ऐसा लगा मानो लड़की ने कुछ सुना ही न हो। उसकी सिसकी जारी रही।
शनिवार, 28 फ़रवरी 2009
सिसकी
ऐसा लगा मानो लड़की ने कुछ सुना ही न हो। उसकी सिसकी जारी रही।
शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2009
औरत की दुनिया
औरत की दुनिया
सुधा जी के सशक्त लेखन को आगामी दिनों में आप यहाँ नियमित पढ़ सकेंगे।
इस बार उनकी सुगंधि व सखुबाई की संघर्ष गाथा का प्रथम आमुख आप पढ़ सकते हैं। उत्तर आमुख अगली किश्त में पढा जा सकेगा। तदनंतर दोनों की आत्मकथाएँ |
आशा करती हूँ कि आपकी प्रतिक्रियाएँ इस लेखमाला की प्रस्तुति को अधिक जीवंत, अधिक सार्थक व अधिक समाजोपयोगी प्रमाणित करने में सहयोगी बनेंगी। प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा है ।
जन्म - ४ अक्टूबर १९४६ को लाहौर (पश्चिमी पाकिस्तान) में
शिक्षा - कलकत्ता विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में १९६७ में एम.ए. , बी.ए. (ऑनर्स) दोनों बार प्रथम श्रेणी में प्रथम।
कार्यक्षेत्र - कलकत्ता के जोगमाया देवी कॉलेज तथा श्री शिक्षायतन कॉलेज - दो डिग्री कॉलेजों के हिंदी विभाग में '६९ से '७१ तक अध्यापन। १९९३ से महिला संगठनों के सामाजिक कार्यों से जुड़ाव। कई कार्यशालाओं में भागीदारी।
लेखन - पहली कहानी 'मरी हुई चीज़' सितंबर १९६५ में 'ज्ञानोदय' में प्रकाशित, कहानियाँ लगभग सभी भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त अंग्रेज़ी, फ्रेंच, और पोलिश भाषाओं में अनूदित। डॉ. दागमार मारकोवा द्वारा चेक भाषा में तथा डॉ. कोकी नागा द्वारा जापानी भाषा में कुछ कहानियाँ अनूदित। 'युद्धविराम', 'दहलीज़ पर संवाद' तथा 'इतिहास दोहराता है' पर दूरदर्शन द्वारा लघु फ़िल्में निर्मित, दूरदर्शन के 'समांतर' कार्यक्रम के लिए कुछ लघु फ़िल्मों का निर्माण फिल्म पटकथाओं, टीवी धारावाहिक और रेडियो नाटकों का लेखन।
प्रकाशन - कहानी संग्रह 'बतौर तराशे हुए' (१९६७) 'युद्धविराम' (१९७७) तथा 'महानगर की मैथिली' (१९८७)। 'युद्धविराम' उत्तर-प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा १९७८ में विशेष पुरस्कार से सम्मानित।
संपादन - कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग की पत्रिका 'प्रक्रिया' का सन १९६६-६७ में संपादन। बंबई से सन १९७७-७८ में हिंदी साहित्य मासिक 'कथायात्रा' के संपादन विभाग में कार्यरत। निम्न मध्यम-वर्गीय महिलाओं के लिए 'अंतरंग संगिनी' के दो महत्वपूर्ण विशेषांकों 'औरत की कहानी : शृंखला एक तथा दो' का संपादन।
स्तंभ लेखन - कहानियों के साथ-साथ '७७-७८ में पाक्षिक 'सारिका' के लोकप्रिय स्तंभ 'आम आदमी : ज़िंदा सवाल' का लेखन। '९६-९७ में महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर 'जनसत्ता' के साप्ताहिक स्तंभ 'वामा' का लगभग एक वर्ष तक लेखन। महिलाओं की समस्याओं पर कई आलेख प्रकाशित। स्त्री विमर्श से संबंधित लेखों का संकलन। दो कहानी संग्रह तथा एक एकांकी संग्रह शीघ्र प्रकाश्य।
संप्रति - भारतीय भाषाओं के प्रकाशन 'वसुंधरा' की मानद निदेशक।
सुगंधि और सखूबाई की संघर्ष कथा
सावित्री बाई फुले के महाराष्ट्र में ऐसी जीवट वाली महिलाओं की एक समृद्ध परम्परा रही है । इस परम्परा में एक ओर अहिल्या रांगणेकर , प्रमिला दंडवते , मृणाल गोरे हैं तो दूसरी ओर विभूति पटेल, अरुणा बुरटे, आरिफा खान, सुरेखा दलवी, अरुणा सोनी, संध्या गोखले, चयनिका शाह, जया वेलणकर, शारदा साठे, हसीना खान, गंगा बार्या, ज्योति म्हाप्सेक, मेघा थट्टे, मुक्ता मनोहर, शैला लोहिया, शहनाज़ शेख और फ्लेविया एग्नेस जैसी सामाजिक कार्यकर्ताओं की एक लम्बी श्रृंखला है । इसी श्रृंखला की एक कड़ी हैं सुगंधि ।
आज भांडुप इलाके की मुसीबतज़दा औरतें सुगंधि को दृढ़ता और साहस के प्रतीक के रूप में देखती है । इस सुगन्धि को निस्वार्थ भाव से सँवारने-निखारने और गढ़ने में जिस पुरुष के स्नेह , प्रेम और संवेदना का योगदान है -- वह हैं डॊ. विवेक मॊन्टेरो। सुगंधि से विवाह करके न सिर्फ एक, बल्कि चार ज़िन्दगियों को बचाने और बनाने का श्रेय उन्हें जाता है । आज के पुरुषवर्चस्व बहुल समाज में, अपने विचारों को अपने आचरण में उतारने वाले विवेक जैसे लोगों को देखकर बहुत सा धुंधलका छँटता हुआ- सा लगता है और उम्मीद की एक किरण उभरती दिखाई देती है ।
अनुवाद - नीरा नाहटा
‘स्पैरो’ ( साउंड एंड पिक्चर आर्काइव्स् फ़ॊर रिसर्च ऒन वीमन ) द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘ दहलीज को
लाँघते हुए ’ से साभार प्रस्तुत
मंगलवार, 24 फ़रवरी 2009
क्या कोई और रास्ता नहीं है ?
