औरतों के नाम
कविता वाचक्नवी
कभी पूरी नींद तक भी
मेरे पास आओ,
दर्पण है मेरे पास
जो दिखाता है
कि अक्सर फिर भी
औरतों की आँखें
खूबसूरत होती क्यों हैं,
चीखों-चिल्लाहटों भरे
बंद मुँह भी
कैसे मुस्कुरा लेते हैं इतना,
और, आप !
जरा गौर से देखिए
सुराहीदार गर्दन के
पारदर्शी चमड़े
के नीचे
लाल से नीले
और नीले से हरे
उँगलियों के निशान
चुन्नियों में लिपटे
बुर्कों से ढँके
आँचलों में सिमटे
नंगई सँवारते हैं।
टूटे पुलों के छोरों पर
तूफान पार करने की
उम्मीद लगाई औरतो !
जमीन धसक रही है
पहाड़ दरक गए हैं
बह गई हैं - चौकियाँ
शाखें लगातार काँपती गिर रही हैं
जंगल
दल-दल बन गए हैं
पानी लगातार तुम्हारे डूबने की
साजिशों में लगा है,
अंधेरे ने छीन ली है भले
ऑंखों की देख,
पर मेरे पास
अभी भी बचा है
एक दर्पण
चमकीला।
© : Dr. Kavita Vachaknavee
बहुत सुन्दर ... खग ही जाने खग की भाषा ..
जवाब देंहटाएंनारी का kast नारी ही समझ सकती है
"बहुत ही झकझोरने वाले शब्दों से रची गई कविता........."
जवाब देंहटाएंप्रण्व सक्सैना amitraghat.blogspot.com
pathneey hee naheen chintaneey bhee...
जवाब देंहटाएंशुक्रिया . इन पंक्तियों को यहाँ बांटने के लिए ...शीर्षक मुझे एक विद्रोही कवि की कविता की याद दिला गया......ओह भूख से मरने वालो .......
जवाब देंहटाएंवाह बहुत सुंदर !!!.
जवाब देंहटाएंईमेल से प्राप्त प्रतिभा सक्सेना जी की टिप्पणी
जवाब देंहटाएंइस अवसर के लिये बहुत उपयुक्त कविता दी है आपने .इतना कुछ झेल कर भी 'नंगई' पर आवरण रखनेवाली औरतों को आप जो दर्पण दिखाना चाह रही हैं काश , कि वे देख सकें !
सादर ,
- प्रतिभा.
अविनाश वाचस्पति मुन्नाभाई ने टिप्पणी दी -
जवाब देंहटाएं"व्यंग्य न होते हुए भी सच्ची सच्चाई है"
Anu Gupta ने फ़ेसबुक पर लिखा
जवाब देंहटाएंbehad khoobsuraati sei apni sachai ko kaha
Vinay Kumar Gupta ने फ़ेसबुक पर लिखा -
जवाब देंहटाएंbahut bahut bahut bahut khoob....is samay asai hi kuch vichaar merai .....andar koplit ho rahe the.....vah kavita ji vah.....
Chhaya Agrawal Mittal ने फ़ेसबुक पर लिखा -
जवाब देंहटाएं..._/\_..
Kamalkant Budhkar जी ने फ़ेसबुक पर लिखा -
जवाब देंहटाएंउस चमकीले दर्पण के हैं अपुन भरोसे,
काश् किसी दिन ये दर्पण तो सांच परोसे ।
दर्पण देखे सांच, सांच ही हमें दिखाए,
कैसे रखते मान किसी का, हमें सिखाए ।।
March 8 at 5:55pm ·
Vashini Sharma जी ने फ़ेसबुक पर लिखा -
जवाब देंहटाएंबस ! इस सबसे उनको क्या ? उन्हें इस सच को दिखाने की हिम्मत अच्छे-अच्छों को नहीं है . प्रभा खेतान तक को नहीं थी प्रेम के नाम पर छली गई एक बुद्धिजीवी औरत का हश्र सबके सामने है.
