गुरुवार, 13 मई 2010

कि नारी तन मुझे देकर कृतारथ कर दिया ओ माँ !

कृतारथ कर दिया ओ माँ !



कृतारथ कर दिया ओ माँ !


सृजन की माल का मनका बना कर जो , 
कि नारी तन मुझे देकर कृतारथ कर दिया ओ माँ !

*

सिरजती एक नूतन अस्ति अपने ही स्वयं में रच ,
इयत्ता स्वयं की संपूर्ण वितरित कर परं के हित ,
नए आयाम सीमित चेतना को दे दिए तुमने, 
विनश्वर देह को तुमने सकारथ कर दिया ओ माँ !

*

बहुत लघु आत्म का घेरा, कहीं विस्तृत बना तुमने,
मरण को पार करता अनवरत क्रम जो रचा तुमने ,
कि जो कण-कण बिखर कर विलय हो कर नाश में मिलता ,
नया चैतन्य का वाहन पदारथ* कर दिया ओ माँ !
कि नारी तन मुझे देकर कृतारथ कर दिया ओ माँ !

*पदारथ = मणि

- प्रतिभा सक्सेना 


7 टिप्‍पणियां:

  1. अच्छी कविता का सृजन हुआ मैम.. पर क्या मैं सही पढ़ रहा हूँ?
    'कि नारी तन मुझे देकर कर कृतार्थ कर दिया ओ माँ' है
    या
    'कि नारी तन मुझे देकर कृतार्थ कर दिया ओ माँ' है?
    या
    'कि नारी तन मुझे देकर कर कृतार्थ दिया ओ माँ' है?

    जवाब देंहटाएं
  2. वाह! ऐसी कवितों से जीने की उर्जा मिलती है.
    ..आभार.

    जवाब देंहटाएं
  3. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं
  4. दीपक जी, मैंने समझा कि आपकी आपत्ति कृतार्थ/कृतारथ को लेकर है।
    अब स्प्ष्ट हुआ कि ‘देकर’ व ‘कर’ पर है।

    आपने सही ध्यान दिलाया। वह टायपिंग की चूक रह गई लगती है।
    अभी सही कर देनी चाहिए।
    धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
  5. .... प्रभावशाली व प्रसंशनीय रचना !!!!

    जवाब देंहटाएं

आपकी प्रतिक्रियाएँ मेरे लिए महत्वपूर्ण हैं।अग्रिम आभार जैसे शब्द कहकर भी आपकी सदाशयता का मूल्यांकन नहीं कर सकती।आपकी इन प्रतिक्रियाओं की सार्थकता बनी रहे इसके लिए आवश्यक है कि संयतभाषा व शालीनता को न छोड़ें.

Related Posts with Thumbnails