यह कैसे तय किया जाए कि माँ की पुरानी भूमिका अच्छी थी या आज की भूमिका अच्छी है? पहली भूमिका में माँ का जीवन त्याग-तपस्या से भरा होता है और दूसरी भूमिका के कारण दुनिया में ऐसे लोगों की तादाद बढ़ रही है जिन्होंने माँ-बाप का प्यार जाना ही नहीं। जाहिर है, जिसे प्यार नहीं मिला, वह प्यार दे भी नहीं सकता। क्या कोई और रास्ता भी है, जिसमें माँओं को अपना जीवन स्थगित न करना पड़े और बच्चों को भी भरपूर प्यार मिल सके?
तीन दिन पहले हमसे एक भारी अपराध हुआ। घर की मरम्मत कर रहे एक कारीगर ने पुरानी खिड़की को तोड़ कर नीचे गिराया, तो एक कबूतर का घोंसला भी उजाड़ दिया। तिनकों का वह बेतरतीब समवाय फर्श पर आ गिरा जो उस कबूतर और उसके दो नवजात शिशुओं का घर था। खिड़की के एक टुकड़े पर दोनों शिशु, अपनी आसन्न नियति से अनजान, अपने पैर हिला-डुला रहे थे। अभी उनकी आँखें भी नहीं खुली थीं। पंखों में कोई जान नहीं थी। यह चार्ल्स डारविन का दौ सौवाँ जन्मदिन है, इसलिए मैंने अनुमान लगाया कि जैसे हम मनुष्यों के पूर्वजों ने कभी यह तय किया होगा कि सामने के दोनों पैरों का प्रयोग हाथों के रूप में करना चाहिए, वैसे ही पक्षियों के पुरखों ने कभी यह इच्छा की होगी कि सामने के दोनों पैरों का प्रयोग पंख के रूप में करना चाहिए। तय किया था या इच्छा की थी, यह कहना शायद ठीक नहीं है। यह तथा पशु-पक्षियों में इस तरह के अन्य परिवर्तन जीवन के विकास की स्वाभाविक प्रक्रिया में ही हुए होंगे। मैंने इसके पहले पक्षियों के अंडे तो देखे थे, पर उनके नवजात शिशु नहीं। उस दिन देखा और मन में ये खयाल आए, तो यह बात भी याद आई कि देखना ही जानना है। पढ़ा है कि दर्शन शब्द की उत्पत्ति जिस धातु से हुई है, उसका अर्थ भी देखना ही है।
अपराध बोध की शुरुआत तब हुई जब हम यह सोचने लगे कि अब इन नवजात शिशुओं का क्या होगा। क्या ये जीवित रह पाएँगे? वे जिस अवस्था में थे, हम उनके लिए कुछ नहीं कर सकते थे। क्या ये भी विकास की बलि वेदी पर शहीद हो जाएँगे? हमने उनके घोंसले का जैसा-तैसा पुनर्निर्माण किया और कमरे से दूर हट कर इंतजार करने लगे कि शायद इनकी माँ आए और इनकी देखभाल करने लगे। जब अंधेरा हो आया और वह नहीं लौटी, तो हम निराश होने लगे। तभी याद आया कि एक दूसरी खिड़की पर बनाए अपने घोंसले में एक दूसरी कबूतर ने अंडे दिए हुए हैं। पत्नी ने सुझाया कि इन बच्चों को उसी घोंसले में रख दिया जाए। शायद कोई सूरत निकल आए।
अगले दिन दोपहर को जो दृश्य दिखाई पड़ा, उससे हम अभिभूत हो गए। एक कबूतर उन दोनों बच्चों के मुँह बारी-बारी से अपने मुँह में डाल कर दुलार कर रही थी। यह दृश्य अत्यन्त आनंददायक था। हममें से किसने युवा माताओं को अपने नवजात शिशुओं को दुलारते-चूमते-उठाते-बैठाते नहीं देखा होगा! उस वक्त स्त्री के चेहरे पर ही नहीं, पूरे अस्तित्व में आह्लाद की जो लहर दौड़ती रहती है, उसका कोई जोड़ नहीं है। यह वह विलक्षण सुख है जो कोई माँ ही अनुभव कर सकती है। कबूतरों की मुद्राओं में इतनी बारीक अभिव्यक्तियाँ नहीं होतीं। क्या पता होती भी हैं, पर हम उन्हें पढ़ना नहीं जानते। सचमुच, हमारे अज्ञान की कोई सीमा नहीं है। हमारे आसपास कितना कुछ घटता रहता है, पर हम उससे अवगत नहीं हो पाते। अपने व्यक्तित्व की कैद दुनिया की सबसे बदतर कैद है। थोड़ी देर बाद हमने पाया कि कबूतर दोनों बच्चों पर बैठ कर उन्हें से रही है। दोनों अंडे भी पास ही पड़े हुए थे। शायद उनके खोल में पल रहे दो जीवन भी सुरक्षित निकल आएं। अब हमने चैन की साँस ली कि हम हत्यारे नहीं हैं।
वह बेचारी कबूतर दिनभर बैठी बच्चों के जीवन में ऊष्मा भरती रही। यह तय करना असंभव था कि उसने दिनभर कुछ खाया या नहीं। हो सकता है, बीच-बीच में कुछ देर के लिए घोंसले से बाहर निकल कर वह कुछ चारे का जुगाड़ कर लेती हो। हो सकता है उसका सामयिक प्रेमी ही कुछ ला कर वहाँ रख जाता हो। जिस बात ने मुझे सबसे अधिक परेशान किया, वह यह थी कि अगर यह माँ कबूतर एक हफ्ते भी इन बच्चों (यह भी पता नहीं कि ये बच्चे उसी के थे या उसने उन्हें अनायास ही गोद ले लिया था) को सेती है, तो हम मनुष्यों की भाषा में उसके सात कार्य दिवस नष्ट हुए। अगर वह कहीं नौकरी करती होती, तो उसके सात दिन के पैसे कट जाते। इन सात दिनों तक वह ममता की कैद में अपने छोटे-से घोंसले तक सीमित रही और मुक्त आकाश में उड़ने तथा अठखेलियाँ करने से वंचित रही। इसका हरजाना कौन देगा? यह तो तय ही है कि कुछ दिनों के बाद बच्चे उड़ जाएँगे और अपनी अलग जिंदगी जीने लगेंगे। तब वे न तो अपनी माँ को पहचानेंगे और न माँ उन्हें पहचान सकेगी। एक स्त्री ने सृष्टि क्रम को आगे बढ़ाने में अपनी भूमिका अदा की और किस्सा खत्म हो गया।
बताते हैं कि आदमी के बच्चे का बचपन दुनिया के सभी जीवों में सबसे लंबा होता है। उसका गर्भस्थ जीवन भी सबसे लंबा होता है। इस पूरी अवधि में उसकी माँ को कठिन तपस्या करनी पड़ती है। उसका अपना जीवन स्थगित हो जाता है। आदमी का बच्चा ज्यादा देखरेख और सावधानी की भी माँग करता है। यह अधिकतर माँ के जिम्मे ही आता है, हालाँकि आजकल पति लोग भी कुछ सहयोग करने लगे हैं। जब संयुक्त परिवार का चलन था, तब माँ को कुछ प्रतिदान मिल जाता था। आजकल बड़ा होते ही बच्चे फुर्र से उड़ जाते हैं। वे एक ही शहर में रहते हैं, तब भी माँ -बाप से उनकी मुलाकात महीनों नहीं हो पाती। जिनके बच्चे परदेस चले जाते हैं, उनका बुढ़ापा निराश्रय और छायाहीन हो जाता है। ऐसी माँ को शुरू में भी कष्ट सहना होता है और बाद में भी। मातृत्व की इतनी बड़ी कीमत चुकाना क्या कुछ ज्यादा नहीं है? अन्य पशु-पक्षियों की तुलना में मानव माँ इतना त्याग क्यों करे? आँचल में दूध आंखों में पानी का पर्याय क्यों बने?
