इतिहास हंता मैं
तुम्हें पाने को ,
मैंने धरम की दीवार गिराई थी
तुम्हें पाने को,
अपने पिता से आँख मिलाई थी -
भाई से ज़बान लड़ाई थी -
तुम्हें पाने को!
माँ अपनी कोख नाखूनों से नोंचती रह गई ,
पिता ने जीते जी मेरा श्राद्ध कर दिया;
मैंने मुड़ कर नहीं देखा.
मैं अपना इतिहास जलाकर आई थी -
तुम्हें पाने को!
तुमने मुझे नया नाम दिया -
मैंने स्वीकार किया ,
तुमने मुझे नया मज़हब दिया -
मैंने अंगीकार किया.
वैसे ये शब्द उतने ही निरर्थक थे
जितना मेरा जला हुआ अतीत.
मैंने प्रतिकार नहीं किया था .
तुम जैसे भी थे,जो भी थे -
बेशर्त मेरे प्रेमपात्र थे.
मैं भागी चली आई थी
तुम्हें पाने को ;
और सो गई थी
थककर चकनाचूर.
आँख खुली तो तुम्हारी दाढ़ी उग आई थी ,
तुम हिजाब कहकर
मेरे ऊपर कफ़न डाल रहे थे.
तुम्हारी आँखों में देखा मैंने झाँककर -
ये तो मेरे पिता की आँखें हैं!
मैं देखती ही रह गई ;
तुमने मुझे ज़िंदा कब्र में गाड़ दिया!
एक बार फिर
सब कुछ जलाना होगा -
मुझे
खुद को पाने को!!
- ऋषभदेव शर्मा
मै आँखें फाड देखती रही
जवाब देंहटाएंये तो मेरे पिता की आँखें है
पुरुषप्रधानता का एकदम सही चित्रण और स्त्री की एककोणीय भावुकता का भी ।
रचना में गहरे भाव हैं।
जवाब देंहटाएंसादर
श्यामल सुमन
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shyamalsuman@gmail.com
कविता में यथार्थ बहुत ही सुंदर रीति से अभिव्यक्त हुआ है। सचाई को इस तरह अभिव्यक्त कर देना आसान नहीं होता।
जवाब देंहटाएंदिल को बहुत गहरे छूकर झकझोर दिया आपकी इस रचना ने....बहुत बहुत आभार इस सुन्दर रचना हेतु...
जवाब देंहटाएंअद्भुत सच्चाई...!!!
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