सोमवार, 23 फ़रवरी 2009

प्रत्येक संबंध एक नाजुक खिलौना है




रसांतर
प्रत्येक संबंध एक नाजुक खिलौना है



चाँद मुहम्मद की दूसरी पत्नी फिजा का छटपटाना, रोना-धोना और न्याय के लिए सबसे फरियाद करना जिसे प्रभावित न करे, उसका दिल बहुत कठोर हेगा। उन्हें तो हृदयहीनही मानना चाहिए जिनके लिए यह हास-परिहास और मनोरंजन का विषय है। टीवी वालों के लिए कोई भी मेलोड्रामा, उस पर विषाद की चाहे जितनी गहरी छाया हो, जश्न मनाने की चीज होती है। शायद ही कोई दूसरा पेशा हो जिसमें किसी का दुख किसी और का सुख बन जाता है। डॉक्टरी और वकीली को कुछ हद तक ऐसा कहा जा सकता है। सो हमारे समाचार चैनल फिजा की ट्रेजेडी को देश भर में इस तरह फैला रहे हैं मानो कोई इस घटना के किसी पहलू से अपरिचित रह गया, तो उसके जीवन में बहुत बड़ा शून्य आ जाएगा।



आज फिजा की जो मनोदशा है, वही मनोदशा कुछ महीने पहले चाँद मुहम्मद की पहली पत्नी सीमा की थी। यह भी कहा जा सकता है कि दूसरी पत्नी को जो मिल रहा था, पहली पत्नी उससे कहीं बहुत ज्यादा खो रही थी। चाँद मुहम्मद बनने के पहले चंद्रमोहन ने अपनी सारी संपत्ति पहली पत्नी सीमा के नाम कर दी, इससे कोई तसल्ली नहीं मिलती। चंद्रमोहन ने अपनी समझ से क्षतिपूर्ति या न्याय की दिशा में एक बड़ा कदम उठाया था, पर जैसा कि बाइबल में कहा गया है, जिंदगी सिर्फ रोटी के सहारे नहीं चलती। रोटी तो अनुराधा बाली के पास भी थी, पर उसे चाँद चाहिए था। यह बात मीडिया संचालकों को नहीं पता हो, यह नहीं हो सकता। वे भी सिर्फ लंच और डिनर के सहारे जिंदगी नहीं काट रहे होंगे। लेकिन न तब अब सीमा की मनस्थिति के बारे में जानने की उत्सुकता किसी को थी और न अब है। जब सीमा का बहुत कुछ लुट रहा था, तो उसमें कुछ मजा नहीं था। अब, जब कि फिजा अपने लुटेहुएपन पर विलाप कर रही है, तो सभी को इसमें जानने की सामग्री मिल रही है। यही जीवन है। लेकिन क्या यही जीवन है?


बेशक, सीमा का हश्र एक ऐसी कठोर ट्रेजेडी है जिसमें कुछ भी नया नहीं है। जिनके मर्द उन्हें छोड़ कर चले गए हैं, ऐसी औरतों की संख्या हर साल बढ़ती जाती है। ऐसे उदाहरण कम मिलते हैं कि किसी ने दूसरी स्त्री को विधिवत अपना बनाने के लिए धर्म परिवर्तन कर लिया हो और राजपाट को खतरे में डाल लिया हो। जब कोई पुरुष या स्त्री पहले विवाह के लिए ऐसा करता है या करती है, तब इसे त्याग और उत्सर्ग का महान उदाहरण माना जाता है। यह है भी। दूसरी स्त्री के लिए ऐसा करने में आदर्शवाद कम है, रोमांस ज्यादा। इसीलिए चाँद-फिजा की जोड़ी एक दिलचस्प खबर बन गई। उससे भी दिलचस्प खबर तब बनी जब चाँद मुहम्मद के जीवन में उतना ही बड़ा एक और मोड़ आया। सुहागरात के रंग अभी फीके भी नहीं पड़े थे कि वह अपनी महबूबा से बीवी बनी स्त्री को त्याग कर अचानक अदृश्य हो गया। फिजा के लिए यह एक मौका था कि वह अपनी परित्यक्त सह-पत्नी सीमा की वेदना से संवेदित होती। पर अपना दुख सभी को ज्यादा भारी लगता है। कोई कर्मफलवादी आस्तिक कहेगा कि बोया पेड़ बबूल का आम कहाँ से खाय।



