सोमवार, 18 अक्टूबर 2010

सहजीवन को सहजीवन ही रहने दें

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सहजीवन को सहजीवन ही रहने दें 

राजकिशोर 



भारत की एक विशेषता यह है कि यहाँ जो भी नई चीज आती है, उसमें पुराने की रंगत डालने की कोशिश की जाती है। इस तरह, वह नए और पुराने की एक ऐसी खिचड़ी हो जाती है, जिसमें किसी भी चीज का अपना कोई स्वाद नहीं रह जाता। मेरा खयाल है, सहजीवन (लिव-इन संबंध) के प्रयोग के साथ यही हो रहा है। यह एक सर्वथा नई जीवन शैली है। पहले तो न्यायपालिका ने इसे मान्यता दी, अब वह पूरी कोशिश कर रही है कि इसे विवाह के पुराने ढाँचे में ढाल दिया जाए। यह इस प्रयोग के प्रति न्याय नहीं है। लगता है, विवाह के परंपरागत ढाँचे से मोह टूटा नहीं है। 



न्यायालय द्वारा पहले कहा गया कि जब कोई युगल लंबे समय तक (समय की यह लंबाई कितनी हो, यह निर्दिष्ट नहीं किया गया है) साथ रह ले, तो उनकी हैसियत पति-पत्नी जैसी हो जाती है और इसे विवाह की संज्ञा दी जा सकती है। इस संबंध से जो बच्चे पैदा होंगे, उन्हें अवैध संतान नहीं करार दिया जा सकता। आपत्ति की पहली बात तो यही है कि किसी भी बच्चे को अवैध करार ही क्यों दिया जाए? बच्चा किस प्रकार के संबंध से जन्म लेगा, यह वह स्वयं तय नहीं कर सकता। इसलिए जो भी बच्चे इस संसार में आते हैं, सब की हैसियत एक जैसी होनी चाहिए। इसलिए अवैध बच्चे की धारणा ही दोषपूर्ण है। दूसरी बात यह है कि अगर किसी जोड़े को अंततः पति-पत्नी ही कहलाना हो, तो वह सीधे विवाह ही क्यों नहीं करेगा? सहजीवन की प्रयोगशील जीवन पद्धति क्यों अपनाने जाएगा? 



सहजीवन की परिकल्पना का जन्म इसीलिए हुआ क्योंकि विवाह के रिश्ते में काफी बासीपन आ गया है और उसकी अपनी  जटिलताएँ बढ़ती जाती हैं। मूल बात तो यह है कि विवाह में प्रवेश करना आसान है, पर उससे बाहर आना कठिन कानूनी तपस्या है। यदि बरसों के इंतजार के बाद विवाह विच्छेद हो भी जाए, तो पुरुष पर ऐसी अनेक जिम्मेदारियाँ लाद दी जाती हैं, जिनका कोई औचित्य नहीं है। विवाह से संबंधित कानून के अनुसार, तलाकशुदा पत्नी को गुजारा भत्ता देना अनिवार्य है। यह एक भोगवादी नजरिया है। इसके तहत माना जाता है कि पुरुष जिस स्त्री से विवाह करता है, वह उसकी देह का उपभोग करता है। इसलिए जब वह वैवाहिक संबंध से बाहर आ रहा है, तो उसे इस उपभोग की कीमत चुकानी चाहिए। यह कीमत पुरुष की संपत्ति और आय के अनुसार तय की जाती है। यानी गरीब अपनी तलाकशुदा पत्नी को कम हरजाना देगा और अमीर अपनी तलाकशुदा पत्नी को ज्यादा हरजाना देगा। मेरा निवेदन है कि यह स्त्री को भोगवादी नजरिए से देखने का नतीजा है। इससे जितनी जल्द मुक्ति पाई जा सके, उतना ही अच्छा है। 



विवाह से पैदा हुए बच्चों की परवरिश का मामला गंभीर है। बच्चों के जन्म के तथा पालन-पोषण के लिए दोनों ही पक्ष समान रूप से जिम्मेदार हैं। इसलिए जब वे अपने पिता से या माता से वंचित हो रहे हो, तब यह दोनों पक्षों की जिम्मेदारी हो जाती है कि वे उसके पालन-पोषण की समुचित व्यवस्था करें। यह जिम्मेदारी उस पक्ष की ज्यादा है जिसके पास अपेक्षया ज्यादा संपत्ति या आय हो। लेकिन एक बालिग व्यक्ति का दूसरे बालिग व्यक्ति से गुजारा भत्ते की अपेक्षा करना मानव गरिमा के विरुद्ध है। इस अशालीन कानून से बचने के उपाय अभी तक खोजे नहीं गए हैं, यह आश्चर्य की बात है। ऐसा लगता है कि पुरुष अपने आर्थिक वर्चस्व को छोड़ना नहीं चाहते और स्त्रियाँ आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर होना नहीं चाहतीं। ये दोनों ही बातें वैवाहिक जीवन की सफलता के लिए अपरिहार्य हैं। दो आर्थिक दृष्टि से विषम व्यक्तियों के संबंधों में लोकतंत्र का कोई भी तत्व नहीं आ सकता। एक शिकारी बना रहेगा और दूसरा शिकार। 



इस समस्या का सबसे सुंदर समाधान यह हो सकता है कि विवाह के बाद परिवार की समस्त संपत्ति और आय को संयुक्त बना दिया जाए, जिसमें परिवार के सभी सदस्यों का बराबर हिस्सा हो। साथ ही, हर बालिग सदस्य से अपेक्षा की जाए कि वह परिवार के सामूहिक कोष में अपनी क्षमता के अनुसार योगदान करे। यह व्यवस्था अपनाने पर तलाक होने पर किसी को गुजारा भत्ता देने की समस्या का हल संभव है। 



आप सोच रहे होंगे कि सहजीवन के प्रसंग में विवाह की इतनी चर्चा क्यों की जा रही है। बात यह है कि विवाह की इन जटिलताओं से बचने के लिए ही सहजीवन का प्रयोग सामने आया है। लेकिन उच्चतम न्यायालय ने अभी-अभी फैसला दिया है कि सहजीवन में रहने वाले पुरुष को भी संबंध विच्छेद के वक्त अपनी साथी को गुजारा भत्ता देना होगा। जिन दो जजों के बेंच ने यह फैसला दिया है, वे अपने इस निर्णय पर मुतमइन नहीं हैं, इसलिए उनके आग्रह पर इस मुद्दे पर विचार करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के साथ एक बृहत्तर बेंच का गठन किया गया है। मुझे शक है कि यह बड़ा बेंच भी कुछ ऐसा ही निर्णय दे सकता है, जो सहजीवन को विवाह में बदल दे। यह दुर्भाग्यपूर्ण होगा और सहजीवन के मूल आधार पर ही कुठाराघात करेगा। 



इस तरह के निर्णय स्त्रियों के प्रति सहानुभूति की भावना से पैदा होते हैं। पर वास्तव में ये स्त्रियों का नुकसान करते हैं। स्त्रियाँ पहले से ही काफी पराधीन हैं। अब उन्हें स्वाधीन और स्वनिर्भर बनाने की आवश्यकता है। सहजीवन इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। अगर स्त्री-पुरुष संबंध के इस नए और उभरते हुए रूप को विभिन्न बहानों से विकृत किया जाता है, तो यह नए समाज के निर्माण में बाधक होगा। आशा है, न्यायपालिका इस दृष्टि से भी विचार करेगी। 

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सोमवार, 16 अगस्त 2010

क्या पुरुष अपने ‘समदुखी मीत’ की व्यथा कथा समानुभूति से लिखेंगे ?

