
ऐसा लगा मानो लड़की ने कुछ सुना ही न हो। उसकी सिसकी जारी रही।
जन्म - ४ अक्टूबर १९४६ को लाहौर (पश्चिमी पाकिस्तान) में
शिक्षा - कलकत्ता विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में १९६७ में एम.ए. , बी.ए. (ऑनर्स) दोनों बार प्रथम श्रेणी में प्रथम।
कार्यक्षेत्र - कलकत्ता के जोगमाया देवी कॉलेज तथा श्री शिक्षायतन कॉलेज - दो डिग्री कॉलेजों के हिंदी विभाग में '६९ से '७१ तक अध्यापन। १९९३ से महिला संगठनों के सामाजिक कार्यों से जुड़ाव। कई कार्यशालाओं में भागीदारी।
लेखन - पहली कहानी 'मरी हुई चीज़' सितंबर १९६५ में 'ज्ञानोदय' में प्रकाशित, कहानियाँ लगभग सभी भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त अंग्रेज़ी, फ्रेंच, और पोलिश भाषाओं में अनूदित। डॉ. दागमार मारकोवा द्वारा चेक भाषा में तथा डॉ. कोकी नागा द्वारा जापानी भाषा में कुछ कहानियाँ अनूदित। 'युद्धविराम', 'दहलीज़ पर संवाद' तथा 'इतिहास दोहराता है' पर दूरदर्शन द्वारा लघु फ़िल्में निर्मित, दूरदर्शन के 'समांतर' कार्यक्रम के लिए कुछ लघु फ़िल्मों का निर्माण फिल्म पटकथाओं, टीवी धारावाहिक और रेडियो नाटकों का लेखन।
प्रकाशन - कहानी संग्रह 'बतौर तराशे हुए' (१९६७) 'युद्धविराम' (१९७७) तथा 'महानगर की मैथिली' (१९८७)। 'युद्धविराम' उत्तर-प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा १९७८ में विशेष पुरस्कार से सम्मानित।
संपादन - कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग की पत्रिका 'प्रक्रिया' का सन १९६६-६७ में संपादन। बंबई से सन १९७७-७८ में हिंदी साहित्य मासिक 'कथायात्रा' के संपादन विभाग में कार्यरत। निम्न मध्यम-वर्गीय महिलाओं के लिए 'अंतरंग संगिनी' के दो महत्वपूर्ण विशेषांकों 'औरत की कहानी : शृंखला एक तथा दो' का संपादन।
स्तंभ लेखन - कहानियों के साथ-साथ '७७-७८ में पाक्षिक 'सारिका' के लोकप्रिय स्तंभ 'आम आदमी : ज़िंदा सवाल' का लेखन। '९६-९७ में महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर 'जनसत्ता' के साप्ताहिक स्तंभ 'वामा' का लगभग एक वर्ष तक लेखन। महिलाओं की समस्याओं पर कई आलेख प्रकाशित। स्त्री विमर्श से संबंधित लेखों का संकलन। दो कहानी संग्रह तथा एक एकांकी संग्रह शीघ्र प्रकाश्य।
संप्रति - भारतीय भाषाओं के प्रकाशन 'वसुंधरा' की मानद निदेशक।
यह कैसे तय किया जाए कि माँ की पुरानी भूमिका अच्छी थी या आज की भूमिका अच्छी है? पहली भूमिका में माँ का जीवन त्याग-तपस्या से भरा होता है और दूसरी भूमिका के कारण दुनिया में ऐसे लोगों की तादाद बढ़ रही है जिन्होंने माँ-बाप का प्यार जाना ही नहीं। जाहिर है, जिसे प्यार नहीं मिला, वह प्यार दे भी नहीं सकता। क्या कोई और रास्ता भी है, जिसमें माँओं को अपना जीवन स्थगित न करना पड़े और बच्चों को भी भरपूर प्यार मिल सके?
क्योंकि लिपस्टिक आपके पेट में जाती है
महिलाओं ही के लिए नहीं अपितु यह पुरुषों के लिए भी जानना जरूरी है कि लिपस्टिक क्या कर सकती है। क्योंकि .. आख़िर उन्हें भी अपने परिवार की स्त्रियों की चिंता का अधिकार है न?
यह संदेश एक मित्र ने इन पंक्तियों के साथ भेजा कि -
" मैंने भी जाँचा और मेरी ४ में से ३ लिपस्टिक काली हो गईं अब से हर बार लिपस्टिक की खरीद से पहले इस प्रयोग को करने का नियम बना रही हूँ।"
क्या है यह प्रयोग ? आप भी जानिए और हर बार की खरीद से पहले परख का नियम बना लीजिए। अपनी मित्रों व परिवार की अन्य महिलाओं को भी बताइये।
Something to consider
I am also sharing this with the males on my e-mail list,
Because they need to tell the females
THEY care about as well!
