सुगंधी की कहानी : उसकी ज़ुबानी (४)
सुधा अरोड़ा
बहरहाल , शराब की दूकान बंद करने के बाद वड़ा - पाव की गाड़ी शुरु की गई । कुछ लड़कों को साथ लेकर गाड़ी चलाई गई । लेकिन यह काम भी कुछ ही साल तक चल सका , क्यों कि वहाँ भी शराब पीकर झगड़ा , मार-पीट होती थी । एक स्थानीय गुंडे के साथ मारामारी की वजह से यह काम भी बंद हो गया । बाद में वह गुंडा वहाँ का नगरसेवक बना और कई साल बाद गैंगवार में मारा गया । अब फिर से बेकारी , वही शराब पीना , वही झगड़े ,वही घर में मारपीट .... पूरा घर आतंकित और सहमा - सहमा सा रहता ।
इस दौरान फ्रांसिस का सीटू यूनियन ऑफिस में आना-जाना शुरु हो गया था । 1980 में विवेक मोंटेरो और फ्रांसिस की पहचान यूनियन ऑफिस में हुई । इसके बाद 1980 के दरम्यान विवेक मोंटेरो और उनके दो साथी जोसेफ पिंटो और पुरुषोतम त्रिपाठी हमारे घर के पास पचास कदम की दूरी पर मौजूद एक कमरे में किराए पर रहने लगे । ये तीनों साथ - साथ रहते थे । कभी - कभी विवेक के वैज्ञानिक दोस्तों या ट्रेड यूनियन के कामगारों की भी भीड़ वहाँ लग जाती थी । वैसे ये तीनों साथी ज्यादातर बाहर खाते थे पर कभीकभी हमारे यहाँ भी खाना खाने आ जाते थे । इसी वजह से पिंटो , विवेक मेरे बच्चों की पढ़ाई में मदद करते थे , जब घर में रोजाना होनेवाले झगडों, मार पीट की वजह से बच्चों को पढ़ने की और सोने की बहुत तकलीफ होती थी । मुझे हमेशा इस बात की चिंता लगी रहती थी कि कहीं मेरी तरह मेरे बच्चों को भी पढ़ाई बीच में छोड़नी न पड़े । ऐसे वक्त पर पिंटो और विवेक बच्चों को काफी राहत देते थे ।
मैं इस रोज - रोज की मार पीट और झगडों से तंग आ चुकी थी । हम दोनों के कलह से बच्चे बेहाल से हो जाते थे । जिन घरों में पति - पत्नी में कलह होता रहता है , मासूम बच्चे उसका सबसे बड़ा शिकार हो जाते हैं , उनके मानसिक विकास में अवरोध आ जाता है । बच्चों के लिये मेरा जी बहुत कलपता था ।दस बाई दस के छोटे से कमरे में बच्चों के सामने ही यह सारा धमाल चलता था ।
एक दिन जब फ्रांसिस ने मुझे बहुत मारा पीटा तो मुझे लगा कि इस अपमान से बेहतर है यहाँ से चले जाना या मर जाना । एक बार मैं बच्चों को साथ लेकर घर छोड़कर जाने को निकली तब जोसेफ पिंटो ने मुझे समझा - बुझाकर रोका । दूसरी बार मैने आत्महत्या करने के लिए अपने ऊपर केरोसीन छिड़क लिया । यह देखकर बच्चे घबड़ा गए और उन्होने जोसेफ पिंटो को बुलाया । पिंटो ने आकर मुझे फटकारा , समझाया बुझाया और इस तरह वह हादसा टल गया ।
आज जब अपने पतियों की हिंसा की शिकार औरतें मेरे पास मदद के लिये आती हैं तो मुझे मार खाकर एक कोने में सिकुड़कर आँसू बहाते अपना चेहरा याद हो आता है । मैं इन औरतों को यही समझाती हूँ कि जब पहली बार पति मारने के लिए हाथ उठाए , तभी प्रतिरोध करना सीखो । पहली बार, दूसरी बार अगर औरत चुपचाप पिटाई बर्दाश्त कर लेती है तो वह रोज़ाना की हिंसा के लिए दरवाजे खोल देती है ।
>>क्रमशः
आगामी अंक में ---
एक बार फ्रांसिस ने हमारी बेटी ज्योति - जो दसवीं का इम्तहान देकर लौटी थी, को किसी छोटी सी बात पर मेरे सामने इतनी जोर से मारा कि वह फर्श पर गिर गई और बेहोश हो गई । अब तक मैं अपने बच्चों की वजह से अपने शरीर पर मार झेलती थी , बर्दाश्त करती थी । पर बेटी का वह हाल देखकर मुझ.....
हिंसा का विरोध पहले मौके पर ही किया जाना चाहिए.पहली बार बर्दाश्त कर लिया तो हिंसा बढ़ती ही जाती है.यह बात हर प्रकार की हिंसा पर लागू है.
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