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औरत की दुनिया -


क्या पुरुष अपने ‘समदुखी मीत’ की व्यथा कथा समानुभूति से लिखेंगे ?
-  सुधा अरोड़ा  
      




mannu bhandari indore city bhaskar interview‘‘ साहित्य समाज का दर्पण है ’’ उक्ति घिस घिस कर पुरानी हो गई , पर साहित्य का समाशास्त्रीय  विश्लेषण  आज भी साहित्य का एक अनिवार्य हिस्सा नहीं बन पाया । साहित्य और समाजविज्ञान के बीच की इस खाई ने साहित्य और साहित्यिक समीक्षाओं को शुद्ध कलावादी बना दिया और समाजविज्ञान के मुद्दों को एक अलग शोध का विषय , जिसका साहित्य से कोई वास्ता नहीं ।




हिन्दी साहित्य में महिला रचनाकारों की आत्मकथाएँ उँगलियों पर गिनी जा सकती हैं । पुरुषवर्ग यह सवाल पूछता है कि लेखिकाएँ  अपनी आत्मकथाएँ  क्यों नहीं लिखतीं ? पर लिखी गयी आत्मकथाओं को इस या उस कारण से कटघरे में खड़ा करता रहता है।




हमारा भारतीय लेखक समाज काफी क्रूर और निर्मम है । बाहर बाहर से सहानुभूति जताता हुआ, यह एक लेखिका के पर कतरने को और उसके औरत होने के कारण जन्मे दुख, उसकी तकलीफ, उसकी व्यथा पर ठहाका लगाने की मंशा रखता हुआ, शातिर अंदाज में मंद मंद मुस्कुराता और व्यंग्यात्मक टिप्पणियाँ करता है ।




Ek Kahani Yah Bhiहंस के मार्च अंक में ‘‘ आत्मा का आईना ’’ आलेख में वरिष्ठ समीक्षक मैनेजर पांडे ने बेहद उदारमना होकर मन्नू जी की किताब ‘ एक कहानी यह भी ’ की एक बेहतरीन विश्लेषणात्मक समीक्षा की है , लेकिन अंत तक आते आते उनकी आलोचकीय दृष्टि पर पुरुषवादी सोच ने धावा बोल दिया है। उनका एक लंबा पैराग्राफ है जिसमें मीता के प्रति गहरी समानुभूति से उन्होंने एक टिप्पणी दी है । वे लिखते हैं -


‘‘ इस कहानी में एक पात्र और उससे जुड़ा प्रसंग ऐसा है जिस पर अगर मन्नू परानुभूति या समानुभूति के साथ सोचतीं और लिखतीं तो उनकी आत्मकथा असाधारण होती. वह पात्र है मीता, जो एक ओर राजेन्द्र यादव के बौद्धिक छल का शिकार हुई है तो दूसरी ओर मन्नू तथा राजेन्द्र के बीच तनाव और अलगाव का कारण भी है. मेरे सामने सवाल यह है कि क्या मीता के कुछ दुख-दर्द नहीं होंगे. अगर वे हैं तो उनकी चिंता किसी को नहीं है, न राजेन्द्र को और न मन्नू को. मन्नू तो एक स्त्री हैं और संवेदनशील लेखिका भी. यही नहीं, वे स्वयं राजेंद्र के छल से पीड़ित स्त्री हैं इसलिए उनसे यह उम्मीद की जा सकती है कि वे मीता की पीड़ा को एक समदुखिनी के दर्द को समझने और व्यक्त करने की कोशिश करतीं लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. मीता तो लेखिका नहीं है फिर उसके दुख दर्द की कहानी कौन कहेगा ? लगता है कि दूसरी असंख्य स्त्रियों की तरह मीता की पीड़ा भी अनकही रह जाएगी . ’’ (हंस: मार्च 2010 - पृष्ठ-54




इस पैराग्राफ में प्रश्नकर्ता का भी बौद्धिक छल उजागर होता है । वह लेखिका से उस विश्लेषण की माँग कर रहा है जो कृति का अभीष्ट है ही नहीं । हाल ही में मन्नू जी से एक पत्रकार ने साक्षात्कार लिया और `हंस'(मार्च) में प्रकाशित इस आलेख ‘ आत्मा का आईना ‘ के अंतिम पैराग्राफ पर उनकी राय पूछी । मन्नू जी ने कहा - ‘‘ जब मीता ने राजेंद्र जी से सारे सम्बन्ध तोड़ लिए थे, उनके सारे पत्र भी लौटा दिए थे, तो जैसे ही उसे पता चला कि वह मुझसे शादी कर चुके हैं, दोबारा वह उनकी जिन्दगी में दाखिल हो गई । अगर उसकी जगह मैं होती और राजेंद्र किसी और से शादी कर रहे होते या कर चुके होते मैं तो अपने को पूरी तरह उनसे काट लेती, उनकी जिंदगी में कोई दखल न देती और एक पत्नी का अधिकार छीन कर कभी अपना घर बसाने का सपना तो नहीं ही देखती । ’’ मन्नू जी की इस उक्ति से आप स्त्रियों की किस्मों के बीच एक स्पष्ट विभाजक रेखा खींच सकते हैं । इस विभाजक रेखा के दूसरी ओर पड़ी स्त्रियों का दुख उनके अस्तित्व का नहीं, उनकी आकांक्षाओं ( आज के संदर्भ में महत्वाकांक्षाओं ) का है जिसमें प्रेम या भावना से पैदा होने वाली पीड़ा-व्यथा का कहीं नामो निशान नहीं है । अगर कुछ है तो वह तहस नहस करने का एक त्रासजनित सुख है ।




‘ अन्या से अनन्या ' की लेखिका प्रभा खेतान क्या मीता नहीं हैं ? क्या उस ‘मीता’ की भरी पूरी आत्मकथा से अनकही मीताओं के तथाकथित दुख दर्द की भरपाई नहीं हो गई ? मन्नू जी ने तो फिर भी मीता के कोण से कई कहानियाँ  लिखीं - जिनमें ‘स्त्री सुबोधिनी’ , ‘एक बार और’ चर्चित भी हुईं क्योंकि उसकी स्थिति में कल्पना का पुट देकर कहानियाँ  लिखना ही उनके लिए संभव था । मीता के वास्तविक जीवन की न तो मन्नू जी को जानकारी थी, न वे उसके निजी जीवन से वाकिफ होना चाहती थीं तो वे आत्मकथा जैसी विधा में उसका क्या बयान करतीं - जो पूरी तरह सच और वास्तविकता पर आधारित होती है । जिस ‘व्यथा’ को हाईलाइट करने की बात हमारे वरिष्ठ समीक्षक करते हैं , शायद वे यह नहीं जानते कि यह मीता ‘तनाव’ का कारण जरूर थी पर ‘अलगाव’ का नहीं । मीता - चाहे वह जैसी भी हो - का एकवचन तो पत्नी स्वीकार करके जीवन के तीसेक साल गुजार देती है पर बहुवचन में ‘ मीताओं ’ को स्वीकार करना मुश्किल होता है ।




विडम्बना तो यह है कि इनमें से कुछ मीताओें के भी एक नहीं , कई मीत होते हैं । आज के समय में इन बहुवचन में ‘मीत’ पालने वाली ‘मीताओं’ का दुख दर्द कैसा ? अनकही पीड़ा का अर्थ क्या है ? यह अनकही पीड़ा-व्यथा किस किस्म के समीक्षकों को आलोड़ित करती है ? ऐसी मीताएँ पुरुषों  के ‘‘बौद्धिक छल का शिकार’’  नहीं होतीं, वे तो सबकुछ जानते समझते एक पिता और पति के दायित्व से पुरुष  को डिगा कर उसका प्रेमी के रूप में खुद शिकार करती हैं । इस शिकार में उसे न सिर्फ विवाहित पुरुष से प्रेम (!) करने का , बल्कि सिर्फ अपनी देह के तांडव के बूते पर एक समर्पित-समझदार-विदुषी औरत को उसके अधिकार से अपदस्थ और उसकी ‘स्पेस’ से बेदखल करने का दोहरा सुख शामिल हो जाता है जो उसे एक त्रासदी निर्मित करने का और संगति में विध्वंस करने का भी क्रूर त्रासजनित आनंद देता है । हमारे समीक्षकों के पास इन देहवादी ‘मीताओं’ को पहचानने की निगाह क्यों नहीं है ? समीक्षकीय दृष्टि की सारी स्पष्टता इस ‘मीता’ के संबंध पर आकर धुंधलके में क्यों बदल जाती है ?




संभवतः इसका कारण यह है कि हिन्दी साहित्य मीताओं से अंटा पड़ा है । आज के अधिकांश लेखकों- कवियों-समीक्षकों के जीवन में एक एक मीता है । ये सब मीताओं वाले पुरुष हैं - गाँव में जिनकी बेपढ़ी बीवियाँ या शहर में जिनकी पढ़ी लिखी बीवियाँ उनके बच्चों को बगैर किसी गिले-शिकवे के पाल रही हैं इसलिए अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़कर इन मीताओं के प्रति उनकी सहानुभूति का पलड़ा भारी है ।




हिन्दी साहित्य में पुरुष रचनाकारों ने भी आत्मकथाएँ लिखी हैं । क्या हमारे वरिष्ठ समालोचक पुरुष आत्मकथा लेखक से आग्रह करेंगे कि उनकी पत्नी का अगर कोई ‘मीत’ रहा है तो उस समदुखी ‘मीत’ की व्यथा कथा का वे संवेदनशीलता से बयान करें ? आखिर संवेदनशीलता सिर्फ महिलाओं की बपौती तो नहीं है न !