Recently a lipstick brand called 'Red Earth'
Decreased their prices from
$67�to�$9.90.
It contained lead.
Lead is a chemical which causes cancer.
The lipstick brands that contain lead are:
CHRISTIAN DIOR
LANCÔME
CLINIQUE
Y.S.L
ESTEE LAUDER
SHISEIDO
RED EARTH (Lip Gloss)
CHANEL (Lip Conditioner)
MARKET AMERICA-MOTNES LIPSTICK.
The higher the lead content,
The greater the chance of causing cancer.
After doing a test on lipsticks,
It was found that the Y.S..L. Lipstick
Contained the most amount of lead.
Watch out for those lipsticks
Which are supposed to stay longer.
If your lipstick stays longer, it is
Because of the higher content of lead.
Here is the test you can do yourself:
1. Put some lipstick on your hand.
2. Use a Gold ring to scratch on the lipstick.
3. If the lipstick colour changes to black,
Then you know the lipstick contains lead.
Please send this information to all your girlfriends,
Wives and female family members.
This information is being circulated at
Walter Reed Army Medical Centre
Dioxin Carcinogens cause cancer,
Especially breast cancer
जहाँ आत्मीयता होती है, वहाँ भी लोग ठगे जाने से बचने की कोशिश करते हैं। यह सावधानी स्त्री-पुरुष व्यवहार में और ज्यादा अपेक्षित है, क्योंकि अब तक के इतिहास की सीख यही है। इसलिए माता-पिता और अभिभावकों का यह एक मूल कर्तव्य है कि वे लड़की को लड़की के रूप में विकसित होते समय ही उन फंदों और गड्ढों से अवगत कराते रहें जो आगे उसकी राह में आनेवाले हैं। इसके साथ ही, उसे निर्भय होने और स्व-रक्षा में सक्षमता की शिक्षा भी देनी चाहिए। लेकिन इस कीमत पर नहीं कि मानवता में ही उसका विश्वास डिग जाए। बहुत ही प्रेम और समझदारी से उसमें यह बोध पैदा करना होगा कि लोग सभी अच्छे होते हैं, पर हमेशा सचेत रहना चाहिए कि वे बुरे भी हो सकते हैं। लड़कियों को यह सीख भी दी जानी चाहिए कि यह बहुत गलत होगा अगर अति सावधानी के परिणामस्वरूप वे किसी पुरुष से आत्मीय रिश्ता बना ही न पाएँ। घृणा तो किसी से भी न करो – ज्ञात पापी से भी नहीं, सभी को प्रेम और विश्वास दो, पर अपनी सुरक्षा की कीमत पर नहीं।
सुशांति मरांडी अब कभी अपनों का भरोसा नहीं कर पाएगी। उसे गैरो ने नहीं, अपनों ने छला है। जब 6 साल की थी तब उसके पिता की मौत खेत में हल चलाते समय ठनका यानी बिजली गिरने से हो गई। इस घटना के छह महीने भी नहीं हुए कि सुशांति ने अपनी मां खो दी। नन्हीं सी जान पर इतनी कम उम्र में ही दुख का पहाड़ टूट पड़ा।
उस समय वह अकेली, बेसहारा-सी पड़ी थी। दूर के एक रिश्तेदार ने उसकी सुध ली। खुद को उसका भाई बताते हुए अपने साथ चलने को कहा। अनाथ और बेसहारा लड़की उंगली थामे चल पड़ी। क्या पता था कि आसान और चैन वाली जिंदगी की तलाश उसे किसी अंधेरे गुफा की तरफ ले जा रही है।उस कथित भाई ने सुशांति को दिल्ली ले जाकर एक पंजाबी परिवार में छोड़ दिया, इस वायदे के साथ कि वह 2-3 दिन में अपना काम करके लौट कर आयेगा। सुशांति इतनी कच्ची उम्र में कुछ समझ नहीं पाई। उस घर में काम करते हुए जिंदगी के 7 साल बिता दिए।
