भाग २
राजा-रानी आधा-आधीपिता की संपत्ति में हिस्सा इस तथ्य की याद दिलाता है कि वह संपत्ति माता-पिता की नहीं है, सिर्फ पिता की है। पिता के मरने के बाद ही माँ को उसका एक हिस्सा मिल पाता है -- उसकी संतानों के साथ, लेकिन पिता के जीते जी उसकी संपत्ति में माँ का कोई हिस्सा नहीं होता। वह सर्वहारा का जीवन जीती है। यही नियति उसकी बेटियों की होती हैं। जब वे एक नए परिवार में शामिल होती हैं, तो उस नए परिवार में चाहे जितनी संपत्ति हो, उनकी अपनी हैसियत अपनी माँ जैसी हो जाती है -- धन और संपत्ति से विहीन।
- राजकिशोर
बहरहाल, बहुत कम परिवार ऐसे हैं जहाँ बेटियों के इस हक का सम्मान होता है। इसका एक कारण तो परंपरा है, जिसमें बेटी के कोई कानूनी अधिकार नहीं होते थे। उसे पराया धन माना जाता रहा है (अब भी माना जाता है), जिसका उचित स्थान उसकी ससुराल में है। मायके में वह आती-जाती रह सकती है, पर वहाँ की किसी चीज में वह हस्तक्षेप नहीं कर सकती। जो उसका घर ही नहीं है, उस पर उसका क्या हक। लेकिन समानता का कानूनी अधिकार मिल जाने के बाद भी उसकी बुनियादी स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है। अगर वह अपना हिस्सा माँगती है, तो मायके के सारे लोग, उसके भाई, विधवा माँ आदि, उसके खिलाफ हो जाते हैं और उसे धन पिशाचिनी मानने लगते हैं। इस डर से ऐसे दावे अकसर नहीं किए जाते। परंपरा कानून पर भारी पड़ती है। लेकिन कभी-कभी ऐसे दावे होते भी हैं और तब मामला अदालत में पहुँच जाता है।
पिता की संपत्ति में हिस्सा इस तथ्य की याद दिलाता है कि वह संपत्ति माता-पिता की नहीं है, सिर्फ पिता की है। पिता के मरने के बाद ही माँ को उसका एक हिस्सा मिल पाता है -- उसकी संतानों के साथ, लेकिन पिता के जीते जी उसकी संपत्ति में माँ का कोई हिस्सा नहीं होता। वह सर्वहारा का जीवन जीती है। यही नियति उसकी बेटियों की होती हैं। जब वे एक नए परिवार में शामिल होती हैं, तो उस नए परिवार में चाहे जितनी संपत्ति हो, उनकी अपनी हैसियत अपनी माँ जैसी हो जाती है -- धन और संपत्ति से विहीन। इसका सबसे दुखद परिणाम तब सामने आता है, जब तलाक की नौबत आती है। तलाक के बाद उसे अपनी पति की संपत्ति का कोई हिस्सा नहीं मिलता। उसे अगर कुछ मिलता है, तो सिर्फ गुजारा भत्ता या तलाक भत्ता (एलिमनी)। आजकल, कम से कम पश्चिम में, विवाह के वक्त ही अकसर यह तय कर लिया जाता है कि तलाक की स्थिति में एलिमनी की रकम क्या होगी। मुस्लिम विवाह में इसे मेहर कहते हैं। तलाक देने के बाद शौहर को मेहर की रकम देनी पड़ती है। पूर्व-निर्धारित एलिमनी और मेहर में एक पेच यह है कि विवाह के बाद शौहर की आमदनी कई गुना बढ़ जाए, तब भी इस रकम में कोई वृद्धि नहीं होती। औरत की जो कीमत एक बार तय हो गई, वह हो गई। पति चाहे जितना मालदार हो जाए, पत्नी का मेहर-मूल्य नहीं बदलता। दूसरी बात यह है कि जिस शख्स में मेहर चुकाने की जबरदस्त क्षमता हो, वह शादी पर शादी कर सकता है। कहते हैं, मुसलमान पुरुषों को चार शादियां तक करने की छूट है। लेकिन यह सीमा एक समय में चार तक लागू होती है। एक को तलाक दे कर दूसरी शादी करने की स्वतंत्रता का उपयोग करते हुए मुस्लिम पुरुष चाहे तो अपने जीवन काल में एक के बाद एक कर सैकड़ों शादियां कर सकता है। एक-विवाह की परंपरा ईसाइयत की देन कही जाती है। लेकिन अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस आदि में हर पुरुष और हर स्त्री औसतन तीन विवाह करते हैं। मरलिन मुनरो ने शायद पंद्रह या सोलह विवाह किए थे। इस कायदे को क्रमिक बहु-विवाह माना जाता है, जिससे एक-विवाह की प्रथा भी बनी रहती है और बहु-विवाह की स्वतंत्रता भी।
(क्रमश: )>>>>
आगे इन्तजार है.
जवाब देंहटाएंआज के युग में एक-विवाह ही उचित लगता है - आर्थिक दृष्टि से भी और स्वास्थ के लिए भी। यदि हर पति अपनी पत्नी के प्रति वफादार रहे तो एस.टी.डी. की समस्या हल हो जाय। एड्स विश्व से लुप्त हो जाए।
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