शुक्रवार, 23 जनवरी 2009

नचारी

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- नचारी -



नचारी को, मुक्तक काव्य के अन्तर्गत लोक-काव्य की श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। इनका लिखित स्वरूप सर्व प्रथम 'विद्यपति की पदावली' में प्राप्त होता है। इसकी रचना में लोक-भाषा (देसिल बयना ) का प्रयोग और शैली में विनोद एवं व्यंजना पूर्ण विदग्धता, रस को विलक्षण स्वरूप प्रदान कर मन का रंजन करती हैं।विद्यापति के जीवनकाल में ही उनकी नचारियाँ लोक-कण्ठ का शृंगार बन गईं थीं। मिथिला और वैशाली में - नेपाल में भी- ,नचारियों को अब भी भक्ति और प्रेम से गाया जाता है ।

विद्यापति के बाद हिन्दी के काव्य में यह लोक प्रिय रूप कहीं दिखाई नहीं देता । मुझे काव्य का यह रूप बहुत मन-भावन लगा । मेरी 'नचारियों' के मूल में यही प्रेरणा रही है।
- प्रतिभा सक्सेना






1.
(नोक -झोंक)


'पति खा के धतूरा ,पी के भंगा ,भीख माँगो रहो अधनंगा ,
ऊपर से मचाये हुडदंगा ,चढी ये सिर गंगा !'
फुलाये मुँह पारवती !
'मेरे ससुरे से सँभली न गंगा ,मनमानी है विकट तरंगा ,
मेरी साली है, तेरी ही बहिना ,देख कहनी -अकहनी मत कहना !
समुन्दर को दे आऊँगा !'
'रहे भूत पिशाचन संगा ,तन चढा भसम का रंगा ,
और ऊपर लपेटे भुजंगा ,फिरे है ज्यों मलंगा !'
सोच में है पारवती !
'तू माँस सुरा से राजी, मेरे भोजन पे कोप करे देवी .
मैंने भसम किया था अनंगा, पर धार लिया तुझे अंगा !
शंका न कर पारवती !'
'जग पलता पा मेरी भिक्षा, मैं तो योगी हूँ ,कोई ना इच्छा ,
ये भूत औट परेत कहाँ जायें, सारी धरती को इनसे बचाये ,
भसम गति देही की !
बस तू ही है मेरी भवानी, तू ही तन में में औ' मन में समानी ,
फिर काहे को भुलानी भरम में, सारी सृष्टि है तेरी शरण में !
कुढ़े काहे को पारवती !'
'मैं तो जनम-जनम शिव तेरी, और कोई भी साध नहीं मेरी !
जो है जगती का तारनहारा, पार कैसे मैं पाऊँ तुम्हारा !'
मगन हुई पारवती !




2.
गौरा की बिदाई


तोरा दुलहा जगत से निराला उमा, मैना कहिलीं,
कुल ना कुटुम्व, मैया बाबा, हम अब लौं चुप रहिलीं !
सिगरी बरात टिकी पुर में बियाही जब से गौरा ,
रीत व्योहार न जाने भुलाना कोहबर*में दुलहा !
भूत औ परेत बराती, सबहिन का अचरज होइला ,
भोजन पचास मन चाबैं तओ भूखेइ रहिला !
ससुरे में रहिला जमाई, बसन तन ना पहिरे !
अद्भुत उमा सारे लच्छन, तू कइस पतियानी रे !
रीत गइला पूरा खजाना कहाँ से खरचें बहिना !
मास बरस दिन बीते कि, कब लौं परिल सहना !
पारवती सुनि सकुची, संभु से बोलिल बा -
बरस बीत गइले हर, बिदा ना करबाइल का ?
सारी जमात टिक गइली, सरम कुछू लागत ना !
सँगै बरातिन जमाई, हँसत बहिनी ,जीजा !
हँसे संभु ,चलु गौरा बिदा लै आवहु ना ,
सिगरी बरात, भाँग, डमरू समेट अब, जाइत बा !
गौरा चली ससुरारै, माई ते लिपटानी रे
केले के पातन लपेटी बिदा कर दीनी रे !
फूल-पात ओढ़िल भवानी लपेटे शिव बाघंबर ,
अद्भुत - अनूपम जोड़ी, चढ़े चलि बसहा पर !