प्रभा खेतान की ‘‘अन्या से अनन्या’’ की काफी चर्चा हुई क्योंकि खुलकर उन्होंने विवाहित पुरुष से अपने प्रेम संबंध की चर्चा की । राजेंद्र जी ने भी प्रभा खेतान से अपनी मित्रता को सार्त्र और सिमोन के संबंधों के बरक्स रखा और एक साक्षात्कार में यह भी कहा - ‘‘ प्रभा खेतान मेरी बहुत इंटीमेट फ्रेंड रही हैं ।’’ ( 23 लेखिकाएँ और राजेंद्र यादव - पृष्ठ 85) .   मुझे हैरानी तब होती है जब मैं देखती हूँ  कि प्रभा खेतान की आत्मकथा ‘‘अन्या से अनन्या ’’ के बारे में प्रकाशित  तमाम समीक्षाओं में, एक भी आलोचक ने यह सवाल नहीं उठाया कि सहजीवन निभाने वाले जिन अपने प्रेमी डॉ. गोपालकृष्ण सराफ के बारे में उन्होंने इतने विस्तार से लिखा है , वह संवेदनशील लेखिका जरा अपनी समदुखिनी - पाँच बच्चों की माँ, श्रीमती सराफ की पीड़ा, यातना के बारे में भी कुछ लिखतीं कि पति को अन्या के पास जाते देखकर उन महिला पर क्या बीतती होगी ? कलकत्ता के तमाम साहित्यकार ‘जन्नत की हकीकत’ जानते हैं पर जाहिर है , हमें सिर्फ उतना ही दिखाई देगा और उतना ही समझ में आएगा, जो शब्दों में कह दिया गया है । उस आत्मकथा में बस इतना ही जिक्र है कि डॉ. सराफ कहते हैं कि वह हर समय रोती रहती है, उसे तो रोने की आदत पड गयी है । ‘अन्याओं ’ से संबंध रखने वाले अधिकांश लेखक कवि कलाकारों की बीवियों को रोने की आदत पड़ जाती है जिससे बचने के लिए वे साइकिएट्रिस्ट के चक्कर लगाती हैं या एंटी डिप्रेसेंट दवाइयाँ खाती हैं । इनसे हमारे समीक्षक वर्ग का सरोकार नहीं है क्योंकि एक रोने-कलपने वाली, चिड़चिडी, बुझी हुई पत्नी कमोबेश सबके घरों में मौजूद है जो खुद तनाव और बीमारियों से ग्रस्त होते हुए भी, गैर जिम्मेदार पति को बख्शते हुए बच्चों समेत परिवार के दोनों पहियों को अपने मजबूत (!) कंधों पर यथासंभव भरसक खींचती चली जाती हैं । इसी श्रेणी में आती हैं मन्नू जी । मन्नू जी की किताब एक कहानी यह भी - जिसके बारे में भूमिका में ही उन्होंने स्पष्ट कर दिया है कि यह किताब चौदह साल में टुकड़ों टुकड़ों में लिखी गयी । यह उनके जीवन की लेखकीय यात्रा है, आत्मकथा नहीं है और उन्होंने अपने निजी जीवन के प्रसंग खोलकर नहीं लिखे, एक पूरक प्रसंग भी उन्होंने एक संपादक के दबाव के तहत ही लिखा वर्ना वह उतना भी नहीं लिख पातीं , फिर भी समीक्षक ढिठाई से कहे चले जा रहे हैं कि मीता के बारे में वे परानुभूति या समानुभूति के साथ सोचतीं और लिखतीं तो उनकी आत्मकथा असाधारण होती।.......




आज भारतीय समाज और जीवन में ही नहीं , साहित्य में भी मूल्य बदल रहे हैं । अनैतिकता हमें चौंकाती नहीं है, आकर्षित  करती है । उसका बयान हमें रोमांचकारी लगता है । दूसरे तमाम मुद्दों को दरकिनार कर , हम ललक कर उस किताब को पढ़ना चाहते हैं । साहित्य का प्रकाशक इस तथ्य से अच्छी तरह वाकिफ है । मैत्रेयी की आत्मकथा का फ्लैप मैटर देखें -‘‘ मैत्रेयी ने डॉ. सिद्धार्थ और राजेंद्र यादव के साथ अपने संबंधों को लगभग आत्महंता बेबाकी के साथ स्वीकार किया है।’’ अंदर पूरी किताब का एक एक पन्ना पढ़ जाइए , आप उस ‘आत्महंता बेबाकी’ (!) को ढूँढते रह जाएँगे । इसके उत्तर में फरवरी 2009 के आउटलुक में राजेंद्र यादव की अपनी एक टिप्पणी पर्याप्त है -‘‘ मैत्रेयी ने मुझे कुछ जरुर जाना होगा पर लिखने में शायद वह भी चूक गई है । चूकने से ज्यादा कहना चाहिए कि वह छिपा गई है। वह जो इबारत में नहीं झाँकता, पर पीछे से झाँकता जरूर दिखता है। जाने उसने ऐसा क्यों किया ? ’’ ( आउटलुक: फरवरी 2009 - पृष्ठ - 75 )




आत्मकथा लेखन की सबसे बड़ी चुनौती है -  अपने जीवन, बल्कि कहना चाहिए, अपनी व्यथा से, अपने झेले हुए से, एक दूरी बनाने की । आत्मकथा लेखन में सेल्फ सेंसरशिप - स्व प्रतिबंध - अपना अंकुश सबसे पहले सबसे आड़े आता है । भारतीय समाज में परिवार एक बहुत महत्वपूर्ण इकाई है । अगर हम सच बोल रहे हैं तो हमारे अपने परिवार के या करीबी लोग नाराज हो सकते हैं। तो मेरा मानना यह है कि इस तरह के प्रतिबंधों के बीच आत्मकथा नहीं लिखी जानी चाहिए । एक ईमानदार आत्मकथा तभी लिखी जा सकती है जब आप यह मानकर चलें कि आपके पास खोने के लिए कुछ नहीं बचा, सिवाय उन जंजीरों के जो समाज ने हमारे इर्द गिर्द जकड़ रखी हैं । 





जबकि वास्तविकता यह है कि एक औरत का अपनी आत्मकथा लिखना स्त्री सशक्तीकरण की ओर बढ़ता पहला चरण है । ईमानदारी इसकी पहली शर्त है । अपने जीवन को और अपनी कलम को महिमामंडित करने या अपने गुनाहों पर परदा डालने के लिए लेखकीय बुनावट के साथ शब्दों से खेलना , भाषा की कशीदाकारी करना और कला के कीमखाबी लिहाफ में अपनी करतूतों को सजा धजाकर प्रस्तुत करना आत्मकथा की विधा के मकसद को ही डिफ्यूज करना है । 




अंत में कुछ जरूरी बातें --

सबसे पहले मन्नू जी की इस पुस्तक ‘एक कहानी यह भी ’ को पढ़ते हुए यह स्पष्ट कर लिया जाना चाहिए कि यह पुस्तक दाम्पत्य के दैनंदिन के छलावों में मरती खपती एक ईर्ष्यालु स्त्री का सियापा नहीं, बल्कि इसमें एक स्त्री रचनाकार की बौद्धिक दृष्टि और उस दृष्टि का आलोक भी है जो एक ‘सामान्य‘ स्त्री का ‘रचनाकार’ स्त्री में कायांतरण करता है। दाम्पत्य के अलावा भी साहित्यिक और सामाजिक अंतर्विरोधों के कई मुद्दों को रचनात्मकता के पार्श्व में रखकर देखने की इस पुस्तक में वस्तुगत और निरपेक्ष कोशिश है । यहाँ स्त्री के किसी गोपन जगत को खोलकर लोलुप पाठकीय उपभोग के लिए किया गया मुआयना नहीं है बल्कि आत्मसजग भाषा में एक स्त्री रचनाकार के परिवेश की मार्मिक मीमांसा है । लेकिन इसका क्या किया जाए कि हिन्दी साहित्य में आलोचना क्षेत्र के अधिपतियों की आस्वाद ग्रंथि में जादुई यथार्थ ( मैजिकल रिएलिज़्म ) के बदले आभासी यथार्थ ( वर्च्युअल रिएलिज़्म ) का चस्का लग गया है। यह एक दुखद स्थिति है कि वे महिला रचनाकारों की आत्मकथाओं में प्रेम के पुराने त्रिकोण के रोमांच का अतिरेक में आख्यान सुनने की अपेक्षा रखते हैं और ऐसी तमाम मीताओं की मर्मकथा सुनना चाहते हैं ताकि बौद्धिक लंपटई का साहित्यीकरण कर सकें । पुरुष रचनाकारों की आत्मकथा में क्या उन्होंने किसी छूटे हुए प्रसंग या छूटे हुए पात्र को लाने की माँग कभी की,  जो लेखक की पत्नी का लंपट प्रेमी रहा हो ?





