गुरुवार, 28 जुलाई 2011

शतरंज के मोहरे





गत दिनों धूप तो कब की जा चुकी है कविता पर कई प्रतिक्रियाएँ आईं। किन्तु आश्चर्य हुआ कि कई लोगों को वह अबला स्त्री की बेचारगी लगी; जबकि उसमें स्त्री के मातृत्व का औदात्य और प्रेम के गुनगुने संस्पर्श की ऊर्जा को रेखांकित किया गया था। मातृत्व  की करुणा प्रेम व ममत्व जीवन की उजास व ऊर्जा हैं, इस तथ्य को पिरो कर `धूप'  के रूपक द्वारा आधुनिक समाज की उस संरचना को प्रश्नांकित किया गया है जो इस का मूल्य नहीं समझती । 
 मातृत्व को बेचारगी के रूप में ग्रहण करना उस कविता के साथ जितना बड़ा अन्याय है उतना ही ऐसी संरचना के प्रति एक प्रकार की अलिखित सहमति देना भी है। 

उस कविता पर आई प्रतिक्रियाओं के बाद सुधा दी' की एक अन्य कविता `शतरंज के मोहरे'  कल मिली है। कविता का अविकल पाठ प्रस्तुत है।

(क.वा.)

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शतरंज के मोहरे 
- सुधा अरोड़ा 




सबसे सफल
वह अकेली औरत है ,
जो अकेली कभी हुई ही नहीं
फिर भी अकेली कहलाती है ....

अकेले होने के छत्र तले
पनप रही है
नयी सदी में यह नयी जमात
जो सन्नाटे का संगीत नहीं सुनती ,
सलाइयों में यादों के फंदे नहीं बुनती ,             
अचार के मर्तबानों में नहीं उलझती ,
अपने को बंद दराज़ में नहीं छोड़ती ,
अपने सारे चेहरे साथ लिए चलती है ,
कौन जाने , कब किसकी ज़रूरत पड़ जाए !

अकेलेपन की ढाल थामे ,
इठलाती इतराती
टेढ़ी मुस्कान बिखेरती चलती है ,
एक एक का शिकार करती ,
उठापटक करती ,
उन्हें ध्वस्त होते देखती है !

अपनी शतरंज पर ,
पिटे हुए मोहरों से खेलती है !
उसकी शतरंज का खेल है न्यारा
राजा धुना जाता है
और जीतता है प्यादा !

उसकी उंगलियों पर धागे बंधे हैं ,
हर उंगली पर है एक चेहरा
एक से एक नायाब
एक से एक शानदार !
उसके इंगित पर मोहित है -
वह पूरी की पूरी जमात !
जिसने
अपने अपने घर की औरत की
छीनी थी कायनात |

उन सारे महापुरुषों को
अपने ठेंगे पर रखती
एक विजेता की मुस्कान के साथ
सड़क के दोनों किनारों पर
फेंकती चलती है वह औरत !
यह अहसास करवाए बिना
कि वे फेंके जा रहे हैं !
वे ही उसे सिर माथे बिठाते हैं
जिन्हें वह कुचलती चलती है !

इक्कीसवीं सदी की यह औरत
हाड़ मांस की नहीं रह जाती ,
इस्पात में ढल जाती है ,
और समाज का
सदियों पुराना ,
शोषण का इतिहास बदल डालती है !

रौंदती है उन्हें ,
जिनकी बपौती थी इस खेल पर ,
उन्हें लट्रटू सा हथेली पर घुमाती है
और ज़मीन पर चक्कर खाता छोड़
बंद होंठों से तिरछा मुस्काती है !

तुर्रा यह कि फिर भी
अकेली औरत की कलगी
अपने सिर माथे सजाए
अकेले होने का
अपना ओहदा                      
बरकरार रखती है !

बाज़ार के साथ ,
बाज़ार बनती ,
यह सबसे सफल औरत है !