शायद इसीलिए पश्चिम की आधुनिक स्त्री मातृ्त्व की महिमा को ताक पर रख कर अपना जीवन जीने में कोताही नहीं करती। गर्भावस्था के आखिरी महीने ही उसकी गतिविधियों को सीमित करते हैं। गर्भ-मुक्त होते ही वह फिर पूर्ववत सक्रिय हो जाती है और बच्चे अकेले या बेबी सिटरों की निगरानी में पलते-बढ़ते हैं। बाद में बच्चों को व्यस्त रखने के लिए खिलौने के ढेर, टेलीविजन और वीडियो गेम दे दिए जाते हैं। हमारे महानगरों में भी यह चलन शुरू हो गया है। स्त्रियाँ माता का पुराना लंबा रोल निभाना नहीं चाहतीं। यह कैसे तय किया जाए कि माँ की पुरानी भूमिका अच्छी थी या आज की भूमिका अच्छी है? पहली भूमिका में माँ का जीवन त्याग-तपस्या से भरा होता है और दूसरी भूमिका के कारण दुनिया में ऐसे लोगों की तादाद बढ़ रही है जिन्होंने माँ -बाप का प्यार जाना ही नहीं। जाहिर है, जिसे प्यार नहीं मिला, वह प्यार दे भी नहीं सकता। क्या कोई और रास्ता भी है, जिसमें माँओं को अपना जीवन स्थगित न करना पड़े और बच्चों को भी भरपूर प्यार मिल सके?
सोमवार, 23 फ़रवरी 2009
प्रत्येक संबंध एक नाजुक खिलौना है
रसांतर
चाँद मुहम्मद की दूसरी पत्नी फिजा का छटपटाना, रोना-धोना और न्याय के लिए सबसे फरियाद करना जिसे प्रभावित न करे, उसका दिल बहुत कठोर हेगा। उन्हें तो हृदयहीनही मानना चाहिए जिनके लिए यह हास-परिहास और मनोरंजन का विषय है। टीवी वालों के लिए कोई भी मेलोड्रामा, उस पर विषाद की चाहे जितनी गहरी छाया हो, जश्न मनाने की चीज होती है। शायद ही कोई दूसरा पेशा हो जिसमें किसी का दुख किसी और का सुख बन जाता है। डॉक्टरी और वकीली को कुछ हद तक ऐसा कहा जा सकता है। सो हमारे समाचार चैनल फिजा की ट्रेजेडी को देश भर में इस तरह फैला रहे हैं मानो कोई इस घटना के किसी पहलू से अपरिचित रह गया, तो उसके जीवन में बहुत बड़ा शून्य आ जाएगा।
आज फिजा की जो मनोदशा है, वही मनोदशा कुछ महीने पहले चाँद मुहम्मद की पहली पत्नी सीमा की थी। यह भी कहा जा सकता है कि दूसरी पत्नी को जो मिल रहा था, पहली पत्नी उससे कहीं बहुत ज्यादा खो रही थी। चाँद मुहम्मद बनने के पहले चंद्रमोहन ने अपनी सारी संपत्ति पहली पत्नी सीमा के नाम कर दी, इससे कोई तसल्ली नहीं मिलती। चंद्रमोहन ने अपनी समझ से क्षतिपूर्ति या न्याय की दिशा में एक बड़ा कदम उठाया था, पर जैसा कि बाइबल में कहा गया है, जिंदगी सिर्फ रोटी के सहारे नहीं चलती। रोटी तो अनुराधा बाली के पास भी थी, पर उसे चाँद चाहिए था। यह बात मीडिया संचालकों को नहीं पता हो, यह नहीं हो सकता। वे भी सिर्फ लंच और डिनर के सहारे जिंदगी नहीं काट रहे होंगे। लेकिन न तब अब सीमा की मनस्थिति के बारे में जानने की उत्सुकता किसी को थी और न अब है। जब सीमा का बहुत कुछ लुट रहा था, तो उसमें कुछ मजा नहीं था। अब, जब कि फिजा अपने लुटेहुएपन पर विलाप कर रही है, तो सभी को इसमें जानने की सामग्री मिल रही है। यही जीवन है। लेकिन क्या यही जीवन है?
