बुधवार, 31 मार्च 2010

कवयित्री का विद्रोह

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गत सप्ताह दुबई में अमेरिकन आयडल की भाँति और उसी के ढाँचे पर कवि और उनकी कविताओं को लेकर आयोजित किए जाने वाले "Poet of Millions" में एक अरब कवयित्री हिस्सा हिलाल ने सेमीफायनल से फायनल में प्रवेश किया, जिसका दर्शकों और निर्णायकों ने अति उत्साह से समर्थन व स्वागत किया | इस कवयित्री की कविताओं में परम्परावादियों और उनके वर्गवाद आदि के विरुद्ध आग उगलने वाले शब्दों में विरोध के स्वर मुखरित होते हैं और अपने इस अतिशय साहस के  कारण ही जहाँ एक ओर हिस्सा हिलाल संसार भर से समर्थन व प्रशंसा पा रही हैं, वहीं उसके विरूद्ध ह्त्या की धमकियों की भी कमी नहीं है| ऐसे में भी हिलाल ने टीवी कार्यक्रम में अपनी भागीदारी अनवरत रखी है | हिस्सा हिलाल के इस विद्रोह और साहस के लिए समाचार चैनलों द्वारा उसके स्वर को मुखरित करने व अधिकाधिक लोगों तक पहुँचाने के लिए समर्थन जुटाने के क्रम में उस से बातचीत की गई और प्रतिक्रिया जानने का यत्न भी|


प्रस्तुत  है, हिस्सा हिलाल से एक बातचीत -












मंगलवार, 9 मार्च 2010

वे बिस्तर में पड़ी हैं, पड़ी रहें

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 आधी आबादी                                                                                       
      ऋषभदेव शर्मा 




वे रसोई में अडी़ हैं,
अडी़ रहें.
वे बिस्तर में पड़ी हैं,
पड़ी रहें.
यानी वे
संसद के बाहर खड़ी हैं,
             खड़ी रहें?

' गलतफहमी है आपको .
सिर्फ़ आधी आबादी नहीं हैं वे.
बाकी आधी दुनिया भी
छिपी है उनके गर्भ में,
वे घुस पड़ीं अगर संसद के भीतर
तो बदल जाएगा
तमाम अंकगणित आपका. '
           उन्हें रोकना बेहद ज़रूरी है,
           कुछ ऐसा करो कि वे जिस तरह
           संसद के बाहर खड़ी हैं,
                          खड़ी रहें!

उन्हें बाहर खड़े रहना ही होगा
कम से कम तब तक
जब तक
हम ईजाद न कर लें
राजनीति में उनके इस्तेमाल का
कोई नया
सर्वग्राही
सर्वग्रासी
         फार्मूला.

शी.........................
कोई सुन न ले...............
चुप्प ...............!

चुप रहो,
हमारे थिंक टैंक विचारमग्न हैं;
                     सोचने दो.
चुप रहो,
हमारे सुपर कंप्यूटर
जोड़-तोड़ में लगे हैं;
         दौड़ने दो.
चुप रहो,
हमारे विष्णु, हमारे इन्द्र-
वृंदा और अहिल्या के
किलों की दीवारों में
सेंध लगा रहे हैं;
              फोड़ने दो.
तब तक
कुछ ऐसा करो कि वे जिस तरह
संसद के बाहर खड़ी हैं,
                     खड़ी रहें!

कुछ ऐसा करो
कि वे चीखे, चिल्लाएं,
आपस में भिड़ जाएं
और फिर
सुलह के लिए
        हमारे पास आएं.

हमने किसानों का एका तोड़ा,
हमने मजदूरों को एक नहीं होने दिया,
हमने बुद्धिजीवियों का विवेक तोड़ा,
हमने पूंजीपतियों के स्वार्थ को भिड़ा दिया
और तो और.............हमने तो
पूरे देश को
           अपने-आप से लड़ा दिया.