(* कोहबर - नवदंपति का क्रीड़ागृह जहाँ हास-परिहास के बीच कन्या और जमाई से नेगचार करवाये जाते हैं )

गौरा का सुहाग - later things में कर दिया ।

गुरुवार, 22 जनवरी 2009

सत-बहिनी

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सत-बहिनी

*
**
*



{ भारत में कत्थई-भूरे रंग की पीली चोंचवाली चिड़ियाँ होती हैं जिनका का पूरा झुंड पेड़ों पर या क्यारियों में आँगन में उतर कर चहक-चहक कर खूब शोर मचाता है ।उनके विषय में एक लोक- कथा प्रचलित है - सात बहनें थी,और सबसे छोटा एक भाई। सातों बहनें एक ही गाँव में ब्याही थीं।
....... आगे कथा इस प्रकार चलती है
-}



अँगना में रौरा मचाइल चिरैयाँ सत-बहिनी !
बिरछन पे चिक-चिक ,
किरैयन में किच
-किच,
चोंचें नचाइ पियरी पियरी
!
चिरैयाँ सत-बहिनी !

एकहि गाँव बियाहिल सातो बहिनी,मइके अकेल छोट भइया ,
'बिटियन की सुध लै आवहु रे बिटवा ' कहि के पठाय दिहिल मइया !
'माई पठाइल रे भइया ,
मगन भइ गइलीं चिरैंयाँ सत-बहिनी !'

सात बहिन घर आइत-जाइत ,मुख सुखला ,थक भइला ,
साँझ परिल तो माँगि बिदा भइया आपुन घर गइला !
अगिल भोर पनघट पर हँसि-हँसि बतियइली सतबहिनी !

हमका दिहिन भैया सतरँग लँहगा, हम पाये पियरी चुनरिया ,
सेंदुर-बिछिया हमका मिलिगा ,हम बाहँन भर चुरियाँ !
भोजन पानी कौने कीन्हेल अब बूझैं सतबहिनी!

का पकवान खिलावा री जिजिया ? मीठ दही तू दिहली ?
री छोटी तू चिवरा बतासा चलती बार न किहली ?
तू-तू करि-करि सबै रिसावैं गरियावैं सतबहिनी !

भूखा-पियासा गयेल मोर भइया , कोउ न रसोई जिमउली ,
दधि-रोचन का सगुन न कीन्हेल कहि -कहि सातों रोइली ,
उदबेगिल सब दोष लगावैं रोइ-रोइ सतबहिनी !

'
तुम ना खबाएल जेठी ?', 'तू का किहिल कनइठी?' इक दूसर सों कहलीं
एकल हमार भइया, कोऊ तओ न पुछली सब पछताइतत रहिलीं !
साँझ सकारे नित चिचिहाव मचावें गुरगुचियाँ सतबहिनी!



- प्रतिभा सक्सेना




मंगलवार, 20 जनवरी 2009

मंदाकिनी का सच

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मंदाकिनी
का सच


मंदाकिनी से जो एक बार मिल लेगा, वह उसे कभी भूल नहीं सकेगा। वह लड़की नहीं, किसी उपन्यास की पात्र लगती है। ऐसे पात्र जो अन्य पात्रों-कुपात्रों की भीड़ में अलग से जगमगाते हैं। कथा में उनकी भूमिका छोटी-सी होती है, पर उनका व्यक्तित्व इतना बड़ा होता है कि अपनी भूमिका से वे बहुत आगे निकल जाते हैं। जैसे चाँद और चाँदनी से भरे आकाश में कोई तारा अलग से जगमगा रहा हो।


यह मंदाकिनी की आकांक्षा नहीं, उसकी नियति है। मंदाकिनी ने जान-बूझ कर कभी ऐसा करना चाहा हो, यह मुझे याद नहीं। दरअसल, वह है ही ऐसी। उसे प्रचलित कसौटियों पर सुंदर नहीं कहा जा सकता, लेकिन वह हमेशा भीड़ में अलग और सबसे आकर्षक नजर आती है। उसकी संपूर्ण अभिव्यक्ति में कुछ ऐसा है जो उसे सुंदर और शीलवान बनाता है। इन दोनों को सात्विक निखार मिलता है उसकी प्रत्युत्पन्न मति और बौद्धिक तीक्ष्णता से। उसने मुझे कई ऐसे किस्से सुनाए थे, जब उसने अपने से बड़ों को ढेर कर दिया था। एक साहब उसके साथ मनाली की सैर करना चाहते थे। मंदाकिनी ने कहा कि दिल्ली में मेरे एक लोकल गार्डियन हैं। दिल्ली से बाहर जाने के लिए मुझे उनसे अनुमति लेनी होगी। सच यह था कि उसका कोई गार्डियन नहीं था। जब वह पाँच साल की थी, उसके पिता का देहांत हो गया था। माँ चित्रकार है और पेरिस में रहती थी। एक दूसरे साहब मंदाकिनी को एक टीवी चैनल में एंकर बना रहे थे। मंदाकिनी ने उनसे कहा कि मैं पीएचडी खत्म करने के बाद ही कोई नौकरी करूँगी। इसके लिए मुझे कम से कम तीन साल इंतजार करना होगा। सच यह था कि तब तक उसने एमए भी नहीं किया था।