लेकिन मामला इतना सीधा नहीं है। सीमा से चंद्रमोहन का संबंध वास्तविक ही रहा होगा, जैसे फिजा से चाँद मुहम्मद का संबंध वास्तविक था। पति-पत्नी के बीच दरार क्यों आई, हम नहीं जानते। चाँद मुहम्मद अपनी नवविवाहिता फिजा को छोड़ कर अचानक क्यों चलता बना, यह भी हम नहीं जानते। ये जानकारियाँ होने से मानव संबंधों के वितान के बारे में हमारा ज्ञान बढ़ता और युग्म जीवन की तमन्ना रखने वाले भावी स्त्री-पुरुष कुछ अधिक सावधान होते। लेकिन दो व्यक्तियों के बीच क्या चल रहा है या क्या घटित हुआ होगा, यह जानना हमारे अधिकारक्षेत्र के बाहर है। शायद यह सब जानने में हमें बहुत ज्यादा दिलचस्पी भी नहीं होनी चाहिए। शायद हम पूरा-पूरा जान भी नहीं सकते। शायद वे दोनों भी पूरी तरह नहीं समझते होते, क्योंकि आपस का मामला होने के साथ-साथ यह दो जनों का अपना-अपना मामला भी है। इसलिए ऐसे विषयों पर चर्चा करना कभी भी खतरे से खाली नहीं होता। इसीलिए इन पर बातचीत करते समय बहुत सावधान रहने की जरूरत है। भले ही इसके अनंत सामाजिक आयाम हों, पर अंतत: यह एक व्यक्तिगत ट्रेजेडी है।


इस सिलसिले में दो बातें बिलकुल स्पष्ट हैं। पहली बात यह है कि दो-दो स्त्रियों के साथ अन्याय हुआ है। पहली स्त्री के साथ हुए अन्याय में चाँद और फिजा, दोनों ही कुछ हद तक शामिल थे। फिजा के साथ हो रहे अन्याय में फिलहाल सिर्फ चाँद दोषी जान पड़ता है। लेकिन हो यह भी सकता है कि फिजा की किसी बात ने उसे यह ड्रास्टिक कदम लेने के लिए मजबूर कर दिया हो। दूसरी बात यह है कि इस पूरे काण्ड में जिस चीज की सबसे ज्यादा तौहीन हुई है, वह है धर्म। क्या चंद्रमोहन और अनुराधा बाली नाम के वास्ते हिन्दू थे? क्या चाँद और फिजा नाम के वास्ते मुसलमान बने? फिर तो हमें हिन्दू-मिसलमान होने का दावा छोड़ ही देना चाहिए। जिस धार्मिक पदाधिकारी ने दोनों को इस्लाम में दाखिल किया, उसकी गुनहगारी भी कुछ कम नहीं है। अब कोई धर्म-रक्षक मौलाना यह फतवा दे रहा है कि चाँद मुहम्मद का अपनी हिन्दू पत्नी के साथ दुबारा घर बसाना इस्लाम के उसूलों के खिलाफ है। लेकिन जब पहली पत्नी के रहते हुए दूसरी शादी करने के लिए इस्लाम का दुरुपयोग किया जा रहा था, तब किसी ने इस धूर्तता की निंदा नहीं की। यह कैसी धार्मिकता है जो अधर्म को बरदाश्त ही नहीं, प्रोत्साहित भी करती है?


तीन व्यक्तियों के इस नाटकीय घटनाक्रम के आईने में हमारी नजर एक स्थायी सत्य पर भी जानी चाहिए। यह विषादपूर्ण सत्य है मानव संबंधों की नाजुकता। प्रकृति में स्थायी संबंध बहुत कम होते हैं। सब कुछ नदी-नाव संबंध पर आधारित होता है। हमारे पुरखों ने मनुष्य और मनुष्य के बीच, खासकर नर-नारी के बीच, स्थायी संबंध की परिकल्पना की। इसके लिए कायदा-कानून बनाए। धर्म और ईश्वर को भी बीच में डाला। इस व्यवस्था में सबसे ज्यादा अन्याय स्त्री के साथ हुआ। उसकी पीठ पर सभ्यता को बनाए रखने का पूरा बोझ लाद दिया गया। इससे उसका अपना व्यक्तित्व तिरोहित होने लगा। परिणामस्वरूप पुरुष व्यक्तित्व में भी गंभीर विकृतियाँ आईं। इस बीच ऐसे बहुत-से विद्रोही स्त्री-पुरुष हुए जिन्होंने इस व्यवस्था का बंदी होने से इनकार कर दिया। आज, आर्थिक व्यवस्थाएं बदलने से, यह प्रक्रिया जोरों पर है।