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16 टिप्‍पणियां:

  1. शैलजा सक्सेना जी का ईमेल -


    कविता जी,


    पाठकों के साथ के `शतरंज के मोहरे' और `धूप तो कब की जा चुकी है' , बाँटने के लिये बहुत-बहुत धन्यवाद।

    `शतरंज के मोहरे' कविता बहुत सुंदर तरीके से औरत के उस पहलू को छूती है जिस पर हम सब खुल कर बात करना चाहते तो हैं पर करते नहीं..यहाँ तक कि कभी-कभार इतिहास, मनोविज्ञान का सहारा लेकर उस के किये को ठीक सा ही ठहराने लगते हैं...अंदर कहीं सदियों का संस्कार रक्त में खौलता है और बुद्दि पूछने लगती है कि स्त्री स्वातंत्र्य का वस्तविक अर्थ और उद्देश्य है क्या? क्या हम शोषण करने वाले का रूप बदलना चाहते है या शोषण को ही समाप्त करके ्समानता और स्वतंत्रता का स्वस्थ वातावरण पैदा करना चाहते हैं..यह सोचना इस लिये भी ज़रूरी है क्योंकि उँगलियों पर नाचने वाला फिर दुबारा उँगलियों पर नचाता हुआ भी नज़र आ सकता है..अत: दुबारा पुरुष या बाज़ार का शिकार बनने से नारी को स्वयं को बचाना होगा।.

    ...

    सादर
    शैलजा

    जवाब देंहटाएं
  2. अमिताभ त्रिपाठी `हिंदीभारत' (याहूसमूह) पर भेजे अपने ईमेल में लिखते हैं -


    आ० कविता जी,

    आपके माध्यम से सुधा जी को साधुवाद!
    यह कविता अपने आप में आधुनिक स्त्री विमर्श का एक निबंध है|

    बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति

    सादर
    अमित

    जवाब देंहटाएं
  3. सत्यनारायण शर्मा कमल जी `हिंदीभारत' (याहूसमूह) पर भेजे अपने ईमेल में लिखते हैं -

    आ० कविता जी,

    कुछ अपवाद और अपमान स्वरूप्री स्त्रियों का शब्द-चित्र आदरणीया सुधा जी ने अपनी कविता में खींचा है जो एक यथार्थ है पर आधुनिकता और उपभोक्तावाद से ग्रस्त समाज में नारी अगर ऐसी गलत दिशा का अनुसरण करने लगेगी तो पूरी सामाजिकता के ध्वंस होने की स्थिति आ सकती है |

    भला हो कि स्वयं नारी समाज अपने को इस वायरस के प्रदूषण से मुक्त रखने के प्रयास आरम्भ कर दे |

    सादर
    कमल

    जवाब देंहटाएं
  4. डॉ. दीप्ति गुप्ता `हिंदीभारत' याहूसमूह पर भेजे ईमेल में लिखती हैं -


    कविता जी,

    कल ही तो सुधा दीदी से बात हो रही थी ' धूप तो कब....' के बारे में. उन्हें हमारा कमेन्ट बहुत पसंद आया. वे बता रही थी कि उन्होंने एक और कविता भेजी है 'शतरंज के मोहरे' . जो हमारी खास पसंद है - विशेष रूप से उसमें समाया तंज ! एक सारगर्भित रचना हम सब तक पहुंचाने के लिए कविता जी आपका आभार !

    सस्नेह,
    दीप्ति

    जवाब देंहटाएं
  5. शैलजा सक्सेना जी की टिप्पणी के उत्तर में समूह पुनः समूह पर डॉ. दीप्ति जी ने लिखा -


    प्रिय शैलजा जी, आपने बहुत अच्छी बात कही. आप इसे ज़रा और विस्तार से कहें तो और साथी भी चर्चा में आए. यह एक बेहद महत्त्वपूर्ण विषय है सोच-विचार का और एक-दूसरे के विचार जानने का. नारी-विमर्श को कुछ लोगों ने बड़े फूहड़पन से एक दूसरे ही साँचे में ढाल दिया है. जैसे - राजेन्द्र यादव ('हंस' के संपादक)

    सादर,
    दीप्ति

    जवाब देंहटाएं
  6. नरेंद्र झा लिखते है -

    Women are victor or vanquished ?

    जवाब देंहटाएं
  7. Irene Rattan लिखती हैं -

    बहुत बढ़िया ! आज की औरत के संबल का सही चित्रण.......