जहाँ तक संवेदनशीलता के साथ पीड़ा और दुख दर्द को व्यक्त करने का सवाल है तो वे तो क्रिमिनल्स - जघन्य अपराधियों - के भी हो सकते हैं तो इन मीताओं के क्यों नहीं ? मीताएँ बहुत हैं और उनकी आबादी में उत्तरोत्तर इजाफ़ा हो रहा है क्योंकि साहित्य के बाजार का विचार उनकी रचनात्मकता का राजमार्ग बन रहा है । यह मुद्दा अलग है और इस पर विस्तार से फिर कभी लिखा जाएगा । अभी सिर्फ इतना ही कि आत्मकथात्मक रचना से उस ब्यौरे की अनावश्यक  माँग  बार बार क्यों की जाती है जो उस रचना का अभीष्ट है ही नहीं ?

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1702, साॅलिटेअर, हीरानंदानी गार्डेन्स, पवई, मुंबई - 400 076 





बुधवार, 4 अगस्त 2010

असावधान भाषा की सांस्कृतिक ठेस

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‘असावधान भाषा की सांस्कृतिक ठेस’
-प्रभु जोशी




सुपरिचित कथाकार और सम्प्रति महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति श्री विभूतिनारायण राय ने ज्ञानपीठ से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘नया ज्ञानोदय' में प्रकाशित अपने एक साक्षात्कार में ‘समकालीन स्त्री विमर्श’ के केन्द्र में चल रही ‘वैचारिकी' पर बड़ी मारक टिप्पणी करते हुए यह कह डाला कि लेखिकाओं का एक ऐसा वर्ग है, जो अपने आपको बड़ा ‘छिनाल' साबित करने में लगा हुआ है। कदाचित् यह टिप्पणी उन्होंने कुछेक हिन्दी लेखिकाओं द्वारा लिखी गई आत्म कथात्मक पुस्तकों को ध्यान में रख कर ही की होगी। हालांकि इसको लेकर दो तीन दिनों से प्रिण्ट और इलेक्ट्रॉनिक दोनों ही मीडिया में बड़ा बवण्डर खड़ा हो गया है। लेकिन, हिन्दी भाषा-भाषी समाज में यह वक्तव्य अब चौंकाने वाला नहीं रह गया है। इस शब्दावलि से अब कोई अतिरिक्त ‘सांस्कृतिक-ठेस' नहीं लगनी चाहिए। क्योंकि, ‘कल्चर-शॉक‘ का वह कालखण्ड लगभग अब गुजर चुका है।




उत्तर औपनिवेशिक समय ने हमारी भाषा के ’सांस्कृतिक स्वरूप’ को इतना निर्मम और अराजक होकर तोड़ा है कि ‘सम्पट’ ही नहीं बैठ पा रही है कि कहाँ, कब क्या और कौन-सा शब्द बात को ‘हिट’ बनाने की भूमिका में आ जायेगा। हमारे टेलिविजन चैनलों पर चलने वाले ‘मनोरंजन के कारोबार’ में भाषा की ऐसी ही फूहड़ता की जी-जान से प्राण-प्रतिष्ठा की जा रही है। ‘भीड़ू’, ‘भड़वे’ और ‘कमीने’ शब्द ‘नितान्त’ ‘स्वागत योग्य’ बन गये हैं। ‘इश्क-कमीने’ शीर्षक से फिल्म चलती है और वह सबसे ज्यादा ‘हिट’ सिद्ध होती है। संवादों में गालियाँ संवाद का कारगर हिस्सा बनकर शामिल हो रही हैं। इसलिए ‘छिनाल’ या ‘छिनालें’ शब्द से हिन्दी बोलने वालों के बीच तह-ओ-बाल मच जाये, यह अतार्किक जान पड़ता है। क्योंकि जिस विस्मृति के दौर में ‘भाषा की भद्रता’ को मसखरी में बदला जा रहा है, वहाँ ऐसे शब्दों को लेकर ‘बहस‘ हमें यह याद दिलाती है कि आखिर हम कितने दु-मुँहे और निर्लज्ज हैं कि एक ओर जहाँ हम ‘स्लैंग’ के लिए हमारे जीवन में संस्थागत रूप से जगह बनाने का काम कर रहे हैं, तो वहाँ फिर अचानक इस फूहड़ता पर आपत्तियाँ क्यों आती हैं ?




चौंकाता केवल यह है कि एक चर्चित, और गंभीर लेखक अपने वक्तव्य में ऐसी असावधानी का शिकार कैसे हो जाता है ? दरअस्ल, वह कहना यही चाहता था कि आज के लेखन में ‘हेट्रो सेक्चुअल्टी‘ (यौन-संबंधों की बहुलता) स्त्री के साहस का ’अलंकरण’ बन गया है। विवाहेत्तर संबंधों की विपुलता का बढ़-चढ़ कर बखान ‘स्त्री की स्वतंत्रता‘ का प्रमाणीकरण बनने लगा है। यौन संबंधों की बहुलता उसके लिए अपने देह के स्वामित्व को लौटाने का बहुप्रतीक्षित अधिकार बन गई है। हालांकि, इस पर अलग से गंभीरता से बात की जा सकती है। क्योंकि इन दिनों हिन्दी साहित्य में स्त्री-पुरुष संबंधों में ‘एकनिष्ठता‘ को स्त्री का शोषण माना और बताया जाने लगा है। खासकर हिन्दी कथा साहित्य में यह हो गया है। कविता में भी है कि ‘उत्तर आधुनिक बेटी’, अपनी माँ को दूसरे प्रेमी के लिए काँच के सामने श्रृंगार करते देखती है तो प्रसन्नता से भर उठती है। उसे माँ के एक ‘अन्य पुरूष’ से होने वाले संबंध पर आपत्ति नहीं है। ऐसी कविता सामाजिक जीवन में एक ‘नई स्त्री की खोज’ बन रही है तो दूसरी तरफ कथा साहित्य में ‘निष्ठा‘ एक घिसा हुआ शब्द हो चुका है। निष्ठा से बंधी स्त्री को ‘मॉरल फोबिया‘ से ग्रस्त स्त्री का दर्जा दे दिया जाता है। याद दिलाना चाहूँगा, हेट्रो सेक्चुअल्टी को शौर्य बनाने की युक्ति का सबसे बड़ा टेलिजेनिक प्रमाण था, कार्यक्रम ‘सच का सामना’। जिसमें मूलतः ‘सेक्स‘ को लेकर सवाल किये जाते थे और जिसमें विवाहेत्तर यौन संबंधों की बहुलता का बखान कर दिया, वह पुरस्कार के प्राप्त करने का सबसे योग्य दावेदार बन जाता था। बहरहाल, इसी तरह के घसड़-फसड़ समय को जाक्स देरिदा ने कहा है, ‘टाइम फ्रैक्चर्ड एण्ड टाइम डिसज्वाइण्टेड’। यानी चीजें ही नहीं, भाषा और समाज टूट कर कहीं से भी जुड़ गया है। भाषा से भूगोल को, भूगोल को भूखे से और भूखे को भगवान से भिड़ा दिया जाता है। इसे ही ‘पेश्टिच‘ कहते हैं। मसलन, अगरबत्ती के पैकेट पर अब अर्द्धनिवर्सन स्त्री, ‘देह के चरम आनंद’  की चेहरे पर अभिव्यक्ति देती हुई बरामद हो जाती है। हो सकता है सिंदूर बेचने की दूकान का दरवाजा देह-व्यापार की इमारत में खुल जाये। पहले मंदिर जाने के बहाने से प्रेमी से मिला जाता था, लेकिन अब मंदिर प्रेम के लिए सर्वथा उपयुक्त और सु रक्षित जगह है। एक नया सांस्कृतिक घसड़-फसड़ चल रहा है, जिसमें बाजार एक ‘महामिक्सर’ की तरह है, जो सबको फेंट कर ‘एकमेक’ कर रहा है। अब शयनकक्ष का एकान्त चौराहे पर है। और बकौल गुलजार के बाजार घर में घुस गया है। समाज में एक नया ‘पारदर्शीपन’ गढ़ा जा रहा है, जिसमें सब कुछ दिखायी दे रहा है और नई पीढ़ी उसकी तरफ अतृप्त प्यास के साथ दौड़ रही है और अधेड़ पीढ़ी ‘सांस्कृतिक अवसाद’ में गूंगी हो गई है। उसकी घिग्घी बँध गयी है। और, शायद सबसे बड़ी घिग्घी ‘भाषा के भदेसपन’ पर बँधी हुई है। अंतरंग को ‘बहिरंग’ बनाती भाषा के चलते ही, लम्पट-मुहावरे अभिव्यक्ति का आधार बन रहे हैं। और इस पर सबसे ज्यादा सांस्कृतिक ठेस हमारी उस भद्र मध्यमवर्गीय चेतना को लग रही है, जो कभी-कभी मीडिया अपने हित में जागृत कर लेता है। अगर मोबाइल पर युवाओं के बीच की बात को लिखित रूप में प्रस्तुत कर दिया जाये तो हम जान सकते हैं कि भाषा खुद अपने कपड़े बदल रही है। उसे कुछ ‘ज्ञान के अत्यधिक मारे लोग’ भाषा की ‘फ्रेश लिग्विंस्टिक लाइफ’ कह रहे हैं। लेकिन, संबंधों को लम्पट भाषा के मुहावरे में व्यक्त किया जा रहा है।




