गुरुवार, 13 मई 2010

कि नारी तन मुझे देकर कृतारथ कर दिया ओ माँ !

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कृतारथ कर दिया ओ माँ !



कृतारथ कर दिया ओ माँ !


सृजन की माल का मनका बना कर जो , 
कि नारी तन मुझे देकर कृतारथ कर दिया ओ माँ !

*

सिरजती एक नूतन अस्ति अपने ही स्वयं में रच ,
इयत्ता स्वयं की संपूर्ण वितरित कर परं के हित ,
नए आयाम सीमित चेतना को दे दिए तुमने, 
विनश्वर देह को तुमने सकारथ कर दिया ओ माँ !

*

बहुत लघु आत्म का घेरा, कहीं विस्तृत बना तुमने,
मरण को पार करता अनवरत क्रम जो रचा तुमने ,
कि जो कण-कण बिखर कर विलय हो कर नाश में मिलता ,
नया चैतन्य का वाहन पदारथ* कर दिया ओ माँ !
कि नारी तन मुझे देकर कृतारथ कर दिया ओ माँ !

*पदारथ = मणि

- प्रतिभा सक्सेना 


रविवार, 9 मई 2010

रत्‍नावली का सच

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रत्नावली का सच 


               मैंने चाहा था तुमको प्रियतम!
                मन से, तन से प्रतिपल,
               हर क्षण की थी कामना
                तुम्हे पाने की,
                तुम्ही में खो जाने की,
                लेकिन-
                तुम जिस रात आए,
                मेरे प्रेम-पाश में बंधने,
                मुझे उपकृत करने-
                उस रात,
                मैं मायके में थी न?
                बेटी की मर्यादा
                मेरे पैरों को रोक रही थी
                जंजीर बन कर!

                      उस रात मेरे भीतर बैठी-
                      मर्यादित नारी जाग उठी थी
                      और उस नारी ने कह दिया था--
                      "लाज न आवत आपको"
                       और बस,
                       तुम लौट गए थे हत 'अहम्' लेकर!
                       मैं-
                       मर्यादा में जकड़ी, तड़फती रही!
                       सच कहूँ मेरे प्रिय!
                       उस रात जीत गई थी नारी
                       और हार गई थी तुम्हारी पत्नी-
                       रत्नावली बेचारी!
                      संसार ने पाया महाकवि तुलसी-
                       रत्नावली रह गई युगों से झुलसी-
                       तन और मन की आग से!
                       यही है रत्नावली का सच,
                       जिसे तुम भी नहीं जान सके मेरे प्रिय!
                        --------------------------------


                              डॉ.योगेन्द्र नाथ शर्मा 'अरुण' 
        

शनिवार, 8 मई 2010

कौन है तू

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तेलुगु कविता

कौन है तू 
--------------


मैं एक वरूधिनी हूँ !
भयभीत हरिणेक्षणा हूँ
प्रेम करने के दंड के बदले में
धोखा दी गयी वेश्या हूँ
हिमपर्वतों को साक्षी मानकर कहती हूँ
प्यार के बदले में
वेदना ही मिली आँखों से नींद उड़ जाने की.
प्यार करने वाली स्त्रियों को ठगने वाले
माया प्रवरों के वारिस ही हैं मनु!
+ + +

मैं एक शकुन्तला हूँ!
एक पुरुष की अव्यक्त स्मृति हूँ
मुझे छोड़ सब कुछ याद रखने वाला वह
उसे छोड़ कुछ भी याद न करने वाली मै
दोनों के असीम सुख सागर का
मानो प्रकृति ही मौन साक्षी हो!

पति का प्यार नहीं सिर्फ निशानी पाने वाली मै!
+ + +

पाँच पतियों की पत्नी द्रौपदी हूँ मैं!
वरण कर अर्जुन का बँट गयी पाँच टुकड़ों में
पुरुष के मायाद्यूत में एक सिक्का मात्र हूँ !
भरी सभा में घोर अपमान
पत्नी के पद से वंचित करने वाला युधिष्ठिर!