अगडे़-पिछड़े के नाम पर
ऊँच-नीच के नाम पर
ब्राह्मण-भंगी के नाम पर
हिंदू-मुस्लिम के नाम पर
काले-गोरे के नाम पर
दाएँ-बाएँ के नाम पर
हिन्दी-तमिल के नाम पर
सधवा-विधवा के नाम पर
अपूती-निपूती के नाम पर
कुंआरी और ब्याहता के नाम पर
                             के नाम पर.....
                             के नाम पर....
                             के नाम पर.....
अलग अलग झंडियाँ
अलग अलग पोशाकें
बनवाकर बाँट दी जाएं
आरक्षण के ब्राह्म मुहर्त में
इकट्ठा हुईं इन औरतों के बीच!

फिर देखना :
वे भीतर आकर भी
संसद के बाहर ही खड़ी रहेंगी;
पहले की तरह
रसोई और बिस्तर में
अडी़ रहेंगी,
        पड़ी रहेंगी!




सोमवार, 8 मार्च 2010

कभी पूरी नींद तक भी न सोने वाली औरतो !

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औरतों के नाम
कविता वाचक्नवी












कभी पूरी नींद तक भी
न सोने वाली औरतो !
मेरे पास आओ,
दर्पण है मेरे पास
जो दिखाता है
कि अक्सर फिर भी
औरतों की आँखें
खूबसूरत होती क्यों हैं,
चीखों-चिल्लाहटों भरे
बंद मुँह भी
कैसे मुस्कुरा लेते हैं इतना,




और, आप !

जरा गौर से देखिए
सुराहीदार गर्दन के
पारदर्शी चमड़े
के नीचे
लाल से नीले
और नीले से हरे
उँगलियों के निशान
चुन्नियों में लिपटे
बुर्कों से ढँके
आँचलों में सिमटे
नंगई सँवारते हैं।




टूटे पुलों के छोरों पर

तूफान पार करने की
उम्मीद लगाई औरतो !
जमीन धसक रही है
पहाड़ दरक गए हैं
बह गई हैं - चौकियाँ
शाखें लगातार काँपती गिर रही हैं
जंगल
दल-दल बन गए हैं
पानी लगातार तुम्हारे डूबने की
साजिशों में लगा है,


अंधेरे ने छीन ली है भले
ऑंखों की देख,


पर मेरे पास
अभी भी बचा है
एक दर्पण
चमकीला।



© : Dr. Kavita Vachaknavee





शनिवार, 6 मार्च 2010

स्त्रीवादियों से कुछ निवेदन : आदर्श स्त्री कौन ?

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महिला आंदोलन के समर्थकों ने, एक बहुत जरूरी काम की उपेक्षा की है। वे हमेशा यही बताते रहते हैं कि अच्छे पुरुष को कैसा होना चाहिए और कैसा नहीं होना चाहिए। यह एक जरूरी और उचित माँग है। हर आंदोलनकारी जिनका विरोध करता है, उनकी गलतियों और कमियों को रेखांकित करता है और उनसे अपने चरित्र को बदलने की माँग करता है। इसलिए महिलाएँ अगर पुरुषों के लिए आचार संहिता तैयार कर रही है, तो यह उनका हक है। हर अच्छा पुरुष इस आचार संहिता पर गौर करेगा और उसकी रोशनी में अपने को सुधारने की कोशिश करेगा। लेकिन कोई भी अच्छा आंदोलन सिक्के के सिर्फ एक पहलू तक अपने को सीमित नहीं रखता। वह आंदोलनकारियों के लिए भी एक आचार संहिता बनाता है