बेशक, सीमा का हश्र एक ऐसी कठोर ट्रेजेडी है जिसमें कुछ भी नया नहीं है। जिनके मर्द उन्हें छोड़ कर चले गए हैं, ऐसी औरतों की संख्या हर साल बढ़ती जाती है। ऐसे उदाहरण कम मिलते हैं कि किसी ने दूसरी स्त्री को विधिवत अपना बनाने के लिए धर्म परिवर्तन कर लिया हो और राजपाट को खतरे में डाल लिया हो। जब कोई पुरुष या स्त्री पहले विवाह के लिए ऐसा करता है या करती है, तब इसे त्याग और उत्सर्ग का महान उदाहरण माना जाता है। यह है भी। दूसरी स्त्री के लिए ऐसा करने में आदर्शवाद कम है, रोमांस ज्यादा। इसीलिए चाँद-फिजा की जोड़ी एक दिलचस्प खबर बन गई। उससे भी दिलचस्प खबर तब बनी जब चाँद मुहम्मद के जीवन में उतना ही बड़ा एक और मोड़ आया। सुहागरात के रंग अभी फीके भी नहीं पड़े थे कि वह अपनी महबूबा से बीवी बनी स्त्री को त्याग कर अचानक अदृश्य हो गया। फिजा के लिए यह एक मौका था कि वह अपनी परित्यक्त सह-पत्नी सीमा की वेदना से संवेदित होती। पर अपना दुख सभी को ज्यादा भारी लगता है। कोई कर्मफलवादी आस्तिक कहेगा कि बोया पेड़ बबूल का आम कहाँ से खाय।
लेकिन मामला इतना सीधा नहीं है। सीमा से चंद्रमोहन का संबंध वास्तविक ही रहा होगा, जैसे फिजा से चाँद मुहम्मद का संबंध वास्तविक था। पति-पत्नी के बीच दरार क्यों आई, हम नहीं जानते। चाँद मुहम्मद अपनी नवविवाहिता फिजा को छोड़ कर अचानक क्यों चलता बना, यह भी हम नहीं जानते। ये जानकारियाँ होने से मानव संबंधों के वितान के बारे में हमारा ज्ञान बढ़ता और युग्म जीवन की तमन्ना रखने वाले भावी स्त्री-पुरुष कुछ अधिक सावधान होते। लेकिन दो व्यक्तियों के बीच क्या चल रहा है या क्या घटित हुआ होगा, यह जानना हमारे अधिकारक्षेत्र के बाहर है। शायद यह सब जानने में हमें बहुत ज्यादा दिलचस्पी भी नहीं होनी चाहिए। शायद हम पूरा-पूरा जान भी नहीं सकते। शायद वे दोनों भी पूरी तरह नहीं समझते होते, क्योंकि आपस का मामला होने के साथ-साथ यह दो जनों का अपना-अपना मामला भी है। इसलिए ऐसे विषयों पर चर्चा करना कभी भी खतरे से खाली नहीं होता। इसीलिए इन पर बातचीत करते समय बहुत सावधान रहने की जरूरत है। भले ही इसके अनंत सामाजिक आयाम हों, पर अंतत: यह एक व्यक्तिगत ट्रेजेडी है।
इस सिलसिले में दो बातें बिलकुल स्पष्ट हैं। पहली बात यह है कि दो-दो स्त्रियों के साथ अन्याय हुआ है। पहली स्त्री के साथ हुए अन्याय में चाँद और फिजा, दोनों ही कुछ हद तक शामिल थे। फिजा के साथ हो रहे अन्याय में फिलहाल सिर्फ चाँद दोषी जान पड़ता है। लेकिन हो यह भी सकता है कि फिजा की किसी बात ने उसे यह ड्रास्टिक कदम लेने के लिए मजबूर कर दिया हो। दूसरी बात यह है कि इस पूरे काण्ड में जिस चीज की सबसे ज्यादा तौहीन हुई है, वह है धर्म। क्या चंद्रमोहन और अनुराधा बाली नाम के वास्ते हिन्दू थे? क्या चाँद और फिजा नाम के वास्ते मुसलमान बने? फिर तो हमें हिन्दू-मिसलमान होने का दावा छोड़ ही देना चाहिए। जिस धार्मिक पदाधिकारी ने दोनों को इस्लाम में दाखिल किया, उसकी गुनहगारी भी कुछ कम नहीं है। अब कोई धर्म-रक्षक मौलाना यह फतवा दे रहा है कि चाँद मुहम्मद का अपनी हिन्दू पत्नी के साथ दुबारा घर बसाना इस्लाम के उसूलों के खिलाफ है। लेकिन जब पहली पत्नी के रहते हुए दूसरी शादी करने के लिए इस्लाम का दुरुपयोग किया जा रहा था, तब किसी ने इस धूर्तता की निंदा नहीं की। यह कैसी धार्मिकता है जो अधर्म को बरदाश्त ही नहीं, प्रोत्साहित भी करती है?
तीन व्यक्तियों के इस नाटकीय घटनाक्रम के आईने में हमारी नजर एक स्थायी सत्य पर भी जानी चाहिए। यह विषादपूर्ण सत्य है मानव संबंधों की नाजुकता। प्रकृति में स्थायी संबंध बहुत कम होते हैं। सब कुछ नदी-नाव संबंध पर आधारित होता है। हमारे पुरखों ने मनुष्य और मनुष्य के बीच, खासकर नर-नारी के बीच, स्थायी संबंध की परिकल्पना की। इसके लिए कायदा-कानून बनाए। धर्म और ईश्वर को भी बीच में डाला। इस व्यवस्था में सबसे ज्यादा अन्याय स्त्री के साथ हुआ। उसकी पीठ पर सभ्यता को बनाए रखने का पूरा बोझ लाद दिया गया। इससे उसका अपना व्यक्तित्व तिरोहित होने लगा। परिणामस्वरूप पुरुष व्यक्तित्व में भी गंभीर विकृतियाँ आईं। इस बीच ऐसे बहुत-से विद्रोही स्त्री-पुरुष हुए जिन्होंने इस व्यवस्था का बंदी होने से इनकार कर दिया। आज, आर्थिक व्यवस्थाएं बदलने से, यह प्रक्रिया जोरों पर है।
इसके साथ ही स्त्री-पुरुष संबंधों की वास्तविकता भी सामने आ रही है। जब व्यक्ति पराधीन होते हैं, तब वे सच को नहीं जीते -- नाटक करते हैं। जब वे अचानक स्वाधीन हो जाते हैं, तो उनके व्यवहार में उच्छृंखलता आ जाती है। आज के समय में दोनों ही चीजें एक साथ देखी जा सकती हैं -- खासकर भारत जैसे समाजों में, जहाँ परंपरा की ताकतें बहुत कमजोर नहीं हुई हैं और आधुनिकता की शक्तियाँ बहुत मजबूत नहीं हो पाई हैं। भविष्य की अपेक्षाकृत संतुलित व्यवस्था में संबंध शायद ज्यादा टिकाऊ हों, पर तब भी यह बुनियादी सचाई अपनी जगह बनी रहेगी कि किसी भी संबंध को बनाए रखना हँसी-खेल नहीं है। यह एक ऐसा नाजुक खिलौना है जो जरा-सी ठेस लगते ही टुकड़े-टुकड़े हो सकता है।
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शनिवार, 21 फ़रवरी 2009
क्योंकि लिपस्टिक आपके पेट में जाती है
क्योंकि लिपस्टिक आपके पेट में जाती है
महिलाओं ही के लिए नहीं अपितु यह पुरुषों के लिए भी जानना जरूरी है कि लिपस्टिक क्या कर सकती है। क्योंकि .. आख़िर उन्हें भी अपने परिवार की स्त्रियों की चिंता का अधिकार है न?