दरअस्ल, विभूतिनारायण राय अपनी अभिव्यक्ति में असावधान भाषा के कारण, भर्त्सना के भागीदार हो गये हैं। क्योंकि, वे निष्ठाहीनता को लम्पटई की शब्दावली के सहारे आक्रामक बनाने का मंसूबा रख रहे थे। शायद, वे साहित्य के भीतर फूहड़ता के प्रतिष्ठानीकरण के विरूद्ध कुछ ‘हिट’  मुहावरे में कुछ कहना चाहते थे। मगर, वे खुद ही गिर पड़े। एक लेखक, जो वाणी का पुजारी होता है, वही वाणी की वजह से वध्य बन गया। याद रखना चाहिए कि बड़े युद्धों के आरंभ और अंत हथियारों से नहीं, वाणी से ही होते हैं। एक लेखक को शब्द की सामर्थ्य को पहचानना चाहिए। ‘सूअर’ के बजाये ‘वराह’ के प्रयोग से शब्द मिथकीय दार्शनिकता में चला जाता है। भाषा की यही तो सांस्कृतिकता है। इसे फलाँगे,  तो औंधे मुँह आप और आपका व्यक्तित्व दोनों ही एक साथ गिरेंगे और लहूलुहान हो जायेंगे। जख्म पर मरहम पट्टी लगाने वालों के बजाय नमक लगाने वालों की तादाद ज्यादा बड़ी होगी।





4, संवाद नगर
इन्दौर






गालियाँ, चरित्रहनन, आत्मस्वीकृतियाँ : कलंक : मानसिकता व भाषा के बहाने स्त्रीविमर्श

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गालियाँ, चरित्रहनन, आत्मस्वीकृतियाँ : कलंक : मानसिकता व भाषा के बहाने स्त्रीविमर्श
-  (डॉ.) कविता वाचक्नवी 





हिन्दी की लेखिकाओं के लिए जिस भाषा-व्यवहार का प्रसंग भारत व हिन्दी साहित्य में अभी चला, वह नवीनतम उदाहरण है ; जो हमें किन्हीं चीजों पर विचार करने और अपने को समझने (+बदलने)  का अवसर देता है | 


इस पूरे प्रकरण में दो बातें परस्पर गुँथी हैं। पहली  है - वर्तमान साहित्य पर टिप्पणी और दूसरी है -  टिप्पणी का महिला- केन्द्रित होना, जेंडर मूलक / आधारित होना | गलती टिप्पणी में नहीं टिप्पणी के लिंग (जेंडर) आधारित होने में हैं | 


क्या यह सच नहीं कि  इधर गत कुछ वर्षों में साहित्य में यथार्थ के नाम पर अथवा सन्स्मरणों के नाम पर या आत्मस्वीकृतियों के नाम पर जो कुछ लिखा जाता रहा है , वह इतना वाहियात, घटिया व  लज्जास्पद है कि उसे साहित्य कहना साहित्य का अपमान है?


विचारणीय यह है कि क्या यह सब मात्र स्त्रियाँ ही लिख रही हैं ?  एक वास्तविक चरित्र को जब ‘हंस’ में द्रौपदी कह कर अपमानित किया जाता है, जब छत्तीसगढ़ की सद्यप्रसवा आदिवासी युवती  को एक शेयर्डकक्ष में आधी रात को कामक्रीडा के लिए खरीद कर बुलाए जाने व स्तनपान के लक्षण दिखाई देने आदि के घिनौने यथार्थ की आत्मस्वीकृतियों के बहाने सस्ती लोकप्रियता बटोरते हुए महान् बनने  की कवायद की जाती है,  तब कहाँ सो जाते हैं साहित्य के पहरुए ? ...  और कहाँ चली जाती हैं महिला के सम्मान के लिए लड़ने वाली स्त्री- पुरुष आवाजें  ?  तब साहित्य को पतनोन्मुख करने ( अपितु साहित्य से अधिक निजी पतनशीलता के प्रमाण देने  में ) कोई पक्ष कमतर नहीं ठहरा |  आज जो लोग साहित्य के पतन के लिए चिंतित हो टहल गए ,  कहाँ सो गए थे तब  वे ? और जो इस टहला टहली से खिन्न रुष्ट हो अपनी इज्जत के लिए लड़ रहे हैं तब वे कहाँ सोए थे ? क्या उन प्रसंगों में तार तार हुई स्त्रियों की इज्जत,  इज्जत नहीं थी ? क्या उन्हीं स्तंभों में स्त्रियाँ भी उसी तर्ज पर नहीं लिखती रहीं ? तो फिर मलाल कैसा ? दोनों तरह वालों को अब सुध आई ? ....  तो आई क्यों ? 


साहित्य का चीर हरण करने वालों की  भीड़  में किसी का भी पक्ष लेना कदापि न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता | स्थिति एक दम वही है, जो द्रौपदी के सम्मान की राजदरबार में हुई थी | चीरहरण और भरे दरबार में अपमानित करने के जितने दोषी कौरव थे, उतने ही वे पांडव भी, जिन्होंने कुलवधू को दाँव पर लगा दिया था | मेरे जैसा व्यक्ति उस पतन पर लज्जित है, साहित्यिक द्रौपदी की पीड़ा और त्रास पर दुखी है, दोनों दलों द्वारा अपने अपने स्वार्थ अथवा मनोरंजन के लिए राजदरबार में प्रयोग की जाती लेखन रूपी पाँचाली के क्रंदन से विचलित है |



अब ज़रा आगे बढ़ें तो इस घटना के बहाने और चीजें साफ़ हुई हों या न हुई हों किन्तु यह बात एकदम साफ़ हुई कि सबसे इज़ी टार्गेट हैं महिलाएँ | एक पक्ष का बस चला और अवसर मिला तो वह दूसरे को छोटा दिखाने के लिए स्त्री को अपमानित करती, व्यभिचारिणी सिद्ध करती  हुई गाली देगा और जब दूसरे को अवसर मिला तब भी गाली स्त्रियों को दी जाएगी, उन्हीं का चरित्र हनन किया जाएगा |