वह कथित भाई कभी ना लौटा। गाँव छूटा, बचपन गया और यातना का सिलसिला शुरु हुआ। रोज शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न के बीच जेहन में गांव का नाम अब भी बसा हुआ था। एक दिन सामान लेने के बहाने बाहर निकली, दुकानदार की मदद से रेलवे स्टेशन और फिर अपने गांव लौट आई। मगर सुशांति के जीवन में जैसे शांति की कोई जगह ही नहीं थी। अपने गांव में भी तिरस्कार और मुश्किलें उसकी प्रतीक्षा कर रही थीं।सुशांति बताती है कि वह अपने घर बेल पहाड़ी आई परंतु वहाँ उसका घर भी किसी ने हड़प लिया था। सुशांति भूख-प्यासी अपने गाँव के करीब पड़ी थी। वहीं एक आदमी ने सुशांति को देखा जो पाकुड़िया के किशोरी निकेतन के बारे में जानता था। वह उसे किशोर निकेतन लेकर आया। अब सुशांति यहीं रहती है।
पाकुड़ की ही रहने वाली एक और बच्ची का बचपन कुछ इसी तरह छीन गया। अपने माँ-बाप, चार बहन और एक भाई के साथ राधानगर गाँव में रहने वाली श्रीमुनी हेम्ब्रम के परिवार में यूँ तो कई परेशानियां थीं लेकिन सबसे बड़ी परेशानी थी परिवार की गरीबी। घर चलाना जब मुश्किल होने लगा तो श्रीमुनी के पिता ने उसे भी एक पत्थर कारखाने में काम पर लगा दिया। तब श्रीमुनी की उम्र थी 10 साल। परिवार वालों ने जाने किस मजबूरी में कभी पलट कर नहीं देखा।
पत्थर तोड़ते चार साल जैसे-तैसे गुजरे। श्रीमुनी ने कोशिश की कि पत्थर कारखाने से बाहर निकला जाये। उसने जब मालिकों से बात की तो मालिकों ने साफ मना कर दिया। आखिर में श्रीमुनी एक दिन चुपके से पत्थर कारखाने से भाग खड़ी हुई। सीधा जा पहुँची अपने गाँव। लेकिन गाँव में जिस सच्चाई से सामना हुआ, वह पत्थर से कहीं ज्यादा कठोर थी। गाँव में उसका कोई भी परिजन नहीं था, न माँ, न बाप। भाई-बहन भी नहीं। पता चला, उसका पूरा परिवार कहीं कमाने-खाने चला गया है।
किसी तरह वह गाँव के एक आदमी के साथ किशोरी निकेतन पहुँची। अब यहीं वह अपनी जिंदगी के पन्नों को दुरुस्त करने में लगी है। उसने टोकरी बनाना सीखा और अब दूसरों को यह काम सीखा रही है। उसकी पढ़ाई तो चल ही रही है। पाकुड़ के गाँवों में सुशांति और श्रीमुनी जैसी कई-कई लड़कियाँ हैं। इस जंगली इलाके में इन लड़कियों का दुख जंगल से भी कहीं ज्यादा घुप्प और गहरा है। किसी का बचपन छीन गया है तो किसी की जवानी और कोई तस्करी के अंधेरे में खो गया है। कई लड़कियों का अब तक नहीं पता कि वे कहाँ और किस हाल में हैं।
बांग्लादेश की सीमा से लगा है झारखंड का पाकुड़ और साहेबगंज यानी संथाल परगना का इलाका। उच्च गुणवत्ता वाले पत्थर इस इलाके की पहचान हैं लेकिन इन्हीं पत्थरों के कारण इस इलाके की पहचान बदल रही है और अब यह हिस्सा लड़कियों की तस्करी का गढ़ के रुप में जाना जाने लगा है। होता ये है कि इस इलाके से ट्रकों में पत्थर लाद कर बांग्लादेश ले जाया जाता है। पत्थर निकालने एवं ट्रक पर पत्थर भरने का काम ज्यादातर लड़कियाँ ही करती हैं। यहीं से शुरु हो जाता हैं इनकी तस्करी और यौन शोषण का रास्ता।
झारखंड के एटसेक यानी एक्शन एगेंस्ट ट्रैफिकिंग सेक्सुअल एक्सप्लाएटेशन ऑफ़ चिल्ड्रेन के राज्य संयोजक संजय मिश्रा स्थिति की भयावहता के बारे में बताते हैं कि कैसे काले पत्थर की खान और उसके निर्यात से आदिवासी लड़कियों की जिंदगी काली होती जा रही है। संजय कहते हैं- तस्करी की वजह से एक जनजाति का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है। पाकुड़ से पहाड़िया जनजाति खत्म हो रही है। गिनती के परिवार बच गए हैं। उनकी जगह बांग्लादेशी आकर बस रहे हैं। खासकर वहाँ की लड़कियों की संख्या बढ़ती जा रही है।
इस समस्या की गंभीरता पर संजय मिश्रा ने ही प्रशासन का ध्यान खींचा। उन्होंने इस मुद्दे पर व्यापक अध्ययन करने के बाद एक गैर सरकारी संगठन मानवी के साथ मिलकर पिछले साल मई में एक सेमिनार का आयोजन करवाया, उसके बाद प्रशासन की नींद खुली। संजय बताते हैं - मानव तस्करी पाकुड़ जिले के आसपास ही ज्यादा फल फूल रही है। एक तरह से यह इलाका देह बाजार के रुप में कुख्यात हो रहा है। खास कर हिरनपुर में आदिवासी लड़कियों के बीच देह व्यापार एक धंधे का रुप ले चुका है। यहाँ से बाकायदा आदिवासी लड़कियाँ लगातार बांग्लादेश के बाजारों में बेची और भेजी जा रही हैं।