यह संदेश एक मित्र ने इन पंक्तियों के साथ भेजा कि -
" मैंने भी जाँचा और मेरी ४ में से ३ लिपस्टिक काली हो गईं अब से हर बार लिपस्टिक की खरीद से पहले इस प्रयोग को करने का नियम बना रही हूँ।"
क्या है यह प्रयोग ? आप भी जानिए और हर बार की खरीद से पहले परख का नियम बना लीजिए। अपनी मित्रों व परिवार की अन्य महिलाओं को भी बताइये।
Something to consider
Lipstick.......
Who works in the breast cancer unit
at
Mt.Sinai Hospital , in Toronto
From: Dr. Nahid Neman
I am also sharing this with the males on my e-mail list,
Because they need to tell the females
THEY care about as well!
Recently a lipstick brand called 'Red Earth'
Decreased their prices from
$67�to�$9.90.
It contained lead.
Lead is a chemical which causes cancer.
The lipstick brands that contain lead are:
CHRISTIAN DIOR
LANCÔME
CLINIQUE
Y.S.L
ESTEE LAUDER
SHISEIDO
RED EARTH (Lip Gloss)
CHANEL (Lip Conditioner)
MARKET AMERICA-MOTNES LIPSTICK.
The higher the lead content,
The greater the chance of causing cancer.
After doing a test on lipsticks,
It was found that the Y.S..L. Lipstick
Contained the most amount of lead.
Watch out for those lipsticks
Which are supposed to stay longer.
If your lipstick stays longer, it is
Because of the higher content of lead.
Here is the test you can do yourself:
1. Put some lipstick on your hand.
2. Use a Gold ring to scratch on the lipstick.
3. If the lipstick colour changes to black,
Then you know the lipstick contains lead.
Please send this information to all your girlfriends,
Wives and female family members.
This information is being circulated at
Walter Reed Army Medical Centre
Dioxin Carcinogens cause cancer,
Especially breast cancer
मंगलवार, 17 फ़रवरी 2009
अश्लील है तुम्हारा पौरुष
एकालाप
पहले वे
लंबे चोगों पर सफ़ेद गोल टोपी
पहनकर आए थे
और
मेरे चेहरे पर तेजाब फेंककर
मुझे बुरके में बाँधकर चले गए थे.
आज वे फिर आए हैं
संस्कृति के रखवाले बनकर
एक हाथ में लोहे की सलाखें
और दूसरे हाथ में हंटर लेकर.
उन्हें शिकायत है मुझसे !
औरत होकर मैं
प्यार कैसे कर सकती हूँ ,
सपने कैसे देख सकती हूँ ,
किसी को फूल कैसे दे सकती हूँ !
मैंने किसी को फूल दिया
- उन्होंने मेरी फूल सी देह दाग दी.
मैंने उड़ने के सपने देखे
- उन्होंने मेरे सुनहरे पर तराश दिए.
मैंने प्यार करने का दुस्साहस किया
- उन्होंने मुझे वेश्या बना दिया.
वे यह सब करते रहे
और मैं डरती रही, सहती रही,
- अकेली हूँ न ?
कोई तो आए मेरे साथ ,
मैं इन हत्यारों को -
तालिबों और मुजाहिदों को -
शिव और राम के सैनिकों को -
मुहब्बत के गुलाब देना चाहती हूँ.
बताना चाहती हूँ इन्हें --
''न मैं अश्लील हूँ , न मेरी देह.
मेरी नग्नता भी अश्लील नहीं
-वही तो तुम्हें जनमती है!
अश्लील है तुम्हारा पौरुष
-औरत को सह नहीं पाता.
अश्लील है तुम्हारी संस्कृति
- पालती है तुम-सी विकृतियों को !
''अश्लील हैं वे सब रीतियाँ
जो मनुष्य और मनुष्य के बीच भेद करती हैं.
अश्लील हैं वे सब किताबें
जो औरत को गुलाम बनाती हैं ,
-और मर्द को मालिक / नियंता .
अश्लील है तुम्हारी यह दुनिया
-इसमें प्यार वर्जित है
और सपने निषिद्ध !
''धर्म अश्लील हैं
-घृणा सिखाते हैं !
पवित्रता अश्लील है
-हिंसा सिखाती है !''
वे फिर-फिर आते रहेंगे
-पोशाकें बदलकर
-हथियार बदलकर ;
करते रहेंगे मुझपर ज्यादती.
पहले मुझे निर्वस्त्र करेंगे
और फिर
वस्त्रदान का पुण्य लूटेंगे.
वे युगों से यही करते आए हैं
- फिर-फिर यही करेंगे
जब भी मुझे अकेली पाएँगे !
नहीं ; मैं अकेली कहाँ हूँ ....
मेरे साथ आ गई हैं दुनिया की तमाम औरतें ....
--काश ! यह सपना कभी न टूटे !