इसके साथ ही स्त्री-पुरुष संबंधों की वास्तविकता भी सामने आ रही है। जब व्यक्ति पराधीन होते हैं, तब वे सच को नहीं जीते -- नाटक करते हैं। जब वे अचानक स्वाधीन हो जाते हैं, तो उनके व्यवहार में उच्छृंखलता आ जाती है। आज के समय में दोनों ही चीजें एक साथ देखी जा सकती हैं -- खासकर भारत जैसे समाजों में, जहाँ परंपरा की ताकतें बहुत कमजोर नहीं हुई हैं और आधुनिकता की शक्तियाँ बहुत मजबूत नहीं हो पाई हैं। भविष्य की अपेक्षाकृत संतुलित व्यवस्था में संबंध शायद ज्यादा टिकाऊ हों, पर तब भी यह बुनियादी सचाई अपनी जगह बनी रहेगी कि किसी भी संबंध को बनाए रखना हँसी-खेल नहीं है। यह एक ऐसा नाजुक खिलौना है जो जरा-सी ठेस लगते ही टुकड़े-टुकड़े हो सकता है।


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- राजकिशोर

(लेखक इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज में वरिष्ठ फेलो हैं)
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6 टिप्‍पणियां:

  1. मुझे यही समझ नही आता कि पहले तो ऐसे पुरूष के चक्कर में ऐसी लड़की/महिला फंसती क्यों है ...और पति के छोडके जाने के बाद उसके पुनः वापस आने रोने धोने पर पहली पत्नी उसे वापस क्यों अपना लेती है ....ऐसे पुरूष को तो उसे उसी के हाल पर छोड़ देना चाहिए ..... धक्के देकर बहार करना चाहिए ..

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  2. ऐसे अनगिनत किस्से हैं जिनमें पति. पत्नि और वो.. हों। पर शायद ही कभी इसके लिए धर्मपरिवर्तन किया हो। छोटी बी और बडी बी कह कर जीवन साथ गुज़ारते रह सकते हैं। इस में दोषी कौन है यह कहना और किसी एक पर दोष मढना न्यायोचित्त न होगा। शायद दोषी भाग्य है जो इस खेल के लिए जिम्मेदार है। क्या एक पति के साथ दो वीवियां नहीं रह सकतीं, जब कि इस्लाम में चार तक जायज़ भी है- भले ही कुछ शर्तें जुडीं हों।

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  3. इस पूरे प्रकरण में जहाँ विवाह और विवाहेतर सम्बन्ध के सदा-सदा के पेंच एक बार फिर दिखाई दिए हैं , वहीं भोगवादी जीवन शैली के प्रति साधारण जन का चटखारे लेने वाला अंदाज़ ऐसी चालाकियों को संवेदना और सहानुभूति के दायरे से बाहर मानने वाला प्रतीत होता है.

    हाँ, विद्वान लेखक की यह बात अत्यन्त सटीक है कि इस काण्ड में सर्वाधिक तौहीन धर्म की हुई है.

    न्याय और धर्म दोनों का इस तरह स्वार्थपूर्ण इस्तेमाल चिंता की बात है. इसे गौरवान्वित नहीं किया जाना चाहिए और इसमे संलिप्त लोगों पर आपराधिक मुकदमा चलाया जाना चाहिए.

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  4. धर्म का माखौल उड़ा! स्त्री त्रस्त हुई। मीडिया के बल्ले-बल्ले!

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  5. राजकिशोर जी मेरी राय में न तो पुरुष दोषी है और न ही महिला। दोषी है तो उनके अन्‍दर बैठा काम-भाव। पूर्व में पुरुष का काम ही उस पर हावी था और उसे अनैतिक कार्य कराता था, तब पुरुष लाचार बन जाता था लेकिन अब महिला के काम भाव को भी प्रदीप्‍त किया जा रहा है, इस कारण समाज में विकृतियां बढ़ती जा रही हैं। धर्म का अर्थ ही यह है कि मनुष्‍य में श्रेष्‍ठ नैतिक मूल्‍यों को निरू‍पित कर दिया जाए और वे उसके जीवन में स्‍वाभाविक गुण की तरह लगने लगें। लेकिन आज तो धर्म की परिभाषा ही बदल गयी है। संख्‍या बल बढ़ाकर शासन की स्‍थापना का नाम धर्म के साथ जोड़ दिया गया है। अत: इसे सम्‍प्रदाय कहना चाहिए न कि धर्म।

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