वही मंदाकिन जब पिछले महीने मिली, तो तरद्दुद में थी। इसके पहले मैंने उसे ऐसी दुविधा में नहीं देखा था। परेशान होने पर भी वह नहीं चाहती थी कि किसी को उसकी परेशानी की हवा लगे। एक बार उसने कहा था कि सहानुभूति प्रकट करनेवाले और उसके लिए कुछ भी उठा न रखने की कोशिश करनेवाले उसे इतने मिले थे कि अब वह उनसे कोसों दूर रहना चाहती है। उसने जिसकी भी सहानुभूति ली थी, वह कीमत वसूल करने के लिए घोड़े पर सवार हो कर उसके पास पहुँच जाता था। एक लेखक महोदय ने अपने प्रकाशक के यहाँ उसे प्रूफ रीडर लगवा दिया था। दस दिन के बाद ही उनका आग्रह हुआ कि दफ्तर से लौटते हुए मेरे घर आ जाया करना और एक घंटा मेरी किताबों के प्रूफ पढ़ दिया करना। मंदाकिनी बहुत खुश हुई कि उसे एक स्थापित लेखक के साथ काम करने का मौका मिलेगा और वह भाषा की बारीकियाँ सीख सकेगी। पहले दिन वह लेखक के घर गई, तो पता चला कि जिस उपन्यास के प्रूफ उसे पढ़ने हैं, वह अभी लिखा जाना है। महीना पूरा करने के बाद उसने यह नौकरी छोड़ दी। इससे मिलते-जुलते कारणों से उसे कई नौकरियाँ बीच में ही छोड़नी पड़ गई थीं। तब भी जब उसे पैसों की सख्त जरूरत थी। लेकिन मैंने मंदाकिनी को कभी दुखी या उदास नहीं पाया। शायद अकेले में भी हर दस मिनट पर वह खिलखिला उठती हो।


उसी मंदाकिनी के चेहरे पर आज अवसाद के बादल छाए हुए थे। चाय का प्याला आते ही वे बादल बरस पड़े। उसकी बात, जितना मुझे याद है, उसके शब्दों में ही सुनिए -- 'सर, पहली बार इतनी मुश्किल में पड़ी हूँ। आप जानते ही हैं कि किसी को प्यार करना और उसके साथ घर बसाने की बात सोचना मेरे लिए कितना मुश्किल है। बचपन से ही मेरा शरीर पुरुषों की लोलुपता का कातर साक्षी रहा है। प्रतिरोध करना मैंने बहुत बाद में सीखा। तब से मैंने किसी को अपने शिष्ट होने का फायदा उठाने नहीं दिया। शायद मेरी किस्मत ही कुछ ऐसी है कि मुझे हर बिल में साँप ही दिखाई देता है। जो अपने को जितना स्त्री समर्थक दिखाता है, उससे मुझे उतना ही डर लगता है। लेकिन इस बार एक ऐसे लड़के से मेरा पाला पड़ा है, जिसकी मनुष्यता के आगे मैं हार गई। इतना सीधा और सज्जन है कि छह महीना पहले उससे परिचय हुआ था, पर आज तक उसने मुझे छुआ तक नहीं है। सिनेमा हॉल के अंधेरे में भी। लेकिन मैं जानती हूँ कि वह हर क्षण मेरे ही बारे में सोचता रहता है। एमबीए का उसका आखिरी साल है। कल उसने कहा कि मैं तुमसे शादी करना चाहता हूँ। मैं कोई जवाब नहीं दे पाई। सर, आप ही बताइए, मुझे क्या करना चाहिए।'