- ऋषभ देव शर्मा
पुरुषों के विरुद्ध एक अविश्वास प्रस्ताव
जहाँ आत्मीयता होती है, वहाँ भी लोग ठगे जाने से बचने की कोशिश करते हैं। यह सावधानी स्त्री-पुरुष व्यवहार में और ज्यादा अपेक्षित है, क्योंकि अब तक के इतिहास की सीख यही है। इसलिए माता-पिता और अभिभावकों का यह एक मूल कर्तव्य है कि वे लड़की को लड़की के रूप में विकसित होते समय ही उन फंदों और गड्ढों से अवगत कराते रहें जो आगे उसकी राह में आनेवाले हैं। इसके साथ ही, उसे निर्भय होने और स्व-रक्षा में सक्षमता की शिक्षा भी देनी चाहिए। लेकिन इस कीमत पर नहीं कि मानवता में ही उसका विश्वास डिग जाए। बहुत ही प्रेम और समझदारी से उसमें यह बोध पैदा करना होगा कि लोग सभी अच्छे होते हैं, पर हमेशा सचेत रहना चाहिए कि वे बुरे भी हो सकते हैं। लड़कियों को यह सीख भी दी जानी चाहिए कि यह बहुत गलत होगा अगर अति सावधानी के परिणामस्वरूप वे किसी पुरुष से आत्मीय रिश्ता बना ही न पाएँ। घृणा तो किसी से भी न करो – ज्ञात पापी से भी नहीं, सभी को प्रेम और विश्वास दो, पर अपनी सुरक्षा की कीमत पर नहीं।
रसांतर
यह घटना कितनी सत्य है और कितनी मनगढ़ंत, पता नहीं। लेकिन भारत में ही नहीं, दुनिया के एक बड़े भूभाग में इस तरह की घटनाएँ सहज संभाव्य हैं और होती ही रहती हैं। इसीलिए मेरा यह विश्वास बना है कि स्त्रियों को पुरुषों पर कभी विश्वास नहीं करना चाहिए – चाहे वे गुरु हों, शिक्षक हों, चाचा, मामा, मौसा-ताऊ हों, मुँहबोले भाई हों, पड़ोसी हों, मेहमान हों, शोध गाइड हों, संपादक हों, प्रकाशक हों, अकादमीकार हों, नियोक्ता हों, मैनेजर हों, पुजारी हों, पंडे हों – कुछ भी क्यों न हों। कई हजार वर्षों की मानसिकता जाते-जाते ही जाएगी। इस संक्रमण काल में स्त्री को बहुत अधिक सावधान रहने की जरूरत है – खासकर अपने शुभचिंतकों से। इसका मतलब यह नहीं है कि हर पुरुष को संदेह की नजर से देखो। इससे तो सब कुछ कबाड़ा हो जाएगा। नहीं, किसी पर भी अनावश्यक संदेह मत करो। विश्वास का अवसर हरएक को दिया जाना चाहिए। लेकिन सावधानी का दीपक हाथ से कभी नहीं छूटना चाहिए। दीपक बुझा कि परवाना लपका।
वैसे, जीवन के एक सामान्य सिद्धांत के तौर पर भी यह सही है। पुरुष पुरुष पर कितना विश्वास करते हैं? स्त्री स्त्री पर कितना विश्वास करती हैं? जहाँ आत्मीयता होती है, वहाँ भी लोग ठगे जाने से बचने की कोशिश करते हैं। यह सावधानी स्त्री-पुरुष व्यवहार में और ज्यादा अपेक्षित है, क्योंकि अब तक के इतिहास की सीख यही है। इसलिए माता-पिता और अभिभावकों का यह एक मूल कर्तव्य है कि वे लड़की को लड़की के रूप में विकसित होते समय ही उन फंदों और गड्ढों से अवगत कराते रहें जो आगे उसकी राह में आनेवाले हैं। इसके साथ ही, उसे निर्भय होने और स्व-रक्षा में सक्षमता की शिक्षा भी देनी चाहिए। लेकिन इस कीमत पर नहीं कि मानवता में ही उसका विश्वास डिग जाए। बहुत ही प्रेम और समझदारी से उसमें यह बोध पैदा करना होगा कि लोग सभी अच्छे होते हैं, पर हमेशा सचेत रहना चाहिए कि वे बुरे भी हो सकते हैं। लड़कियों को यह सीख भी दी जानी चाहिए कि यह बहुत गलत होगा अगर अति सावधानी के परिणामस्वरूप वे किसी पुरुष से आत्मीय रिश्ता बना ही न पाएँ। घृणा तो किसी से भी न करो – ज्ञात पापी से भी नहीं, सभी को प्रेम और विश्वास दो, पर अपनी सुरक्षा की कीमत पर नहीं। हर संबंध की तरह स्त्री-पुरुष संबंध भी एक जुआ है, लेकिन यह जुआ खेलने लायक है, क्योंकि इसी रास्ते हम अपने मनपसंद साथी खोज सकते हैं। इस प्रक्रिया में दुर्घटनाएँ होती हैं, तो होने दो। डरो नहीं, न परिताप करो। लेकिन आँख मूँद कर उस रास्ते पर कभी मत चलो जिसके बारे में तुम्हें पता नहीं कि उस पर आगे क्या-क्या बिछा और फेंका हुआ है। यह संतुलन साधना मामूली बात नहीं है, लेकिन अच्छा जीवन जी पाना भी क्या मामूली बात है?
लड़कियों की एक पुरानी मंडी का नया सफर
वरना, जिस समाज और देश और काल में अभी ऐसा बर्ताव 80% सच का हिस्सा है, उस समाज में कोई इक्का- दुक्का लोग स्त्री के मानवाधिकारों की बात करते हैं तो बहुधा लोगों के पेट में ऐंठन क्यों होने लगती है ? क्यों धिक्कार, हिकारत और तिरस्कार शुरू हो जाता है? जिस संसार में कुत्ते-बिल्लियों, पशु- पक्षियों तक के प्रति सम्यक संवेदनापूर्ण मानवीय आचरण की अपेक्षा की जाती है, उस संसार में स्त्री-जीवन के ये सच आप-हम को क्यों नहीं रुलाते? क्यों नहीं झूठे थोथे अंहकार को त्याग कर सब अधिक मानवीय बन स्त्री-मुक्ति के अभियान में स्वयं भी जुट जाते? क्यों स्त्री -प्रश्न आज भी हास्य या वर्जित के श्रेणी में हैं? क्यों स्त्री मुद्दों पर जुटने वाली पुरूष-भीड़ बहुधा 'बहाने से लुत्फ़ उठाने' की मानसिकता के वशीभूत जुटती है? प्रश्न बहुत-से हैं, उत्तर केवल एक है। वह उत्तर सब को अपने मन के भीतर उतर कर स्वयं टटोलना है। ऐसा न हो चिड़िया खेत चुग जाए और आप सोते रहें.