मामला इतना-भर नहीं है; अपितु मजेदार बात तो यह है कि एक पक्ष की गाली के विरोध में उठे स्वर भी दूसरे पक्ष की स्त्री को गाली देते आगे बढ़ते हैं | कुलपति के शब्द प्रयोग पर धिक्कारने व गाली देने के सिलसिले में जहाँ लेखकों व लेखिकाओं तक ने ममता कालिया व श्रीमती नारायण सहित उक्त वि. वि. में किसी भी प्रसंग या कारण से भूमिका निभाने वाली स्त्रियों तक को अपमानित किया व वही सब ठहराने की चेष्टा में आरोप प्रत्यारोप बरते, वे उसी मानसिकता का परिचय देते हैं कि आपसी युद्धों में भारतीय समाज स्त्री को ही कलंकित करता है , स्वयं स्त्रियाँ तक भी | हिन्दी के ब्लॉग जगत् में भी यहाँ तक कह दिया गया कि अमुक अमुक अवसर पर अमुक अमुक ( कोई न कोई ) स्त्री उक्त वि वि में भागीदारी के लिए पहुँच जाएगी, वह वहाँ कैसे पहुँची ..... आदि आदि आदि | जिस प्रकार के शब्द के लिए एक पक्ष को कोसा और आरोपित किया जाता है, उसी तरह का काम दूसरा पक्ष स्वयं कर रहा होता है |


क्यों जी, यह कहाँ का न्याय है कि दोष किसी का भी हो, किन्तु कलंकित की जाएगी स्त्री ही , चरित्रहनन होगा स्त्री का, गाली मिलेगी स्त्री को ?


समाज में सदा से यही होता आया है | युद्ध करेगा पुरुष; कभी मद में, कभी उन्मत्त हो कर, कभी क्रोध में, कभी लोभ में, कभी शौकिया या आदतन किन्तु भोगी जाएँगी स्त्रियाँ, या भेंट में दी जाएँगी | आधुनिक युद्धों में भी यही स्थिति है , भले ही वे साम्प्रदायिक हों अथवा इतर |


क्या ऐसा इसीलिए कि स्त्री ही सबसे कमजोर प्राणी है समाज का ?  या इसलिए कि स्त्री की समाज में स्थिति सबसे बुरी है, सबसे घटिया | 


निस्संदेह कभी न कभी अपने आसपास के लोगों की निकृष्टता देख उन्हें गालियाँ देने का मन सब का  होता है किन्तु क्या यह विचार का विषय नहीं है कि गालियाँ स्त्री-केन्द्रित ही क्यों हों,  लैंगिक ही क्यों हों ?  संस्कृत में कभी कोई गाली लैंगिक नहीं रही | न ही मात्र स्त्री केन्द्रित | अपितु सीधे सीधे उसे दोषी या आरोपित करने वाली गाली होती रही हैं, जो सीधे स्वयं उत्तरदायी है या कह लें जिसे गाली दी जा रही है | यही स्थिति आज भी पूर्वोत्तर भारत की बोलियों में है.



हम लोग जब गुरुकुल में पढ़ा करते थे तो ऐसी ऐसी गालियाँ प्रयोग करते थे कि आज भी उनकी संरचना व सृजनात्मकता को लेकर मन से वाह निकलती है; किन्तु कभी कोई गाली लैंगिक शब्दावली की नहीं थी. लैंगिक शब्दावली कि गालियों का निहितार्थ ही यह है कि एक पक्ष दूसरे पक्ष की स्त्रियों के प्रति कुत्साभाव से ग्रस्त है व सब से `ईज़ी टार्गेट'  (अर्थात् स्त्री) को निशाना बनाकर, अपमानित कर के अपने क्रोध को शांत करना चाहते हैं |


साहस हो तो यह हो कि कोई भी पक्ष बिना किसी भी पक्ष की स्त्री के प्रति कुत्सा लिए स्वयं आपस में निपटे | सीधे सीधे दोषी या दुष्ट को धिक्कारें, न कि एक दूसरे पक्ष की स्त्री को व्यभिचारिणी सिद्ध करें या अश्लील भाषा से कलंकित करें |


इस गाली पुराण का एक दूसरा पक्ष यह भी है कि हिन्दी- समाज में सारी की सारी गालियाँ स्त्री को लगती हैं ( उन पर केन्द्रित होती हैं) चाहे दी भले वे पुरुष को जा रही हों ;  और सारे के सारे आशीर्वाद पुरुष को लगते है ( उसके लिए सुरक्षित होते हैं ) भले ही दिए वे चाहे स्त्री को जा रहे हों |


उस समाज पर आप क्या कहिएगा जिसकी सारी गालियाँ स्त्री के लिए सुरक्षित हैं व सारी आशीर्वाद पुरुष के लिए |

मुझे चिंता इस समाज की है; न कि इस पक्ष या उस पक्ष की | 

आपकी चिंता का विषय कौन व क्या है ?     ......  बताइयेगा ?





बुधवार, 28 जुलाई 2010

स्त्री और उपभोक्ता संस्कृति

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स्त्री और उपभोक्ता संस्कृति
ऋषभ देव शर्मा


बाज़ार और बाजारवाद से जुड़ी चर्चाओं में प्रायः यह मान लिया जाता है कि बाजारवाद और उपभोक्तावाद के वैश्विक प्रसार में उपभोक्ता या तो निष्क्रिय भोक्ता मात्र है या बाज़ार की शक्तियों का निरीह शिकार भर. हो सकता है, कुछ समय पूर्व यह धारणा बड़ी हद तक ठीक रही हो. लेकिन आज स्थिति बदल चुकी है. आज उपभोक्ता केवल प्रभावित पक्ष नहीं रह गया है. वह अब न तो निष्क्रिय है और न केवल निरीह शिकार. वह उपभोक्ता संस्कृति का जागरूक भागीदार है - सक्रिय कार्यकर्ता. यहाँ यह प्रश्न सहज है कि ऐसा क्यों और कैसे हुआ. ऐसा क्या हुआ कि उपभोक्ता कि स्थिति मूक खरीददार से उलट गई?



थोड़ा पीछे जाना होगा. विश्व युद्धों के बाद के समय में. यह वह समय था जब उपभोक्तावाद विश्व भर में उभर रहा था. समाज चिंतकों ने उपभोक्तावाद को हिकारत की नज़र से देखा. उसके प्रतिरोध की आवश्यकता भी तभी से महसूस की जाने लगी. परिणामस्वरुप ऐसे आंदोलन सामने आए जो मूलतः उपभोक्तावादविरोधी थे. इन्हीं की कोख से उपभोक्ता संस्कृति उत्पन्न हुई. अभिप्राय यह है कि 'उपभोक्तावाद' और 'उपभोक्ता संस्कृति' दो अलग-अलग अवधारणाएं हैं. इन्हें एक समझने की भ्रांति के कारण प्रायः लोग उपभोक्ता संस्कृति को गरियाते देखे जाते हैं, जो उचित नहीं है. यहाँ समझने वाली बात यह है कि उपभोक्तावाद मूलतः 'उत्पादक' के हित में है, और वह उपभोक्ता को ललचाता है - अनावश्यक को खरीदने के लिए. इसके विपरीत उपभोक्ता संस्कृति 'उपभोक्ता' द्वारा विकसित है, और उपभोक्ता के ही हित में है. उपभोक्ता संस्कृति उपभोक्ता को 'एक' समाज बनाती है जो बाज़ार को प्रभावित करने की क्षमता रखता है. इस प्रकार उपभोक्ता संस्कृति वस्तुतः उपभोक्तावाद को नियंत्रित करने वाली शक्ति है, न कि उसका पर्याय.



