मंगलवार, 9 जून 2009

मातृदेवो भव

मातृदेवो भव
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असल में यह एक लोककथा है और लोककथा की शक्ति यह होती है कि जीवन का सार अपने अनुभव के आधार पर लोक उस में भरता है। इन कथाओं की प्रभविष्णुता का मूल स्रोत ही इनकी सामाजिक भूमिका में निहित होता है व जो मूलत: लोकमंगल के लिए ही रची जाती हैं। कल्पना के सम्मिश्रण द्वारा चमत्कार उत्पन्न किया जाता है। ऐसी ही एक लोक कथा बल्कि कहें तो चित्रकथा यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ। कथा कुछ यों है कि जन्म की घडी़ सन्निकट आने से कुछ पहले एक दिन बच्चे ने ईश्वर से प्रश्न किया कि हे पिता सब कह रहे हैं कि कल तुम मुझे धरती पर भेज देने वाले हो, किंतु मैं भला कैसे वहाँ रह सकता हूँ,अभी तो कितना छोटा व असहाय अवस्था में हूँ मैं? उत्तर मिला कि मैंने बहुत सी परियों में से एक ऐसी परी का चुनाव किया है जो व्यग्रता से तुम्हारी प्रतीक्षा में रत है वही तुम्हारे सब दायित्व लेगी।बच्चे ने फिर पूछा कि यहाँ स्वर्ग में मुझे अपने आनन्द के लिए गाने व मुस्काने के अतिरिक्त कुछ नहीं करना होता,पर----------। (आगे की कथा चित्रों में !)


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तो हे माँ ! प्रणाम तुम्हारे हर रूप को । भारती !!!!



मातृदेवो भव




1 टिप्पणी:

  1. कहते हैं कि भगवान हर जगह नहीं पहुँच सकता इसलिए उसने माँ को बनाया। हम कहते हैं कि माँ है तो भगवान को जानना सहज हुआ।
    शब्दों चित्रों का सुखद संयोजन.... बधाई

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