    जवाब देंहटाएं
  8. बहुत सुंदर ...............मगर चित्र बड़ा खतरनाक |

    जवाब देंहटाएं
  9. दीप्ति जी की टिप्पणी के उत्तर में कुलदीप जी ने लिखा -

    Dear Deeptiji

    Either I do not understand poem or I do not what to say.आपको इस कविता "शतरंज के मोहरे" में तेज दिख रहा है,मुझे एक कटु व्यंग्य। पता नहीं क्यों मुझे ऐसा प्रतीत रहा कि इस कविता में आज की नारी को कटघरे में खड़ा कर उस पर आरोप लगाये जा रहें हैं। उस पर स्वार्थी या खुदगर्ज़ से भी अधिक एक षडयन्त्रकारी व्यक्तित्व मण्डित किया जा रहा है। स्वय सुधा जी ने जिस विषेशण का उपयोग किया ह,वह है "शातिर"। क्षमा कीजिये मुझे इस कविता में सकारात्मकता के विपरीत एक पिछली कविता की टिप्पणियों से आहत व प्रतिक्रिया में उपजा रोष दिख रहा है।
    शायद पिछली कविता में प्रदत्त मेरी टिप्पणी व सम्भतः आपकी उसपर सहमति ने कहीं आहत किया है। कविता "धूप" की पहली दो पंक्तियां " औरत पहचान ही नहीं पाती
    अपना अकेला होना" एक विषाद व उदासी का भाव लिये हैं।
    फिर इन पंक्तियों में "आखिर मुस्कान को काँख में दबाए
    पड़ोसियों में अचार बाँट आती है
    और अपने कद से डेढ़ इंच
    ऊपर उठ जाती है !
    अपनी पीठ पर
    देख नहीं पाती
    कि पड़ोसी उस पर तरस खाते से
    सॉस की बोतल और
    मुरब्बे अचार के नमूने
    घर के किसी कोने में रख लेते हैं ।
    कितना बड़ा अहसान करते हैं
    उस पर कि वह अचार छोड़ जाए
    और अपने अकेले न होने के
    भरम की पोटली
    बगल में दबा कर साथ ले जाए ।"
    कहीं किसी भी दृष्टिकोण से उर्जा नजर आती हो मुझे अपना चश्मा बदलवाने की जरुरत है। शेष पंक्तियों के विषय में भी भाव उल्लासमय नहीं दिखता। भूत में जीना स्वयं में ही एक त्रासदायी स्थिति है। ममत्व आज के उल्लास के साथ अधिक जीवन्त हो उठता है।नारी को हमने मां के बिम्ब के साथ बांध उसके साथ छल किया है। मेरी एक औब्जेक्टिव टिप्पणी कविता में प्रस्तुत भावों पर हैं कविता पर नहीं। कहीं किसी को जरा भी व्यक्तिपरक लगे तो शायद मेरी भाषा की त्रुटि होगी।
    Kuldip Gupta
    BLOGS AT: http://kuldipgupta.blogspot.com/

    जवाब देंहटाएं
  10. पुनश्च
    अगर "धूप" कविता के साथ "The Second Sex" का शीर्षक लिख कर सिमोन को उद्धृत न किया होता तो शायद मै कोई टिप्पणी देने की धृष्टता ही नहीं करता।

    Kuldip Gupta
    BLOGS AT: http://kuldipgupta.blogspot.com/

    जवाब देंहटाएं
  11. डॉ. दीप्ति गुप्ता ने प्रत्युत्तर में लिखा -


    कुलदीप जी आपने जिस शब्द को ' तेज' समझा, वह वास्तव में 'तंज' है.

    आपने 'शतरंज के मोहरे' का भाव एकदम सही पकड़ा है - एक कटु व्यंग्य। दरअसल ये 'खास नारी वर्ग' पर व्यंग्य है. उन्हीं को केन्द्र में रख कर पूरी कविता लिखी गई है. आपने कितना सही लिखा है - उस पर स्वार्थी या खुदगर्ज़ से भी अधिक एक षडयन्त्रकारी व्यक्तित्व मण्डित किया जा रहा है।

    कुलदीप जी, यह पिछली कविता की टिप्पणियों से आहत व प्रतिक्रिया में उपजा रोष बिल्कुल नहीं है. सुधा जी की 'नारी' पर तीन कविताएँ हाल ही में 'हंस' में प्रकाशित हुई हैं - उसी में से ये दो कविताएँ हम एक के बाद एक पढ़ रहे हैं. अत: यह कविता किसी रोष या तीखी प्रतिक्रिया का परिणाम नहीं हैं, अपितु उन नारियों की बात कर रही हैं, जो पुरुषों को जीवन में शतरंज का मोहरा बनाती जाती हैं और उनका यह खतरनाक खेल कभी खत्म नहीं होता.