बँटे दाम्पत्य में बचा तो केवल
जीवन-नाटक का विषाद !
+ + +

मैं ययाति की कन्या माधवी हूँ!
दुरहंकार से भरी पुरुषों की संपत्ति हूँ
संतान को जन्म देनेवाली
सर से पाँव तक सौन्दर्य की मूर्ति हूँ!
अनेक पुरुषों के साथ दाम्पत्य
मेरे लिए अपमान नहीं
वह तो मेरा क्षात्रधर्म है!
नित यौवन से भरी कन्या हूँ मै!
हतभाग्य!
स्त्री का मन न जानने वाले ये ...
ये क्या महाराज हैं? महर्षि हैं?
पुरुष हैं?
+ + +

दो आँखों पर सपनों के नीले साए
समय ने जो कहानियाँ बताईं
उन सबमे स्त्रियाँ व्यथित ही दिखीं!
यह पूरा स्त्रीपर्व ही दुखी स्मृतियों की परंपरा है !
+ + +

अब मैं मानवी हूँ!
अव्यक्ता या परित्यक्ता नहीं हूँ
अयोनिजा या अहिल्या नहीं होऊँगी !
वंचिता शकुन्तला की वारिस कदाचित नहीं हूँ !
अब मैं नहीं रहूँगी स्त्रीव का मापदंड बनकर
मैं अपराजिता हूँ !
अदृश्य शृंखलाओं को तोड़ने वाली काली हूँ !
शस्यक्षेत्र ही नहीं युद्धक्षेत्र भी हूँ !

लज्जा से विदीर्ण धरती भी मैं ही हूँ
उस विदीर्ण धरती को विशाल बाहुओं से ढकने वाला आकाश भी मैं ही हूँ !
******************************************************


मूल तेलुगु कविता : रेंटाला कल्पना 

अनुवाद : आर. शांता सुंदरी 

मंगलवार, 4 मई 2010

निरुपमा की हत्या की गुत्थियाँ

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अपनी गत प्रविष्टि पर  सुजाता जी के दिए लिंक द्वारा अभी चोखेरबाली पढ़ कर -




यहाँ  "स्त्रीविमर्श" पर कल गत पोस्ट 

शीर्षक के माध्यम से  अपनी बात कह ही चुकी हूँ। फिर भी,  मेरे तईं यद्यपि स्त्री की स्थिति का धर्म से कुछ लेना देना नहीं है, वह पुरुष की सत्तात्मक मानसिकता की यद्यपि सारी कुंठा इस विभेद से हटकर वहन करती आई है, परन्तु निरुपमा की दुर्घटना को साझे "समाज की मानसिकता का प्रतिफल" के रूप में लिया जाना चाहिए अर्थात् सम्प्रदाय -विशेष / जातिविशेष वर्सेज़ स्त्री नहीं अपितु समस्त समाज/सभी सम्प्रदाय वर्सेज स्त्री के रूप में देखा जाना चाहिए।


निरुपमा किसी भी सम्प्रदाय (धर्म ?)  में होती, उसके कुँआरे मातृत्व को स्वीकारने की हिम्मत किसी में न होती।


और इस घटना के दो बिन्दुओं ( जातिभेद के कारण हत्या या कुँआरे मातृत्व के कारण हत्या) को स्पष्ट समझते ही यह धुंध छ्टँ जानी चाहिए,  ऐसी मेरी आशा है।


अब जरा इस दुर्घटना पर विचार कर लिया जाए तो चीजें स्पष्ट हों।


मैं इसे अन्तर्जातीयता के चलते की गई हत्या नहीं अपितु कुआँरे मातृत्व के चलते की गई हत्या ( यदि पितॄकुल के द्वारा हुई है तो ) मानती हूँ। उसका एक कारण है।


वह कारण यहीं स्पष्ट हो जाता है जब यह स्पष्ट हो जाए कि निरुपमा का अपने तथाकथित प्रेमी (?) से विवाह हुआ क्यों न था।

इस विवाह न होने का एकमात्र कारण क्या निरुपमा के माता-पिता थे? या कोई और भी कारण था?

