तुममें पूरे इतिहास को जिंदा होना है !
- सुधा अरोड़ा
दामिनी !
जीना चाहती थीं तुम
कहा भी था तुमने बार बार
दरिंदों से चींथी हुई देह से जूझते हुए
मौत से लडती रही बारह दिन
कोमा में बार बार जाती
लौट लौट आती
कि शायद साँसे संभल जाएँ.......
आखिर सारी प्रार्थनाएँ अनसुनी रह गईं
दुआओं में उठे हाथ थम गये
अपने जीवट की जलती मशाल छोड कर
देह से तुम चली गयी
पर हर जिन्दा देह में अमानत बन कर ढल गयी !
अब तुम हमेशा रहोगी
सत्ता के लिए चुनौती बनकर ,
कानून के लिए नई इबारत बनकर ,
हर कहीं अपने सम्मान और अस्मिता के लिए लडती ,
स्त्री के लिए बहादुरी की मिसाल बनकर ,
कलंकित हुई इंसानियत पर सवाल बनकर ,
सदियों से कुचली जा रही स्त्री का सम्मान बनकर !
तुम एक जीता जागता सुबूत हो दामिनी
कि अभी मरा नहीं है देश
कि अब भी खड़ा हो सकता है यह
दरिंदगी और बलात्कार के खिलाफ
जहाँ लोकतंत्र की दो तिहाई सदी
बीतने के बाद भी सुनी नहीं जाती
आधी दुनिया की आवाज !
तुम हर उस युवा में होगी
जो वहशीपन के खिलाफ
खड़े होते दिख जायेंगे आज भी
देश के हर छोटे बड़े गाँव कस्बे में !
जिंदा होगी तुम हर एक लडकी के जज्बे में !
इतिहास बार बार दोहराता है
हमें अपनी चूकें याद दिलाता है
और हमारा यह सभ्य समाज बार बार उसे
भूल जाने की कवायद करवाता है ।
अब तुममें जिंदा होगी
1979 की गढचिरोली की मथुरा
चौदह से सोलह के बीच की वह आदिवासी लड़की ,
जिसे अपनी उम्र तक ठीक से मालूम नहीं थी
लॉक अप में जिसके साथ हुआ बलात्कार
सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट का बदला फैसला --
गणपत और तुकाराम बाइज्ज़त बरी कर दिए गए
सारे महिला आन्दोलन और नुक्कड़ नाटक धरे रह गए !
अब तुममें जिंदा होगी
पति के साथ रात का शो देख कर लौटती
हैदराबाद की रमज़ा बी
कि जिसे पुलिस ने पकड़ा और
उसके पति के सामने सारी रात भोगा
कहा --'' पर्दा नहीं किया था
मुँह खुला था, हमने सोचा वेश्या होगी !''
इसी पुलिस ने दूसरे दिन की पति की हत्या
और रमजा बी करार दी गयी वेश्या !
अब तुममें जिंदा होगी माया त्यागी
मुरादाबाद की किसनवती
मेरठ की उषा धीमान
राजस्थान के भटेरी गाँव की भँवरी,
जिसके आरोपियों को सुसज्जित मंच पर
फूलमालाओं से नवाज़ा गया और लगाये गए नारे --
मूँछ कटी किसकी, नाक कटी किसकी, इज्ज़त लुटी किसकी
राजस्थान के भटेरी गाँव की !
महिला कार्यकर्ताएँ फिर अपने नारे बटोरतीं ,
कटे बालों वाली होने का तमगा लिए घर लौट गयीं !
सुनो दामिनी ,
इस बीच बीते पंद्रह साल
लेकिन हमारे पास गिनती नहीं
कि कितनी लाख बेटियाँ और बहनें हुईं हलाल
आँकड़े जरूर मिल जाएँगे कहीं
और इन आँकड़ों की तादाद हर पल बढती ही रही ......
दूर नहीं, अब लौटो पिछले साल
अब तुममें जिंदा होगी
मालवणी मलाड की 14 साल की अस्मां ,
जिसे उठा ले गए पाँच दरिन्दे
खाने के नाम पर देते रहे उसे एक वडा पाव
और रौंदते रहे उस मरती देह को लगातार
बाल दिवस 14 नवम्बर 2011 को
अपने बालिका होने का क़र्ज़ चुकाती
ली उसने आखिरी साँस !