    रौंदती है उन्हें ,
    जिनकी बपौती थी इस खेल पर ,
    उन्हें लट्रटू सा हथेली पर घुमाती है
    और ज़मीन पर चक्कर खाता छोड़
    बंद होंठों से तिरछा मुस्काती है !


    अपने सारे चेहरे साथ लिए चलती है ,
    कौन जाने , कब किसकी ज़रूरत पड़ जाए !

    ऎसी नारी - संवेदनशील ह्रदय, संस्कारी मन, लाज, रिश्तों की गरिमा सबको ताक पे रख कर अपने को इस्पात में ढाल कर - मतलब ह्रदयहीन होकर स्वार्थी और कठोर बनी हुई लोगों के दिल उजाडती है, घर उजाडती है और नारीत्व (नारी को पुरुष की तुलना में अधिक भावुक, कोमल ह्रदय सम्वेदनशील माना गया है) से बहुत दूर - इंसानियत रहित होकर, शोषक बनी एक उन्मुक्त वहशियाना ज़िंदगी जीती है.जिसका न उसे कभी अफसोस होता है और न खेद.........!

    इक्कीसवीं सदी की यह औरत
    हाड़ मांस की नहीं रह जाती ,
    इस्पात में ढल जाती है ,
    और समाज का
    सदियों पुराना ,
    शोषण का इतिहास बदल डालती है !
    सदियों से जो पुरुष 'शोषक' कहलाता आया है - आज 'ऎसी नारी' उस शोषक का 'शोषण ' करने में लगी है और सदियों पुराना इतिहास बदल रही है.
    जैसे हर चीज़ के दो पहलू होते हैं उसी तरह यह कविता सिक्के के दूसरे पहलू की गाथा है. जो हमें और आपको सचेत करती है. इसकी खूबी यह है कि इसकी रचयिता नारी ही है जो बड़ी ईमानदारी से नारियों के एक खास वर्ग की सच्चाई बयां कर रही है. सुधा जी की ईमानदार और सशक्त कलम को शत-शत नमन !

    सादर,
    दीप्ति

    जवाब देंहटाएं
  12. न्यूयॉर्क से एम.एम.माहेश्वरी जी से प्राप्त ईमेल -

    What a nice depiction of some of the women of modern society.The writer deserves real appreciation.

    Thank you very much for sending this Kavita.

    M M Maheshwari
    312w 104th st,
    New york, NY 10025

    जवाब देंहटाएं
  13. प्रिया दुबे लिखती हैं -


    जो कभी अकेली हुई नहीं फिर भी अकेली कहलाती है .. जो सन्नाटे का संगीत नहीं सुनती ... यादों के फंदे नहीं बुनती .. अपने को बंद दराज मे नहीं छोडती ....उसकी शतरंज का खेल है न्यारा राजा धुना जाता है और जीतता है प्यादा ... इक्कसवी सदी की ये औरत इस्पात मे ढल जाती है ... रोंदती है उन्हें जिनकी बपोती थी एस खेल पर ...
    15 hours ago · Like

    बहुत सुंदर स्त्री सशक्तिकरण की रचना ......

    जवाब देंहटाएं
  14. ग्वालियर से श्रीशराकेश जैन -


    सुंदर रचना

    जवाब देंहटाएं
  15. शैलजा सक्सेना जी ने पुनः ई-मेल से लिखा -


    मेरा कहने का अभिप्राय मात्र इतना है कि प्रगति, स्वतंत्रता के समर्थक हम सभी हैं पर स्वतंत्रता और प्रगति के साथ उसके दायित्वों को संभालना भी ज़रूरी है । नारी हो या पुरुष या पूरा समाज सबके साथ यही बात लागू होती है। मुझे यह भी लगता है कि नारी का व्यवहार बहुत कुछ अमीरी -गरीबी-मध्यमवर्गीय -स्तरों से भी पारिभाषित होता है। यूँ हर वर्ग के कुछ अपवाद हैं पर कौन कितने पुराने संस्कार सम्हालेगा और उन्हे लेकर आगे बढ़ेगा यह बात इस पर भी निर्भर करती है कि कौन इन मूल्यों को कितनी महत्ता देता है? और इतिहास गवाह है कि आर्थिक स्थिति के अनुसार इन मूल्यों का महत्व बदलता रहता है। नारी का व्यवहार भी उसी के अनुरूप बदलता है...