 यह कारण चीन्हना बहुत जरूरी है सुजाता ; क्योंकि जो लड़की महानगर में अकेली रहती है व प्रतिष्ठित पत्रकारिता से जुड़ी है, अपने पैरों पर खड़ी है, और सबसे बढ़कर जो एक पुरुष के साथ सहवास करने का साहस रखती है ( विशेषकर, उस भारतीय समाज में जहाँ विवाहपूर्व यौन सम्बन्ध मानो भयंकरतम जघन्य अपराध मानता है समाज, तिस पर उसमें इतना साहस भी है कि वह लगभग तीन माह का गर्भ वहन कर रही है ( ध्यान रहे यह वह काल होता है जब गर्भावस्था के बाह्य लक्षण सार्वजनिक रूप में दिखाई देने प्रारम्भ होने लगते हैं); ऐसी साहसी व निश्शंक लड़की का  माता-पिता के अन्तर्ज़ातीय विवाह के विरोधी होने के डर-मात्र से विवाह न करना कुछ हजम नहीं होता। यदि कोई माता-पिता के डर / दबाव-मात्र से इतना संचालित होता है तो उसका भरे (भारतीय) समाज में विवाहपूर्व गर्भवती होने का साहस करना   - ये दो एकदम अलग ध्रुव हैं। एक ही लड़की, वह भी बालिग व आत्मनिर्भर, विवाह करने का साहस न रखे किन्तु सहवास व कुंआरे मातृत्व का साहस रखे, यह क्या कुछ सोचने को विवश नहीं करता ?

मुझे तो विवश करता है।

...और फिर यह सोचना मुझे दिखाता है कि एक कुंआरी व सबल तथा आत्मनिर्भर माता द्वारा अपने तथाकथित प्रेमी से विवाह न करने के पीछे और भी कई गुत्त्थियाँ व राज हैं।

ये गुत्त्थियाँ ही/भी वे कारक हो सकती हैं न सुजाता (जी) जिनके कारण परिवार में झगड़ा हुआ होगा।


इसलिए पितृ-परिवार में झगड़े / विरोध / हत्या के लिए केवल अन्तर्जातीयता-मात्र के विरोध को कारक सिद्ध कर के एक सैद्धान्तिकी बनाना और धर्म के नाम पर हिंदुत्व मात्र को दोष देने की प्रथा कम से कम मेरी समझ से ऊपर की चीज है। क्षमा करें।


एक ऐसे अमानवीय समय में जबकि दो व्यक्तियों की हत्या की भर्त्सना करते हुए पूरे समाज को कटघरे में खड़ा किया जाना चाहिए व स्त्री की सुरक्षा और उसके जीवन के मौलिक अधिकार, मातृत्व के मौलिक अधिकार की बात होनी चाहिए, सामाजिक न्यायव्यवस्था की बात होनी चाहिए; वैसे समय में ब्राह्मणवाद आदि  का नाम लेकर हिन्दुत्व को धिक्कारने के प्रसंग निकालना मुझे उसी शैतानी पुरुषवाद की चाल दिखाई देते हैं जो स्त्री को अपने प्यार की फाँस में फँसा कर उसे भोग्या और वंचिता दोनों बनाता है। विवाह की जिम्मेदारी से बचता है और छलना करता है,  दूसरी ओर भाई और अपना परिवार अपना पौरुष दिखाते हैं।

स्त्री क्या करे? कहाँ जाए?

किस न्यायपालिका की शरण ?

उन सब शैतान पुरुषों के लिए तो ऐसे अन्य मुद्दों का उठना बड़ा वरदान है,  आरोप व सारा दोष किसी और की ओर जो हुए  जा रहा है। ऊपर से उनकी लम्पटता निर्बाध चल सकती है, उस से तो सावधान करने के अवसर पर गालियाँ और कटघरे में आया कोई अन्य मुद्दा|


पुनश्च
६ मई २०१०


तथ्यों के आलोक में इन चीजों को भी जोड़ दिया जाना चाहिए -

निरुपमा को लिखा पिता का पत्र किसने जारी किया?
क्या माता पिता ने स्वयं? या प्रियभांशु ने?
प्रियभांशु के पास वह पत्र आया कैसे?