उपभोक्तावाद ने जब आम उपभोक्ता को लुभाना, ललचाना, फुसलाना शुरू किया तो आम लोगों की जेब पर इसका भारी असर हुआ. १९५० के बाद के समय में पैसों की तंगी के काल में घर चलाने वाली महिलाओं के ऊपर ज़िम्मेदारी आई कि सुरसा के समान लगातार मुँह फाड़ते जा रहे इस संकट का सामना कैसे किया जाए. महंगाई और अर्थसंकोच रूपी संकट की समानता उन औरतों को एक दूसरे के नजदीक लाने का कारण बनी जो बाजारों के आधुनिक संस्करण अर्थात शॉपिंग सेंटर और मॉल में खरीददारी के लिए जाती थीं. इस निकटता से उन साधारण घरेलू महिलाओं को मिलने जुलने का अवसर मिला, समाजीकरण का अवकाश मिला; और सोचने-समझने का मौका भी. इस अवसर, अवकाश और मौके का परिणाम यह हुआ कि उपभोक्ता स्त्रियों ने उपभोक्तावाद का एक समाधान खोज निकाला जिसमें इन गृहिणियों की अपनी सक्रियता की बड़ी भूमिका थी. अर्थात इस तरह उपभोक्ता स्त्रियों ने निष्क्रियता का अतिक्रमण करके 'डू इट योरसेल्फ'(डी.आई.वाई.) का आंदोलन खड़ा किया. यों भी कहा जा सकता है कि उपभोक्ता संस्कृति ने उपभोक्ता स्त्री की जागरूकता के माध्यम से उपभोक्तावाद का सामना करना शुरू किया. दरअसल डी.आई.वाई. मूलतः ऐसा आंदोलन था जिसने घरेलू महिलाओं को होम इम्प्रूवमेंट के लिए अपने हाथ से काम करने को उकसाया ताकि कम पैसों में काम चलाया जा सके. इसका एक पक्ष यह भी है कि होलसेल में चीज़ें खरीद कर उनसे मुनाफा कमाया जा सके. पश्चिम में यह आंदोलन १९५०-६० में उभरा; लेकिन भारत में उदारीकरण का दौर १९९० के बाद शुरू हुआ है इसलिए आज का एक उदाहरण देखा जा सकता है. आज बिग बाज़ार या रिलायंस जैसे मॉल सब कुछ बेच रहे हैं - सब्जी तरकारी और नोन तेल तक. आरंभ में ऐसा लगा कि इससे छोटे दूकानदार नष्ट हो जाएँगे . लेकिन एक रास्ता निकाला उन्होंने कि बिग बाज़ार/रिलायंस से खरीदो और दर-दर जाकर बेचो. इस कार्य में महिलाएँ बड़ी संख्या में सम्मिलित हैं. परंतु उनका संगठित होना शेष है - तभी वे उपभोक्ता संस्कृति का गठन कर सकेंगी.



डी.आई.वाई. का विस्तार दुनिया में कई रूपों में सामने आया. उपभोक्ता संस्कृति के इस आंदोलन ने दिग्गज प्रतिष्ठानों को चुनौती दी. इसी के तहत लघु-पत्रकारिता सामने आई. आज की वेब पत्रकारिता के रूप में इसके विस्तार को देखा जा सकता है. कहना न होगा कि इस क्षेत्र में बड़ी तादाद में स्त्रियाँ सक्रिय हैं. १९७० में कई ऐसे म्यूजिक बैंड सामने आए जिन्होंने संगीत की एक समानांतर धारा प्रवाहित की. समानांतर सिनेमा और नुक्कड़ नाटक भी डी.आई.वाई. की ही निष्पत्तियां हैं. इन सभी क्षेत्रों में स्त्रियों ने भी परिवर्तनकारी भूमिका अदा की. विशेष बात यह रही कि इस सबसे मध्यवर्गीय स्त्री को अपने हितों को पहचानने और उनके अनुरूप कार्य करने की प्रेरणा मिली. बावजूद इसके कि हमारा फिल्म-उद्योग और मीडिया जगत स्त्री के संबंध में अभी तक घोर जड़तावादी शोषक दृष्टिकोण से ग्रस्त है, इसमें संदेह नहीं कि कई दूरदर्शन शृंखलाएं और विज्ञापन इस परिवर्तित उपभोक्ता स्त्री की छवि से संबंधित हैं.



अभिप्राय यह कि जैसे जैसे बाज़ार बढ़ा, प्रतिष्ठान बढे, उपभोग बढ़ा, उपभोक्ता बढे, वैसे-वैसे उपभोक्ता की सक्रियता भी बढ़ी. स्मरण रहे कि स्त्री आधी दुनिया है. सारा बाज़ार उसी पर आक्रमण करता है. उसकी भी जागरूकता और सक्रियता बढ़ी. पिछली शताब्दी के अंतिम दशक से भारत में उपभोक्ता की जागरूकता (कंजूमर अवेयरनेस) में विशेष वृद्धि हुई. सामाँजिक-आर्थिक बदलाव के परिणामस्वरुप युवा स्त्रियाँ बाज़ार में उतरीं. उपभोक्ता के रूप में भी. उत्पादक के रूप में भी. प्रबंधक के रूप में भी. बात साफ़ है कि आज की स्त्री मात्र उपभोग्य वस्तु नहीं है, वह उपभोक्ता भर नहीं है; वह बाज़ार को उत्पादक और प्रबंधक के रूप में भी व्यापक तौर पर प्रभावित कर रही है. यहाँ वह पुरुषवर्चस्ववादी व्यवस्था के हाथ की गुड़िया नहीं, नियंता है, निर्णायक है. धीरे-धीरे वह ज़माना बीत रहा है जब राजनीति में स्त्रियों को कठपुतली समझा जाता था. आज राजनीति में जहाँ स्त्री है - अपने बूते से है. ऐसे भी उदाहरण हैं जहाँ पुरुष नेता कठपुतली बने हुए हैं और स्त्री नेता सूत्रधार.



यहाँ इस तथ्य का उल्लेख आवश्यक है कि भारत में २००० के बाद इन्टरनेट का प्रसार बढ़ा तो भूमंडलीकरण , बाजारवाद और उपभोक्तावाद के प्रसार में और सुविधा हो गई. उत्पादकों को तो इससे लाभ हुआ ही लेकिन इससे उपभोक्ता जगत को भी भारी लाभ हुआ. इन्टरनेट आया तो उपभोक्ता की भावनाएं खुल कर सामने आईं . ये भावनाएं बाज़ार को प्रभावित करने लगीं. मोबिलाइज करने लगीं - तेज़ी से. एक उदाहरण लें. कंप्यूटर की एक बड़ी कंपनी 'डेल' ने अपना एक ऐसा विज्ञापन अभियान प्रस्तुत किया जिसमें यह दर्शाया गया था कि स्त्रियाँ बौद्धिक कार्य करने में पीछे होती हैं और कि यह कंप्यूटर उन्हें आगे ले आएगा. अर्थात स्त्री की एक गढ़ी-गढ़ाई छवि है कि वह टेक्नोलॉजी नहीं जानती और उसका कार्यक्षेत्र भोजन बनाने, डाइटिंग करने तथा सुंदर दिखने तक सीमित है. इस अभियान पर भारी प्रतिक्रिया हुई और उपभोक्ता के दबाव को स्वीकार कर कंपनी को यह विज्ञापन वापस लेना पड़ा. उपभोक्ता संस्कृति के गठन में स्त्री-शक्ति की भूमिका का यह दृष्टांत भारतीय संदर्भ में भी अनुकरणीय हो सकता है क्योंकि हमारे यहाँ उपभोक्तावाद की सवारी बना हुआ मीडिया स्त्री की कामिनी और अबला छवियों को बनाने में कुछ ज्यादा ही रुचि रखता है. यदि स्त्री उपभोक्ता संगठित होकर ऐसे प्रचार का बहिष्कार कर सके तो बाज़ार के इस बिगडैल घोड़े की लगाम कसी जा सकती है. सवाल यह है कि हम जो बार बार ऐसे तमाम विज्ञापनों से आहत होते रहते हैं जिनमें स्त्री का वस्तूकरण किया जाता है, उसे उपभोग के माल की तरह पेश किया जाता है - यदि वास्तव में वे हमें आहत करते हैं तो हम उनका विरोध क्यों नहीं करते? उपभोक्ता संस्कृति को अपने इस प्रतिरोधी चरित्र को पहचानना होगा वरना उपभोक्तावाद उसे निगल जाएगा. यह प्रतिरोधी चरित्र ही उसे वह शक्ति देता है जिसके आगे झुककर उत्पादक को अपने स्त्री-विरोधी प्रचार अभियान वापस लेने पड़ते हैं. यहाँ उस विज्ञापन को भी याद किया जा सकता है जिसमें यह दर्शाया गया था कि कामकाजी महिलाएँ अच्छी मांएं नहीं बन सकतीं. उल्लेखनीय है कि महिला-उपभोक्ताओं के विरोध के कारण यह अभियान भी वापस करना पड़ा था. कहने का अर्थ यह है कि बाज़ार का नियंत्रण प्रत्यक्षतः भले ही उत्पादक के हाथ में हो, अप्रत्यक्ष रूप से [लेकिन वास्तव में] उसकी डोर उपभोक्ता के हाथ में है . यह बड़े उपभोक्ता वर्ग के शाकाहारी होने का दबाव ही था कि फ्राइड चिकन के लिए मशहूर केएफसी को कनाडा में शाकाहारी बकेट आरंभ करनी पड़ी. घुमा कर कान पकड़ने वाले कहेंगे कि यह उत्पादक की उपभोक्ता को ललचाने की चाल है लेकिन हमारी राय में यह उत्पादक पर उपभोक्ता के दबाव का परिणाम है.