March 8 at 6:17pm ·
Pramod Kaunswal जी ने फ़ेसबुक पर लिखा -
जवाब देंहटाएंआशा से भरी कविता में आज महिला दिवस पर एक विसंगति...हां बिल पास न हो सका- लोकतंत्र को गहरी चोट पहुंची- एक तमाचा....लेकिन आधी दुनिया की लड़ाई अधर में है ...वह खत्म नहीं हुई..उसका ही दर्पण देख रहा हूं एक तरह से ये पंक्तियां....। माफ करना साथियों कविता ... अपने से बाहर काफी कुछ कह रही है- और असली रचना यही काम करती है..।
सादर
March 8 at 9:24pm
प्रतिबिम्ब बडथ्वाल जी ने फ़ेसबुक पर लिखा -
जवाब देंहटाएंकविता जी .....मेरे पास अभी बचा है दर्पण चमकीला.... उम्मीद पर दुनिया कायम है। काश उम्मीदे पूरी हो सभी की... शुभकामनाये।
March 8 at 9:48pm
Virendra Jain जी ने फ़ेसबुक पर लिखा -
जवाब देंहटाएंकभी कभी इस दर्पन से चकाचौन्ध पैदा करके सामने वालों की दृष्टि की एकरसता भी तोड़ते रहना चाहिये। बधाई । वेणुजी आपको पूरे हैदराबाद में अकेला साहित्यकार मानते थे।
March 8 at 9:50pm
Ajit Wadnerkar जी ने फ़ेसबुक पर लिखा -
जवाब देंहटाएंउस चमकीले दर्पण में सदियों से जब जब चेहरा देखती है स्त्री, पता नहीं तभी कुछ अनहोनी घटी है, कि खुद की शिनाख्त मुश्किल होती रही....
Kamlesh Chauhan जी ने फ़ेसबुक पर लिखा -
जवाब देंहटाएंKavita ji bahoot satay cheepa hai apki pankatiyo mai: ek estri kabhi ma baap, behan bhayi phir pati aur santan ke dukh sukh mai kabhi nahi soti .
Atul Kanakk जी ने फ़ेसबुक पर लिखा -
जवाब देंहटाएंfabulous
March 9 at 4:08pm
Bhupendra Singh जी ने फ़ेसबुक पर लिखा -
जवाब देंहटाएंnice
March 9 at 4:19pm
Manoj Joshi जी ने फ़ेसबुक पर लिखा -
जवाब देंहटाएंचीखों-चिल्लाहटों भरे
बंद मुँह भी
कैसे मुस्कुरा लेते हैं इतना,......
यह औरत है....ऐसे ही मुस्कुराती रहेगी...
दर्पण में सज संवर अपने ग़म छुपाती रहेगी...... See More
समय बदल रहा है...दर्पण भी...
और दर्पण में झाँकने वाले चेहरे भी....
काफ़ी समसामयिक कविता है...
March 9 at 4:23pm
Shashi Sehgal जी ने फ़ेसबुक पर लिखा -
जवाब देंहटाएंKavita man ko chooti hue aage badti hai .aaj bhi gavon main
aurton ki esi hi halat hai.Par badlav bhi aa raha hai .Khuda
kare chamkila darpan sabhi aurton ko mile ,
Atmvishvas ke sath usmen dekhen aur apni takat pahachane .... See More
Shubbhkamnayen.
March 10 at 3:45pm
Rajesh Misra जी ने फ़ेसबुक पर लिखा -
जवाब देंहटाएंinka jeevan bhi photo main dikh rahi kuch mirchon sa hi hai
March 10 at 4:07pm
Divik Ramesh जी ने लिखा -
जवाब देंहटाएंKavita na kewal Ummeed jagati hai balki khud ummeed hoti hai. Badhai
March 10 at 7:12pm
Girish Pankaj जी ने फ़ेसबुक पर लिखा -
जवाब देंहटाएंkavita jab khud kvita ban jaye to vah apne har paath ko naye aaswaadan me tabdeel kar deti hai.aapki is kavitaaa paath bhi nai ras-sarjanake sath naye bhav-lok tak le jaa kar naye vimarsh ke liye prerit kar raha hai.