आप आलोक तोमर जी के सौजन्य से प्राप्त गीताश्री पाकुड़ के इस यथार्थवादी लेख को पढ़िए और जानिए भारत की धरती पर स्त्री की असल स्थिति को, जो आँख खोलने के लिए काफी होना चाहिए कि स्थिति कितनी भयावह है स्त्री की ।
- कविता वाचक्नवी
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गीताश्री पाकुड़, झारखंड से लौटकर
सुशांति मरांडी अब कभी अपनों का भरोसा नहीं कर पाएगी। उसे गैरो ने नहीं, अपनों ने छला है। जब 6 साल की थी तब उसके पिता की मौत खेत में हल चलाते समय ठनका यानी बिजली गिरने से हो गई। इस घटना के छह महीने भी नहीं हुए कि सुशांति ने अपनी मां खो दी। नन्हीं सी जान पर इतनी कम उम्र में ही दुख का पहाड़ टूट पड़ा।
उस समय वह अकेली, बेसहारा-सी पड़ी थी। दूर के एक रिश्तेदार ने उसकी सुध ली। खुद को उसका भाई बताते हुए अपने साथ चलने को कहा। अनाथ और बेसहारा लड़की उंगली थामे चल पड़ी। क्या पता था कि आसान और चैन वाली जिंदगी की तलाश उसे किसी अंधेरे गुफा की तरफ ले जा रही है।उस कथित भाई ने सुशांति को दिल्ली ले जाकर एक पंजाबी परिवार में छोड़ दिया, इस वायदे के साथ कि वह 2-3 दिन में अपना काम करके लौट कर आयेगा। सुशांति इतनी कच्ची उम्र में कुछ समझ नहीं पाई। उस घर में काम करते हुए जिंदगी के 7 साल बिता दिए।
वह कथित भाई कभी ना लौटा। गाँव छूटा, बचपन गया और यातना का सिलसिला शुरु हुआ। रोज शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न के बीच जेहन में गांव का नाम अब भी बसा हुआ था। एक दिन सामान लेने के बहाने बाहर निकली, दुकानदार की मदद से रेलवे स्टेशन और फिर अपने गांव लौट आई। मगर सुशांति के जीवन में जैसे शांति की कोई जगह ही नहीं थी। अपने गांव में भी तिरस्कार और मुश्किलें उसकी प्रतीक्षा कर रही थीं।सुशांति बताती है कि वह अपने घर बेल पहाड़ी आई परंतु वहाँ उसका घर भी किसी ने हड़प लिया था। सुशांति भूख-प्यासी अपने गाँव के करीब पड़ी थी। वहीं एक आदमी ने सुशांति को देखा जो पाकुड़िया के किशोरी निकेतन के बारे में जानता था। वह उसे किशोर निकेतन लेकर आया। अब सुशांति यहीं रहती है।
पाकुड़ की ही रहने वाली एक और बच्ची का बचपन कुछ इसी तरह छीन गया। अपने माँ-बाप, चार बहन और एक भाई के साथ राधानगर गाँव में रहने वाली श्रीमुनी हेम्ब्रम के परिवार में यूँ तो कई परेशानियां थीं लेकिन सबसे बड़ी परेशानी थी परिवार की गरीबी। घर चलाना जब मुश्किल होने लगा तो श्रीमुनी के पिता ने उसे भी एक पत्थर कारखाने में काम पर लगा दिया। तब श्रीमुनी की उम्र थी 10 साल। परिवार वालों ने जाने किस मजबूरी में कभी पलट कर नहीं देखा।
पत्थर तोड़ते चार साल जैसे-तैसे गुजरे। श्रीमुनी ने कोशिश की कि पत्थर कारखाने से बाहर निकला जाये। उसने जब मालिकों से बात की तो मालिकों ने साफ मना कर दिया। आखिर में श्रीमुनी एक दिन चुपके से पत्थर कारखाने से भाग खड़ी हुई। सीधा जा पहुँची अपने गाँव। लेकिन गाँव में जिस सच्चाई से सामना हुआ, वह पत्थर से कहीं ज्यादा कठोर थी। गाँव में उसका कोई भी परिजन नहीं था, न माँ, न बाप। भाई-बहन भी नहीं। पता चला, उसका पूरा परिवार कहीं कमाने-खाने चला गया है।
किसी तरह वह गाँव के एक आदमी के साथ किशोरी निकेतन पहुँची। अब यहीं वह अपनी जिंदगी के पन्नों को दुरुस्त करने में लगी है। उसने टोकरी बनाना सीखा और अब दूसरों को यह काम सीखा रही है। उसकी पढ़ाई तो चल ही रही है। पाकुड़ के गाँवों में सुशांति और श्रीमुनी जैसी कई-कई लड़कियाँ हैं। इस जंगली इलाके में इन लड़कियों का दुख जंगल से भी कहीं ज्यादा घुप्प और गहरा है। किसी का बचपन छीन गया है तो किसी की जवानी और कोई तस्करी के अंधेरे में खो गया है। कई लड़कियों का अब तक नहीं पता कि वे कहाँ और किस हाल में हैं।
बांग्लादेश की सीमा से लगा है झारखंड का पाकुड़ और साहेबगंज यानी संथाल परगना का इलाका। उच्च गुणवत्ता वाले पत्थर इस इलाके की पहचान हैं लेकिन इन्हीं पत्थरों के कारण इस इलाके की पहचान बदल रही है और अब यह हिस्सा लड़कियों की तस्करी का गढ़ के रुप में जाना जाने लगा है। होता ये है कि इस इलाके से ट्रकों में पत्थर लाद कर बांग्लादेश ले जाया जाता है। पत्थर निकालने एवं ट्रक पर पत्थर भरने का काम ज्यादातर लड़कियाँ ही करती हैं। यहीं से शुरु हो जाता हैं इनकी तस्करी और यौन शोषण का रास्ता।
झारखंड के एटसेक यानी एक्शन एगेंस्ट ट्रैफिकिंग सेक्सुअल एक्सप्लाएटेशन ऑफ़ चिल्ड्रेन के राज्य संयोजक संजय मिश्रा स्थिति की भयावहता के बारे में बताते हैं कि कैसे काले पत्थर की खान और उसके निर्यात से आदिवासी लड़कियों की जिंदगी काली होती जा रही है। संजय कहते हैं- तस्करी की वजह से एक जनजाति का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है। पाकुड़ से पहाड़िया जनजाति खत्म हो रही है। गिनती के परिवार बच गए हैं। उनकी जगह बांग्लादेशी आकर बस रहे हैं। खासकर वहाँ की लड़कियों की संख्या बढ़ती जा रही है।