स्त्रीवादियों से कुछ निवेदन



कल अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस है। भारत के लिए यह दिन विशेष महत्व का होनेवाला है। मीडिया को उम्मीद है कि सोमवार को महिला आरक्षण विधेयक पास हो कर रहेगा। सरकार अगर सचमुच चाहती है, तो यह असंभव नहीं है। संख्या का गणित उसके पक्ष में है। लेकिन आरक्षण के विरोधी इस विधेयक को रोकने के लिए कुछ भी कर सकते हैं। हंगामा तो मामूली बात है।



बहरहाल, महिला आरक्षण विधेयक पारित हो जाता है तो और नहीं पारित हो पाता है, तब भी स्त्रीवादियों से मुझे कुछ निवेदन करना है। जो महिला आंदोलन का विरोध करता है, उसे अच्छा आदमी मान पाना मुश्किल है। ऐसा आदमी औरतों की गुलामी को अनंत काल तक बनाए रखना चाहता है। लेकिन महिला आंदोलन के समर्थकों ने, एक बहुत जरूरी काम की उपेक्षा की है। वे हमेशा यही बताते रहते हैं कि अच्छे पुरुष को कैसा होना चाहिए और कैसा नहीं होना चाहिए। यह एक जरूरी और उचित माँग है। हर आंदोलनकारी जिनका विरोध करता है, उनकी गलतियों और कमियों को रेखांकित करता है और उनसे अपने चरित्र को बदलने की माँग करता है। इसलिए महिलाएँ अगर पुरुषों के लिए आचार संहिता तैयार कर रही है, तो यह उनका हक है। हर अच्छा पुरुष इस आचार संहिता पर गौर करेगा और उसकी रोशनी में अपने को सुधारने की कोशिश करेगा। लेकिन कोई भी अच्छा आंदोलन सिक्के के सिर्फ एक पहलू तक अपने को सीमित नहीं रखता। वह आंदोलनकारियों के लिए भी एक आचार संहिता बनाता है और उसे सख्ती से लागू करने की कोशिश करता है। दुनिया को आदर्श पुरुष चाहिए, तो उसे आदर्श नारियाँ भी चाहिएँ। खेद है कि श्रमिक आंदोलन से भी ज्यादा आयामों के धनी महिला आंदोलन ने इस तरफ ध्यान देने की जरूरत नहीं समझी है। मेरे खयाल से, यह बहुत बड़ी कमी या खामी है और इस कारण भी महिला आंदोलन के लक्ष्यों के पूरे होने में देर लग रही है।



चीन के एक बड़े कम्युनिस्ट ने एक किताब लिखी थी - अच्छा कम्युनिस्ट कैसे बनें। चीन की माओवादी क्रांति के दिनों में और बाद के अनेक वर्षों में भी यह किताब कम्युनिस्ट दायरे में बहुत रुचि के साथ पढ़ी जाती थी। इसे पढ़ने के बाद शायद अनेक कम्युनिस्टों ने अपने को बदला भी होगा। वे कम्युनिज्म के उठान के दिन थे। तब इसमें कुछ रचनात्मक शक्ति थी। लेकिन आजकल यह पुस्तक खोजे से भी नहीं मिलती। इसलिए नहीं मिलती, क्योंकि कम्युनिस्टों को इसकी जरूरत नहीं रह गई है। निर्माण काल में किताबें उपयोगी होती हैं। पतन के दौर में वे दुश्मन जान पड़ती हैं। ठीक ही कहा गया है - " वो मुझे दुश्मन लगे है जो मुझे समझाए है"।



महात्मा गाँधी ने भारत में जब असहयोग आंदोलन शुरू किया, तब उन्होंने असहयोगियों के लिए एक आचरण संहिता तैयार की। यह संहिता बताती थी कि असहयोगी क्या करेगा और क्या नहीं करेगा। बाद में कांग्रेस पार्टी की सदस्यता के लिए भी कुछ नियम बनाए गए। इन नियमों में एक यह था कि कांग्रेस का सदस्य छुआछूत का बरताव नहीं करेगा। एक और नियम यह था कि वह आदतन खादी पहनेगा। सत्याग्रहियों के लिए तो गाँधी जी ने बहुत सख्त नियम बनाए थे। इनके अलावा, उनकी अपनी कुछ अपेक्षाएँ भी रहती थीं। इसी सबके परिणामस्वरूप कांग्रेस के उस दौर के सदस्यों का चरित्र निर्माण हुआ। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान ही इतनी बड़ी संख्या में सभी वर्गों की स्त्रियाँ सार्वजनिक जीवन में उतरीं। उनमें से सभी का आम औरतों से अलग व्यक्तित्व बना।



समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया औरतों में कुछ विशेष गुण देखना चाहते थे। दब्बू और हुक्म की गुलाम औरतें उन्हें पसंद नहीं थीं । वे स्त्री को स्वाभिमानी, विवेकशील और साहसी देखना चाहते थे। इसी इरादे से उन्होंने यह बहस छेड़ी थी - आदर्श स्त्री कौन - सावित्री या द्रौपदी ? हिन्दुस्तान के स्त्री समाज ने अभी तक इस प्रश्न का उत्तर नहीं दिया है। महिला आंदोलन के पास इसका जवाब होना चाहिए।



बेशक, आंदोलनकारियों में दूसरों को दोषी ठहराने की प्रवृत्ति हावी होती है। वे सारी कमियाँ उन्हीं में खोजना पसंद करते हैं जिवके खिलाफ उनका आंदोलन होता है। बेशक, अगर पुरुष स्त्रियों को अपने आधिपत्य से मुक्त कर दें, तब स्त्रियों को यह सोचने को मजबूर होना पड़ेगा कि वे अपनी जिंदगी का क्या करें। मेरा निवेदन यह है कि यह खोज अभी से शुरू हो जाना चाहिए। नई स्त्री अपना व्यक्तित्व खोजने में लगेगी, तभी वह पुरुष के चरित्र में भी परिवर्तन कर पाएगी। अगर वह अपने को अपने आदर्शों के अनुसार संस्कारित नहीं करती, तो उसका व्यक्तित्व मिलिटेंट का बना रहेगा और पुरुष उसका प्रतिवादी बने रहने में सुख का अनुभव करेगा। स्त्री के संघर्ष में पुरुष तभी सहयोगी भूमिका निभा सकता है, जब वह स्त्री को रचनात्मक रोल में देखेगा। रचना भी संधर्ष का ही एक चेहरा है।



मैं यह तर्क स्वीकार करने के पक्ष में नहीं हूँ कि जब तक व्यवस्था नहीं बदलती, तब तक व्यक्ति कुछ नहीं कर सकता। महाभारत काल की व्यवस्था में ही द्रौपदी पुरुषों की क्रूरता, कायरता और मूढ़ता की आलोचना किया करती थी। रजिया बेगम, मीराँ, लक्ष्मीबाई, झलकारी देवी आदि जिन तेजस्वनी महिलाओं की चर्चा की जाती है, वे सभी उस समय की व्यवस्था में नहीं, उस व्यवस्था के बावजूद ऐसी बनी थीं। इसलिए स्त्री आंदोलन का विस्तार करना है और इसमें क्रांतिकारी कंटेन्ट भरना है, तो स्त्रियों को भी गहरे आत्मनिरीक्षण और स्वनिर्माण से गुजरना होगा। उन्हें अपने फैसले खुद लेना सीखना होगा और इसके लिए आवश्यक योग्यता तथा क्षमता अर्जित करनी होगी। उन्हें यह भी साबित करना होगा कि नई स्त्री सिर्फ अपने लिए ही नहीं, पूरे समुदाय के लिए बेहतर है। यह वर्तमान व्यवस्था में भी काफी दूर तक संभव है और इससे भी इस व्यवस्था को बदलने में सहायता मिलेगी। एक हाथ की ताली कितने दिनों तक बजती रह सकती है?

 राजकिशोर






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