एटसेक ने अपनी पहल पर सिर्फ पाकुड़ जिले में तस्करी की संभावना को देखते हुए दो वीजीलेंस कमिटी का गठन किया है, जो इस पूरे मामले पर नजर रखे हुए है। इनकी सजगता का नतीजा है कि ये लोग समय-समय पर वहाँ लड़कियों को तस्करों के चंगुल से मुक्त कराते रहते हैं। प्रशासन को नींद से जगाने वाली संस्थाओं को भी धीरे धीरे उनका सहयोग मिलने लगा है। अब आए दिन पाकुड़ की देह मंडी से लड़कियाँ बरामद होकर संजय मिश्रा के रांची और पाकुड़ किशोरी निकेतन में पहुंचने लगी हैं।
संजय दावा करते हैं कि उनके संगठन ने अब तक 372 आदिवासी लड़कियों को विभिन्न राज्यों समेत बांग्लादेश से मुक्त करवाया है। एटसेक के आंकड़ो के अनुसार झारखंड की 1.23 लाख आदिवासी लड़कियाँ देश के विभिन्न शहरों में घरेलू नौकरानी के रुप में काम कर रही हैं, जिनमें 2339 दिल्ली में हैं, बाकी हरियाणा, मुंबई और उत्तर प्रदेश के कुछ शहरों में हैं। संजय दुख और चिंता जताते हुए कहते हैं - हिरन पुर में महिला मंडी, पशु हाट से ज्यादा दूरी पर नहीं था। ये सभी अच्छी तरह जानते हैं कि यहाँ से हजारों की तादाद में गैर कानूनी तरीके से पशु भी बांग्लादेश भेजे जाते हैं। लेकिन ये महिलाएँ भी उन्हीं पशुओं की तरह ट्रीट की जाती हैं और ये सिलसिला अब भी जारी है।
असल में राज्य के पुलिस अधिकारी भी नहीं जानते कि लड़कियों की तस्करी के मामले में कानूनी प्रावधान क्या-क्या हैं। इममोरल ट्रैफिकिंग प्रिवेंशन एक्ट में कितनी कड़ी सजा का प्रावधान है, इसका अहसास भी इन पुलिस अधिकारियों को नहीं था। आखिर में स्वयंसेवी संस्थाओं की पहल पर इस मुद्दे पर पुलिस की कार्यशालायें हुईं और मानव तस्करी पर रोक लगाने के लिए बकायदा टास्क फोर्स का भी गठन किया गया। इन कोशिशों का ही नतीजा है कि इलाके में मानव तस्करी के मामले में कमी आई है लेकिन क्या इसे जड़ से खत्म नहीं किया जा सकता ? संजय मिश्रा कहते हैं- मांग है तो आपूर्ति रहेगी ही। हमें समाज के सोचने के तरीके को बदलना होगा।
"राम के नाम पर यह कैसा काम ? लड़के पिएँ तो कुछ नहीं और लड़कियाँ पिएँ तो हराम ? पब से सिर्फ़ लड़कियों को पकड़ना, घसीटना और मारना - इसका मतलब क्या हुआ? क्या यह नहीं कि हिंसा करने वाले को शराब की चिंता नहीं है बल्कि लड़कियों की चिंता है। वे शराब-विरोधी नहीं हैं, स्त्री-विरोधी हैं। यदि शराब पीना बुरा है, मदिरालय में जाना अनैतिक है, भारतीय सभ्यता का अपमान है, तो क्या यह सब तभी है, जब स्त्रियाँ वहाँ जाएँ? यदि पुरुष जाए तो क्या यह सब ठीक हो जाता है? इस पुरुषवादी सोच का नशा अंगूर की शराब के नशे से ज्यादा खतरनाक है। शराब पीकर पुरुष जितने अपराध करते हैं, उस से ज्यादा अपराध वे पौरुष की अकड़ में करते हैं। इस देश में पत्नियों के विरूद्ध पतियों के अत्याचार की कथाएँ अनंत हैं। कई मर्द अपनी बहनों और बेटियों की हत्या इसलिए कर देते हैं कि उन्होंने गैर-जाति या गैर- मजहब के आदमी से शादी कर ली थी। जीती हुई फौजें हारे हुए लोगों की स्त्रियों से बलात्कार क्यों करती हैं ? इसलिए कि उन पर उनके पौरुष का नशा छाया रहता है। बैगलूर के तथाकथित राम-सैनिक भी इसी नशे का शिकार हैं। उनका नशा उतारना बेहद जरूरी है। स्त्री-पुरुष समता का हर समर्थक उनकी गुंडागर्दी की भर्त्सना करेगा।"