Yesterday at 12:06pm
ऐसा लगा, बहुधा आप सभी ने कविता को नई अर्थवत्ता प्रदान की,
जवाब देंहटाएंस्वयं मेरे सामने नए अर्थों में उपस्थित हुई मानो कविता...
स्वयं को भी अन्तराल के पश्चात् अपनी ही कविता पढ़ने पर अनायास ही लगा करता है कि वास्तव में काव्य लेखन एक संश्लिष्ट विधा है। जाने क्या व कौन सा अर्थ हर बार की आवृत्ति में किसको निहित मिल जाता है, विस्मय होता है।स्वयं अपनी कविताएँ नई भंगिमा में आन खड़ी होती प्रतीत होने लगती हैं जब वे हर नए व्यक्ति के नए पाठ से गुजरती हैं। इसलिए मैं तो आभारी होती हूँ उन सभी मित्रों की जो उसमें नूतन अर्थ की छवि देखते हैं और दिखाकर स्वयं मुझे चमत्कृत कर देते हैं।
दर्पण किसके लिए है, किसे दिखाना है, यह हर पाने वाले पर निर्भर करेगा, करता है।
आपकी आभारी हूँ कि आपने इस पर राय दे कर मुझे मन की कह लेने का अवसर दिया।
पधारने और अपने विचारों से कविता को सार्थकता देने की आभारी हूँ....
@ वीरेंद्र जी,
वेणु जी ने यदि वास्तव में ऐसा कभी कहा होगा तो यह मेरे लिए अत्यंत गौरव की बात है, जान कर निस्संदेह हर्ष तो हुआ ही है किन्तु कष्ट भी उभर आया है क्योंकि आपका यह वाक्य पढ़कर पहले क्षण जो उनका चित्र मन में कौंधा वह उनकी माताजी के स्वर्गवास के समय उनके साथ बिताए कुछ घंटे के दृश्यों और उनके फ्लैशेज़ से भरा था. वे उन दिनों कैलीपर्ज़ पर नह... See Moreीं आए थे, बैसाखियाँ ही पहनते थे, ज़मीन पर कटे हुए खुले पैर लिए बैठा माँ के संस्मरण सुनाता अभाग पुत्र .... उफ़.. कितने सारे .... हज़ारों चित्र हैं उन वर्षों के ... वास्तव में हैदराबाद में मुझे साहित्यकार तो २ ही मिले थे, वेणु जी और ऋषभदेव जी| हैदराबाद की यादें आपने ताज़ा करा दीं, .... अब वैसे या वे दिन जीवन में कभी न आएँगे.
अमिताभ त्रिपाठी जी ने ईमेल से लिखा -
जवाब देंहटाएंआदरणीया कविता जी,
अत्यंत मार्मिक और विचारोत्तेजक!
जंगल
दल-दल बन गए हैं
पानी लगातार तुम्हारे डूबने की
साजिशों में लगा है,
यथार्थ चित्रण है|
आभार!
सादर
अमित
विनय वैद्य जी ने ईमेल में लिख भेजा -
जवाब देंहटाएंआदरणीय कविताजी,
आज के इस महिला-दिवस पर एक महिला द्वारा,
महिलाओं को संबोधित यह कविता बहुत ओजस्वी है .
'नंगई', 'देख' का शब्द-प्रयोग अद्भुत है .
बधाई !!
-विनय.
.....bahut sunder aur sachhi abhivyakti....panktiyon se dard jaise reh reh ke chalak raha hai...
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