सन्देह यह जाता है कि निरुपमा की हत्या के समाचार के बाद प्रियभांशु निरुपमा के आवास पर गया होगा, तभी तो वह खोजकर पत्र जारी करता है। 

यदि गया तो यह उसका सम्वैधानिक अपराध है, तथ्यों के साथ छेड़छाड़ करने की मंशा और उसे क्रियान्वित करना। अर्थात् प्रियभांशु ने कुछ तथ्य मिटाए भी होंगे, उड़ाए भी होंगे।

क्या यह सम्भव नहीं है कि प्रियभांशु विवाह से मुकर गया हो व निरुपाय निरुपमा अपने माता-पिता के पास इसी दुविधा में गई हो व वहाँ जा कर विवाह न होने की सम्भावना के बावजूद वह प्रियभांशु के गर्भ को नष्ट न करने की जिद्द पर हो... और ऐसी तनातनी, कहासुनी, झगड़े और विवाद का फल हो उसकी मॄत्यु!

प्रियभांशु के मोबाईल के अन्य रेकोर्ड्स की जाँच भी अनिवार्य है।

पिता का पत्र जारी करके सारे कथानक को जातिवाद के रंग में रंगने की साजिश का बड़ा मन्तव्य प्रियभांशु के अपने अपराध से ध्यान हटाने व पुलिस और मीडिया को गुमराह करने की साजिश हो।

वरना मॄत्यु की पहली सूचना के तुरन्त साथ ही प्रियभांशु अपना नाम व चित्र सार्वजनिक न होने की जद्दोजहद में न होता ( जैसा कि कई एजन्सियों ने तब कहा/लिखा/बताया था)।

वस्तुत: यह स्त्री के साथ छलनापूर्ण प्रेम कथा का पारम्परिक दुखान्त व भर्त्सनायोग्य दुष्कृत्य है। जिसकी जितनी निन्दा की जाए कम है। हत्यारों और हत्या की ओर धकेलने वालों को कड़ा दण्ड मिलना ही चाहिए।





सोमवार, 3 मई 2010

एक पत्र निरुपमा के मित्रों के नाम : पिता का पत्र पढ़कर

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एक पत्र निरुपमा के मित्रों के नाम : पिता का पत्र पढ़कर



 १)



  निरुपमा के जीवन की त्रासदी भयानक है, जाने क्यों गत दिनों मुझे मधुमिता याद आती रही। स्त्री जीवन की ऐसी त्रासदियाँ भयावह हैं और इन्हें तत्काल रोका जाना चाहिए। किन्तु ध्यान देने की बात है कि मधुमिता, निरुपमा ..... ये सब तो नाम हैं प्रतिनिधियों के ... उस वर्ग के प्रतिनिधि जिस वर्ग को समाज में सुरक्षा नहीं दे पाए / दे पाते हम/ आप। उस स्त्री-अस्मिता की हत्या पल पल होती है... अस्तित्व की... आत्मा की, प्राण की। 


आप अकेली निरुपमा को ही न्याय दिलाने को क्यों कटिबद्ध हैं? क्यों नहीं समूची स्त्री जाति के न्याय के लिए कोई सार्थक पहल करते? क्यों नहीं इसे एक ऐसे अभियान का रूप देते कि कम से कम हम या हमारे लोग जीवनभर स्त्री की अस्मिता व आदर के प्रति कटिबद्ध रहकर अपने कार्यों से समाज में स्त्री को सम्मानजनक व सुरक्षित स्थान देने / दिलाने की पहल अपने उदाहरणों से करेंगे, या कह लें कि उदाहरण प्रस्तुत करेंगे /  बनेंगे।  निरुपमा की मृत्यु को कम से कम सौ / हजार स्त्रियों के जीवन को पलट देने वाले क्रांति का वाहक क्यों नहीं बनाया जा सकता?