मैं क्या बताता। इस मामले में मेरे अनुभव ऐसे हैं कि सलाह देना असंभव जान पड़ता है। स्त्री-पुरुष संबंधों में जो पेच हैं, उनका कोई हल नहीं है। इसलिए जो भी रास्ता पकड़ो, वह कहीं न कहीं जा कर बंद हो जाता है। फिर भी, चूँकि मंदाकिनी लगातार इसरार किए जा रही थी, इसलिए हालाँकि, अगर, मगर वगैरह लगाते हुए मैंने कहा, 'मेरे खयाल से, तुम्हें अब सेट्ल हो जाना चाहिए। तुम भी नौकरी करती हो। एमबीए पूरा करने के बाद उसे भी अच्छी नौकरी मिल जाएगी। कब तक खुद भटकती रहोगी और दूसरों के भटकाव का कारण बनती रहोगी?' इस पर मंदाकिनी ठठा कर हँस पड़ी। बोली, 'आप ठीक कहते हैं। जॉर्ज बर्नार्ड शॉ की सीख है कि पुरुष को जितनी देर से हो सके, शादी करनी चाहिए और स्त्री को जितनी जल्दी हो सके, शादी कर लेनी चाहिए !'


एक हफ्ते बाद एक साहित्यिक कार्यक्रम के समापन पर मंदाकिनी से मुलाकात हो गई। मंडी हाउस में पेड़ों की छाँह-छाँह चलते हुए मैंने पूछा, 'तो अंत में तुमने क्या फैसला किया?' वह बेहद संजीदा हो आई। फिर मुसकराते हुए कहा, 'मैंने उससे कह दिया कि मेरी शादी हो चुकी है।' अब संजीदा होने की बारी मेरी थी। उसने मुझे भारहीन करने के लक्ष्य से कहा, 'सर, मैंने उससे कहा कि चलो, शादी के बिना ही साथ रहते हैं। पर वह राजी नहीं हुआ। बार-बार पूछता कि शादी से तुम्हें दिक्कत क्या है? एक दिन मैंने उससे कह दिया कि मेरी शादी हो चुकी है। पति इसी शहर में रहता है -- किसी और के साथ। तब से मैंने तय किया है कि मैं शादी नहीं करूँगी। जिसके साथ रहना होगा, यों ही रहूँगी। यह सुनते ही वह भाग खड़ा हुआ। फिर उससे मुलाकात नहीं हुई।'



मैंने सोचा कि मंदाकिनी को बधाई दूँ, पर मेरी आँखें गीली हो आईं। मंदाकिनी ने ही मुझे उबारा, 'सर, आप तो लड़कियों की तरह भावुक हो उठे। मुझे देखिए, कितनी सख्तजान हूँ। झूठ बोल-बोल कर अपने सच को खोज रही हूँ । उस लड़के ने मुझमें कम से कम यह विश्वास तो पैदा कर ही दिया है कि आधा-अधूरा मिला है, तो कभी पूरा भी मिलेगा।'


- राजकिशोर


शनिवार, 17 जनवरी 2009

मुझे तो न्याय चाहिए : एकालाप : स्त्रीविमर्श

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एकालाप





मुझे तो न्याय चाहिए *

RAY OF LIGHT: 20-year-old Sabra has travelled to India from Afghanistan in search of justice.

गन्धर्वों के देश
आया था एक राजकुमार
भरतवंशी.
छलछलाता हुआ पौरुष.
मूर्तिमान काम देव.
उछलती हुई मछलियाँ।


उफनता हुआ यौवन
आँखों में लहरा उठा समुद्र
पहली ही दृष्टि में।


बँध गए हम दोनों बाहुबंधन में.
पिघल - पिघल गया मेरा रूप.
जान पाई मैं पहली बार
स्त्री होने का सुख।


मैं बाँस का वन थी - वह संगीत था.
मैं पर्वत थी - वह गूँजती आवाज़.
देह की साधना थी,
आत्मा का आनंद था.
उसे पाकर मैं धन्य थी,
मुझे पाकर वह पूर्ण था.


'सुरत कलारी भई मतवारी
मदवा पी गई बिन तोले'।


खुमार उतरा
तो वह जा चुका था
वापस अपने देसों!
काले कोसों !