इस समस्या की गंभीरता पर संजय मिश्रा ने ही प्रशासन का ध्यान खींचा। उन्होंने इस मुद्दे पर व्यापक अध्ययन करने के बाद एक गैर सरकारी संगठन मानवी के साथ मिलकर पिछले साल मई में एक सेमिनार का आयोजन करवाया, उसके बाद प्रशासन की नींद खुली। संजय बताते हैं - मानव तस्करी पाकुड़ जिले के आसपास ही ज्यादा फल फूल रही है। एक तरह से यह इलाका देह बाजार के रुप में कुख्यात हो रहा है। खास कर हिरनपुर में आदिवासी लड़कियों के बीच देह व्यापार एक धंधे का रुप ले चुका है। यहाँ से बाकायदा आदिवासी लड़कियाँ लगातार बांग्लादेश के बाजारों में बेची और भेजी जा रही हैं।
एटसेक ने अपनी पहल पर सिर्फ पाकुड़ जिले में तस्करी की संभावना को देखते हुए दो वीजीलेंस कमिटी का गठन किया है, जो इस पूरे मामले पर नजर रखे हुए है। इनकी सजगता का नतीजा है कि ये लोग समय-समय पर वहाँ लड़कियों को तस्करों के चंगुल से मुक्त कराते रहते हैं। प्रशासन को नींद से जगाने वाली संस्थाओं को भी धीरे धीरे उनका सहयोग मिलने लगा है। अब आए दिन पाकुड़ की देह मंडी से लड़कियाँ बरामद होकर संजय मिश्रा के रांची और पाकुड़ किशोरी निकेतन में पहुंचने लगी हैं।
संजय दावा करते हैं कि उनके संगठन ने अब तक 372 आदिवासी लड़कियों को विभिन्न राज्यों समेत बांग्लादेश से मुक्त करवाया है। एटसेक के आंकड़ो के अनुसार झारखंड की 1.23 लाख आदिवासी लड़कियाँ देश के विभिन्न शहरों में घरेलू नौकरानी के रुप में काम कर रही हैं, जिनमें 2339 दिल्ली में हैं, बाकी हरियाणा, मुंबई और उत्तर प्रदेश के कुछ शहरों में हैं। संजय दुख और चिंता जताते हुए कहते हैं - हिरन पुर में महिला मंडी, पशु हाट से ज्यादा दूरी पर नहीं था। ये सभी अच्छी तरह जानते हैं कि यहाँ से हजारों की तादाद में गैर कानूनी तरीके से पशु भी बांग्लादेश भेजे जाते हैं। लेकिन ये महिलाएँ भी उन्हीं पशुओं की तरह ट्रीट की जाती हैं और ये सिलसिला अब भी जारी है।
असल में राज्य के पुलिस अधिकारी भी नहीं जानते कि लड़कियों की तस्करी के मामले में कानूनी प्रावधान क्या-क्या हैं। इममोरल ट्रैफिकिंग प्रिवेंशन एक्ट में कितनी कड़ी सजा का प्रावधान है, इसका अहसास भी इन पुलिस अधिकारियों को नहीं था। आखिर में स्वयंसेवी संस्थाओं की पहल पर इस मुद्दे पर पुलिस की कार्यशालायें हुईं और मानव तस्करी पर रोक लगाने के लिए बकायदा टास्क फोर्स का भी गठन किया गया। इन कोशिशों का ही नतीजा है कि इलाके में मानव तस्करी के मामले में कमी आई है लेकिन क्या इसे जड़ से खत्म नहीं किया जा सकता ? संजय मिश्रा कहते हैं- मांग है तो आपूर्ति रहेगी ही। हमें समाज के सोचने के तरीके को बदलना होगा।
शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2009
उनके पौरुष का नशा / वे स्त्री-विरोधी हैं... ..
"राम के नाम पर यह कैसा काम ? लड़के पिएँ तो कुछ नहीं और लड़कियाँ पिएँ तो हराम ? पब से सिर्फ़ लड़कियों को पकड़ना, घसीटना और मारना - इसका मतलब क्या हुआ? क्या यह नहीं कि हिंसा करने वाले को शराब की चिंता नहीं है बल्कि लड़कियों की चिंता है। वे शराब-विरोधी नहीं हैं, स्त्री-विरोधी हैं। यदि शराब पीना बुरा है, मदिरालय में जाना अनैतिक है, भारतीय सभ्यता का अपमान है, तो क्या यह सब तभी है, जब स्त्रियाँ वहाँ जाएँ? यदि पुरुष जाए तो क्या यह सब ठीक हो जाता है? इस पुरुषवादी सोच का नशा अंगूर की शराब के नशे से ज्यादा खतरनाक है। शराब पीकर पुरुष जितने अपराध करते हैं, उस से ज्यादा अपराध वे पौरुष की अकड़ में करते हैं। इस देश में पत्नियों के विरूद्ध पतियों के अत्याचार की कथाएँ अनंत हैं। कई मर्द अपनी बहनों और बेटियों की हत्या इसलिए कर देते हैं कि उन्होंने गैर-जाति या गैर- मजहब के आदमी से शादी कर ली थी। जीती हुई फौजें हारे हुए लोगों की स्त्रियों से बलात्कार क्यों करती हैं ? इसलिए कि उन पर उनके पौरुष का नशा छाया रहता है। बैगलूर के तथाकथित राम-सैनिक भी इसी नशे का शिकार हैं। उनका नशा उतारना बेहद जरूरी है। स्त्री-पुरुष समता का हर समर्थक उनकी गुंडागर्दी की भर्त्सना करेगा।"
सामयिक घटना पर केंद्रित विचारोत्तेजक व संतुलित लेख -
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रविवार, 8 फ़रवरी 2009
ब्यूटी की ड्यूटी
करीना कपूर के बहाने
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