 )
आपने लिखा पिता की ‘धमकी’। 

मुझे इस पत्र में धमकी या हत्या की ओर धकेलने की पृष्ठभूमि रचने जैसा कुछ दिखाई नहीं देता।

यह एक विवश पिता का अपनी पुत्री के नाम समझाते हुए लिखा गया एक सामान्य पत्र है। इसमें उस समाज के एक वृद्ध पिता की विवशता अवश्य झलकती है जिस समाज में कुँआरी लड़की का मातृत्व जीवन-भर की शर्मिन्दगी का सबब होता है और परिवारजनों का जीना दूभर कर देता है समाज में समाज।


हत्यारा वह समाज है। उस समाज का अलाने- फलाने धर्मावलम्बी होना न होना कोई मुद्दा नहीं होना चाहिए। वह समाज भारत में भले ही मुस्लिम हो, हिन्दू हो, ईसाई हो । सब यही करते हैं। इस लिए मुद्दे को धर्म का रंग दे कर उसे भटकाइये मत। यह सीधे सीधे स्त्री प्रश्नों से जुड़ा व स्त्री की सुरक्षा से जुड़ा मुद्दा है, कृपया इसे जातिवाद का मुद्दा न ही बनाएँ तो बड़ी कृपा होगी।

... क्योकि ऐसा करके आप स्त्री की सुरक्षा से जुड़े मुद्दे को कमजोर कर रहे हैं, और निरुपमा के प्राण जाने को निरर्थक बना देंगे, उसे कोई स्थायी व बड़े प्रश्न का रूप न दे कर। 


हिन्दुओं के प्रति अपनी भड़ास निकालने के और अवसर आपको मिलते रहेंगे, किसी अन्य अवसर का लाभ उठाइयेगा, अभी क्यों बेचारी लड़की का इसमें इस्तेमाल कर रहे हैं... ?


केवल हिन्दुओं को गाली तो तब जायज मानी जाती जब ईसाई, मुस्लिम, अन्य सवर्ण/विवर्ण आदि के लोग अपनी अविवाहित पुत्री के गर्भ को सहर्ष स्वीकारने का साहस रखने वाले होते व वे भी अपनी बेटियों के साथ ऐसा ही न करते ..।


परन्तु दुर्भाग्य यही है कि पूरा समाज यही करता। यही होता आया है।

 इसलिए बन्धु यह कॄपा आप निरुपमा पर करें कि उसके प्राणों का प्रयोग उस जैसी अन्य निरीह वर्ग की स्त्री के लिए करें, न कि उसका दुरुपयोग कर उसकी मॄत्यु को भुनाने की कोशिश करें।

ऐसा मेरा आग्रह है। शेष क्या कहूँ... 




लाज न आवत आपको

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एकालाप





लाज न आवत आपको 



तुम्हें चबाने को हड्डी चाहिए थी
खाने को गर्म गोश्त
चाटने को गोरी चमड़ी
चाकरी को सेविका
और साथ सोने को रमणी.


तुमने मुझे नहीं
मेरी देह को चाहा.
पर मैं देह होकर भी
देह भर नहीं थी.


मैं औरत थी!
मुझे लोकलाज थी!


तरसती थी मैं भी - तुम्हारे संग को
तड़पती थी मैं भी - राग रंग को
पर मुझे लोकलाज थी.


तुम क्या जानो लोकलाज?
बस दौड़े चले आए साथ साथ!


न तुमने रात देखी न बारिश
न तुमने नाव देखी न नदी
तुम्हें लाश भी दिखाई नहीं दी
साँप तो क्या ही दीखता?
तुम लाश पर चढ़े चले आए!
तुम साँप से खिंचे चले आए!
न था तुम्हें कोई भय
न थी लोकलाज.


तुम पुरुष थे
सर्वसमर्थ .


और समर्थ को कैसा दोष?


मैं औरत थी
पूर्ण पराधीन.


और पराधीन को कैसा सुख?


तुम आए
मैंने सोचा-
प्रलय की रात में मेरा प्यार आ गया.
पर नहीं
यह तो कोई और था.
इसे तो
हड्डी चाहिए थी चबाने को
गर्म गोश्त खाने को
गोरी चमड़ी चाटने को
और रमणी साथ सोने को!


पर मैं औरत थी
लोकलाज की मारी औरत!


तुम्हें बता बैठी तुम्हारा सच
और तुम लौट गए उलटे पैरों
कभी न आने को!

- ऋषभ देव शर्मा
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