    नारी को पुरुषों के खिलाफ होने की बजाय आर्थिक विषमता के खिलाफ हिना चाहिये..उस से नारी का ही नहीं, घर का, समाज का भी भला होगा..
    कहने को वैसे तो बहुत कुछ है पर बात इतनी सी है कि नारी इस तथाकथित आधुनिकता के चलते पुन: पुरुष लिप्सा और बाज़ारवाद की शिकार हो रही है और मज़ा यह है उसे इस बात की भनक भी नहीं है...
    बाज़ार के कुछ रंग-ढँग सीख कर वह चालाकी दिखाने की चेष्टा में है और अपने को शिकारी समझ कर आनंदित हो रही है..
    वैसे यह च्रर्चा इस कविता से बहुत कुछ बाहर आगई है।

    सादर
    शैलजा

    जवाब देंहटाएं
  16. शैलजा जी को उत्तर में सत्यनारायण शर्मा कमल जी ने लिखा -

    आ० शैलजा जी,
    आपने बहुत सही कहा है | अधिकार के साथ कर्तव्य अनिवार्य होता है | मुझे एक चुटकुला याद आया कि जब अमेरिका
    में गुलामों को आज़ादी की घोषणा हुई तो सड़कों पर तथाकथित गुलामों ने मस्त होकर नाचना आरम्भ कर दिया | उसी
    समय एक नाचते व्यक्ति का पैर किसी श्वेत -निवासी से टकरा गया तो उसने नाचनेवाले को पकड़ कर धुन दिया | नाचनेवाला
    बोला " Now I undertood that my freedom ends where the nose of my neighbour begins ." ( मेरी स्वतंत्रता
    वहीं समाप्त होती है जहां मेरे पड़ोसी की नाक शुरू होती ) तात्पर्य यह कि स्त्री-विमर्श में स्त्रियों को अपने अधिकारों के साथ
    कर्तव्य की सोच को भी महत्व देना होगा | समाज के प्रगति-रथ के दोनों पहियों का समान रूप से सक्षम होना आवश्यक है |
    एक यदि दूसरे से बदले की भावना से कुंठाग्रस्त होकर समाज में मनमानी करने लगे तो समाज का कैसे भला हो सकता है ?
    बात उठी अमीरी-गरीबी -मध्यमस्तर की सो आर्थिक - स्थिति बड़ी हद तक इन दूरियों का कारण तो है किंतु देखने में यही
    आता है कि संपन्न समाज की स्त्रियाँ भी आज उपलब्द्ध खुलेपन को नहीं सम्हाल पा रही हैं | पुरुष की ओर से मिलती आजादी
    को अपने संस्कारवश वे उचित प्रकार से भोग पाने में स्वयं को असमर्थ पाती हैं | तात्पर्य यह कि न तो वे नारी होने के complex
    से उबर पाती हैं और न पुरुष की छत्रछाया में ही संतुष्ट रह पाती हैं | एक अजीब सी कशमकश में जीवन बिताती हैं | भारत
    की सामाजिक संरचना, शिक्षा और संस्कार ( स स स ) हमारे समाज के नारी-विमर्श को कुछ अलग दृष्टिकोणों से परखने ,
    विचार करने और उक्त तीनो ' स ' के परिप्रेक्ष्य में मार्ग निर्धारित करने की अपेक्षा रखते हैं | मेरा मानना है कि कोई भी
    अन्य विदेशी पद्धति भारत में नारी उत्थान की दिशा में सहायक नहीं होगी | अपनी दिशा हमें स्वयं खोजनी होगी और
    संस्कारगत हीनता की भावना के स्थान पर आत्मविश्वास , आत्मबल, आत्म-संयम, और परिवेश में अपना स्वस्थ, सक्रिय ,
    सुरक्षित और संतोषजनक स्थान बनाने की ओर बढ़ना होगा |
    सादर,
    कमल

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आपकी प्रतिक्रियाएँ मेरे लिए महत्वपूर्ण हैं।अग्रिम आभार जैसे शब्द कहकर भी आपकी सदाशयता का मूल्यांकन नहीं कर सकती।आपकी इन प्रतिक्रियाओं की सार्थकता बनी रहे इसके लिए आवश्यक है कि संयतभाषा व शालीनता को न छोड़ें.

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