दशहरे की शुभकामनाएँ !

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  19. संतुलित,सारगर्भित एवं पठनीय...

    बधाई....

    जवाब देंहटाएं
  20. aap log bekar hi bahas kar rahe hain tulsidas par. kya aap jaante hain ki tulsi ne maanas ke aaranyakaand me sita haran me na to koi luxman rekha khichne ki baat likhi hai naa hi sita ne use laangha ho aisa likha hai. balmik ramayan me bhi luxman rekha nahi hai. sita katuk vachan bolti hain aur luxman chale jaate hain. bahut aage jaakar ravan-mandodri samvaad me kisi ne kchchepak chaupai jodi hai raamanuj laghu rekh khinchaee. arhaat apharan ho jaane ka dosh bhi sita ke hi upar daalna abhipret tha jo bina tulsi ki sahayta ke bina balmik ki gawahi ke poora ho gaya. droupadi ko vivastra karne ko yuddh ka karan maan,na paryaapt na maan kar yah kaha gaya ki usne andhe ke putra andhe hi hote hain kah kar mahabharat ki aag lagaayee thee. kripya dekhiye ki mahabharat kya nkahti hai..

    जवाब देंहटाएं

आपकी प्रतिक्रियाएँ मेरे लिए महत्वपूर्ण हैं।अग्रिम आभार जैसे शब्द कहकर भी आपकी सदाशयता का मूल्यांकन नहीं कर सकती।आपकी इन प्रतिक्रियाओं की सार्थकता बनी रहे इसके लिए आवश्यक है कि संयतभाषा व शालीनता को न छोड़ें.

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