मैं अकेली रह गई।



मैं मेघदूत की यक्षिणी नहीं थी,
नहीं थी मैं नैषध की दमयंती.
मैं शकुन्तला भी नहीं थी,
राधा बनना भी मुझे स्वीकार न था.


मैं चल पड़ी -
बियाबान लाँघती,
शिखर - शिखर फलाँगती.
रास्ता रोका समन्दरों ने,
ज्वालामुखियों ने,
शेर बघेरों ने,
साँपों ने, सँपेरों ने।


मन तो घायल था ही,
तन भी तार - तार कर दिया
दुनिया ने।



मैं नहीं रुकी
मैं नहीं झुकी
मैं नहीं थमी
मैं नहीं डरी........



आ पहुँची
आग का दरिया तैर कर
काले कोसों !
उसके देसों !!



कितनी खुश थी मैं !
उससे मिलना जो था !!



पर
खुशी पर गिरी बिजली तड़प कर .
वह तो दूसरी दुनिया बसाए बैठा है !!



लौट जाऊँ मैं ?
उसे नई दुनिया में खुश देखकर
खुश होती रहूँ ?
रोती रहूँ ??
उसकी खुशी में खुश रहूँ ???
- सोचा था मैंने एक बार को




नहीं, मैं रोई नहीं.
मैंने थाम लिया उसका गरेबान ;
और घसीट ले आई
चौराहे पर.


नहीं,
अब मुझे उसकी ज़रूरत नहीं.
मुझे तो न्याय चाहिए !
न्याय चाहिए उस नई दुनिया को भी
जो उसने बसाई है - मेरा घर उजाड़ कर !!
- ऋषभ देव शर्मा


*सन्दर्भ
नीचे वीडियो देखें >>






शनिवार, 10 जनवरी 2009

मैंने दीवारों से पूछा

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मैंने दीवारों से पूछा

-डॉ. कविता वाचक्नवी


चिह्नों भरी दीवारों से पूछा मैंने
किसने तुम्हें छुआ कब - कब
बतलाओ तो
वे बदरंग, छिली - खुरचीं- सी
केवल इतना कह पाईं
हम तो
पूरी पत्थर- भर हैं
जड़ से
जन से
छिजी हुईं
कौन, कहाँ, कब, कैसे
दे जाता है
अपने दाग हमें
त्यौहारों पर कभी
दिखावों की घड़ियों पर कभी - कभी
पोत- पात, ढक - ढाँप - ढूँप झट
खूब उल्लसित होता है
ऐसे जड़ - पत्थर ढाँचों से
आप सुरक्षा लेता है
और ठुँकी कीलों पर टाँगे
कैलेंडर की तारीख़ें
बदली - बदली देख समझता
इन पर इतने दिन बदले।
अपनी पुस्तक "मैं चल तो दूँ " (२००५) से




शनिवार, 3 जनवरी 2009

जन्नत : बहत्तर कुआँरियाँ एक आदमी के लिये

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जन्नत


बहत्तर कुआँरियाँ एक आदमी के लिये !
वाह क्या बात है !
यह है जन्नत का नज़ारा !
यहाँ तो चार पर ही मन मार कर रह जाना पड़ता है,
र वे चारों भी समय के साथ ,
कितनों की माँ बन-बन कर हो जाती हैं रूढ़ी, पुरानी ,
अल्लाह की रहमत !
बहत्तर कुआँरियां ,
हमेशा जवान रहेंगी, हर समय तुम्हारा मुँह देखेंगी, राह तकेंगी !
न माँ, न बहन, न बेटी,
ये सब फ़लतू के रूप हैं औरत के !
सामने न आयें !
बस बहत्तर कुआँरियाँ और दिन रात भोग-विलास !
और हमें क्या चाहिये !
अल्लाह को ख़ुश करने के लिये,
सैकड़ों की मौत बने हमारे शरीर के चाहे चीथड़े उड़ जायें,
बस, बहत्तर कुआँरियाँ हमें मिल जायें !
- डॉ.प्रतिभा सक्सेना






गुरुवार, 1 जनवरी 2009

पहली भोर

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एकालाप -१४




पहली भोर



बरस भर वह
उगलता रहा मेरे मुँह पर
दिन भर का तनाव
हर शाम !


आज
नए बरस की पहली भोर
मैंने दे मारा
पूरा भरा पीकदान
उसके माथे पर !!


कैसा लाल - लाल उजाला
फ़ैल गया सब ओर !!!


- ऋषभ देव शर्मा



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