मरने के बाद जिसके पेट से निकलीं
वडा पाव लिपटे अखबार की लुगदी
मिटटी, पत्थर और कपडे की चिन्दियाँ !
क्या होगा पोस्ट मार्टम के इस खुलासे से
कि वह कागज और मिट्टी से पेट भरती रही
सच तो यह है कि अखबार में छपी उसकी तस्वीरें
हमारे चेहरों पर तमाचा जड़ती रहीं ।
अब तुममें जिंदा होगी
वे तमाम मथुरा, माया, उषा, किसनवती
मनोरमा, भँवरी, अस्माँ ....
दूध के दाँत भी टूटे नहीं थे जिनके
वे बच्चियाँ
जिन्हें अपने लड़की होने की सज़ा का अहसास तक नहीं था ...
वे तमाम नाबालिग लड़कियाँ
जिन्हें दुलारने वाले पिता चाचा भाई के हाथ ही
उनके लिए हथौड़ा बन गए
किलकारियाँ चीखों में बदल गयीं !
हम आखिर करें भी तो क्या करें दामिनी ,
चीखें तो इस समाज में कोई सुनना ही नहीं चाहता
रौंदी गयीं , कुचली गयीं बच्चियों की चीखें
नहीं चाहिए इस सभ्य समाज को
यह सभ्य समाज डिस्को में झूमता है
सेल्युलायड के परदे पर लहराता है
युवा स्त्री देहों के जुलूस फहराता है
मुन्नी बदनाम हुई पर ठुमके लगाता है
शीला की जवानी पर इतरा कर दोहरा हुआ जाता है
और चिकनी चमेली को पास की खोली में ढूँढता है
आखिर औरत की देह एक नुमाइश की चीज़ ही तो है !
हम उसी बेशर्म देश के बाशिंदे हैं दामिनी
जहाँ संस्कृति के सबसे असरदार माध्यम में
स्त्री महज़ एक आइटम है
और आइटम सॉन्ग पर झूमती हैं पीढियाँ !!
दामिनी !
उन लाखों हलाल की गयी बच्चियों में
तुम्हारा नाम एक संख्या बनकर नहीं रहेगा अब !
नहीं, तुम्हें संख्या बनने नहीं देंगे हम !
तुममें एक पूरे इतिहास को जिंदा होना है !
वह इतिहास जिस पर तेज़ रफ़्तार मेट्रो रेल दौड़ रही है
वह इतिहास जिसे चमकते फ्लाई ओवर के नीचे दफन कर दिया गया है !
इससे पहले कि जनता भूल जाये सोलह दिसम्बर की रात ,
इससे पहले कि तुम्हारा जाना बन जाये एक हादसे की बात
इससे पहले कि सोनी सोरी की चीखें इतिहास बन जाएँ
इससे पहले कि चिनगारियाँ बुझ जाएँ .....
हवा में झूलते अपने हाथों से तुम्हें देते हुए विदा
और सौंपते हुए इन आँखों की थोड़ी सी नमी
ज्वालामुखी के लावे सी उभर आई
इस देश की आत्मा की आवाज के साथ
अहद लेते हैं हम
कि चुप नहीं बैठेंगे अब
न्याय के लिए उठती आवाजों को खामोश करती
किसी भी सत्ता के दमनकारी इरादों के खिलाफ
खड़े होंगे तनकर और दया की भीख नहीं माँगेंगे
इस दबे ढके इतिहास के काले पन्ने फिर से खोलेंगे ।
अब हम आँसुओं से नहीं, अपनी आँख के लहू से बोलेंगे !
हत्यारों और कातिलों की शिनाख्त से मुँह नहीं फेरेंगे !
अपने नारों को समेट सिरहाना नहीं बनायेंगे ।
नए साल की आवभगत में गाना नहीं गायेंगे !
बस, अब और नहीं, और नहीं, और नहीं .........
जैसे जारी है यह जंग, जारी रहेगी !
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