वैसे इतनी दूर जाने की ज़रूरत नहीं. हमारे यहाँ अनेक टीवी शृंखलाओं में पात्रों का आना-जाना, जीना-मरना तक आज उपभोक्ता तय कर रहे हैं. उल्लेखनीय है कि टीवी के तमाम पारिवारिक नाटक भारतीय स्त्री को संबोधित हैं. वही इनका मुख्य दर्शक समाज है - लक्ष्य उपभोक्ता समूह है. अनजाने ही ये सीरियल स्त्रियों को परस्पर चर्चा और गपशप के लिए नित्य नई कहानियाँ परोसते हैं. सवाल उठता है कि क्या ये स्त्रियाँ - ये उपभोक्ता स्त्रियाँ - जड़ बनी रहती हैं. नहीं, वे जड़ नहीं हैं, सक्रिय हैं. उनकी सक्रियता कभी कभी तो सीरियल को बंद तक करा देती है. 'बालिका वधू' में फरीदा जलाल आईं भी और गईं भी - स्त्री दर्शकों ने उनके भाग्य का फैसला किया. 'क्योंकि सास भी कभी बहू थी' में दादी हर बार मरते-मरते अमर हो गई - उपभोक्ता ने मरने नहीं दिया. अभिप्राय यह कि असंगठित स्त्री समाज टीवी और इन्टरनेट के जरिये आज संगठित उपभोक्ता समाज के रूप में उभर रहा है और आने वाले समय में बाज़ार की कोई भी ताकत उसकी इच्छा की उपेक्षा नहीं कर सकेगी. ढेर सारी टीवी प्रतियोगिताओं के परिणामों को प्रभावित करने वाली ताकत के रूप में हम रोज़ ही दर्शक (उपभोक्ता) समाज को देख रहे हैं. यही समाज उपभोक्ता संस्कृति का गठन कर सकता है.



यह तो बात हुई उपभोक्ता संस्कृति की. अब कुछ चर्चा सीधे-सीधे स्त्री के बारे में. उपभोक्तावाद का लक्ष्य बाज़ार है. उसे हर वह वस्तु बेचने में कोई संकोच नहीं जिसके खरीददार मौजूद हों. उसे मालूम है कि सदा से सेक्स बिकता है. उसे मालूम है कि सदा से देह बिकती है. उसे मालूम है कि सदा से कामुकता बिकती है. स्त्रीवाद के प्रभाव में हम सदा यही कहते हैं कि यह बाज़ार पुरुषों द्वारा नियंत्रित है और स्त्री केवल बिकाऊ माल है. परंतु, इस प्रकार की धारणा को आज पूर्ण सत्य नहीं माना जा सकता. स्त्री अब इतनी भी बेचारी नहीं है. देह बेचने वाली स्त्री निश्चय ही पुरुष व्यवस्था की शिकार है. लेकिन देह की छवि बेचने वाली स्त्री वैसी लाचार नहीं है. आज वह वस्तु या माल नहीं है, अपनी छवि की उत्पादक विक्रेता है. उसकी हर अदा की कीमत है. और यह कीमत वह स्वयं तय करती है. मनोरंजन उद्योग हो, या विज्ञापन व्यवसाय - यह समझना कि वहाँ स्त्री का केवल शोषण हो रहा है, उचित नहीं होगा. उस तंत्र में स्त्री स्वयं उत्पादक और नियंता की तरह शामिल है - अपने स्वयं के निर्णय से. इसे उपभोक्ता संस्कृति नहीं, उपभोक्तावाद के रूप में देखना होगा.



यहाँ थोड़ा हटकर उन पत्रिकाओं और साइटों की बात करें जो नग्नता परोसती हैं. क्या उनके उपभोक्ता केवल पुरुष हैं? नहीं, सर्वेक्षण बताते हैं कि समलैंगिक संबंधों के बारे में लोकप्रिय फैन फिक्शन 'स्लैश फैनडम' की उपभोक्ता मुख्यतः स्त्रियाँ हैं. इसी प्रकार जापानी एनीमेशन 'मेन्गा' को स्त्रियाँ बेहद पसंद करती हैं - खूब नग्नता है उसमें. इतना ही नहीं, महिलाओं की पत्रिकाओं में छपने वाले तमाम विज्ञापन पुरुष उपभोक्ता को संबोधित नहीं हैं - लेकिन नग्नता उनमें भी है. अभिप्राय यह है कि नग्नता और कामुकता का उपभोक्ता आज केवल पुरुष समाज ही नहीं है. साथ ही यह भी कहना ज़रूरी है कि विज्ञापन हो या कलाकृति - यह अनिवार्य नहीं है कि देह दर्शन अश्लील ही हो. मनुष्यों की दुनिया में देह उत्सव है - इस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता. उपभोक्ता संस्कृति को उपभोक्तावाद के उत्पादकों पर यह दबाव बनाना चाहिए कि वे इस देह को, इस उत्सव को, उत्सव की तरह प्रस्तुत करें - सौंदर्यबोध को उद्बुद्ध करें, विकृत न करें. इसी संदर्भ में यह भी जोड़ना होगा कि देह और काम के व्यावसायिक उपयोग के बावजूद 'देह व्यापार', 'बाल शोषण' और 'अप्राकृतिक संबंध' व्यभिचार तथा अपराध हैं. यदि बाज़ार इनका पोषण करता है तो उपभोक्ता संस्कृति को उसके खिलाफ उठ खड़े होना चाहिए. ऐसे मामलों में स्त्रियों की जागरूकता कई बार देखने में आई है,जो प्रशंसनीय है.



यह भी प्रश्न किया जा सकता है कि क्या विज्ञापन में स्त्री का वस्तूकरण उचित है. पहली बात तो यह कि औचित्य यहाँ बाज़ार से तय होगा, या उपभोक्ता से, या फिर स्त्री से? ये अलग अलग अवलोकन बिंदु हो सकते हैं. बाज़ार की दृष्टि से देखें तो विज्ञापन की मजबूरी है कि वह वस्तूकरण का इस्तेमाल टेकनीक की तरह करे. दरअसल विज्ञापन ऐसा तीव्र माध्यम है जिसे मिनट भर से भी कम समय में अपनी कहानी, स्टोरी, कहनी होती है. इतने कम समय में वह कोई चरित्र खड़ा नहीं कर सकता. इसलिए प्रायः प्रभावी संप्रेषण के लिए वह स्टीरियोटाइप का निर्माण करता है - ब्रांड रचता है. पात्रों का वस्तूकरण करता है. इस वस्तूकरण का शिकार केवल स्त्री ही है, आज ऐसा नहीं रह गया है. 'एक्स' या अन्य डिओडरेंट उत्पादों के विज्ञापन देखें तो समझ में आता है कि किस प्रकार स्त्री का नहीं, पुरुष का वस्तूकरण हो रहा है. साबुन से लेकर अंतर्वस्त्र तक के प्रचार अभियानों में अब स्त्री के साथ-साथ पुरुष मॉडल भी वस्तूकरण के 'शिकार' हैं. दरअसल यह शिकार होना नहीं है - अपनी छवि बनाना और बेचना है. किसी साक्षात्कार में राखी सावंत ने गलत नहीं कहा कि आज दो ही चीज़ें बिकती हैं - सेक्स और शाहरुख. उपभोक्ता छवि से प्रभावित होता है इसलिए उत्पादक छविनिर्माण करते हैं - यह छवि किसी एंग्री यंग मैन की हो सकती है और किसी ड्रीम गर्ल की भी. शाहरुख खान और मल्लिका शेरावत हो की सकती है. बिपाशा बासु और जान अब्राहम की हो सकती है. छवि कभी ओबामा की भी बनाई जाती है और कभी सोनिया गांधी की भी. नरेन्द्र मोदी हों या मायावती - सब छवियाँ है. बाबा रामदेव एक छवि हैं तो वृंदा करात दूसरी. अभिप्राय यह कि विज्ञापन में वस्तूकरण पुरुष और स्त्री दोनों का हो रहा है और इसके लिए किसी एक को दोषी मानना सर्वथा अलोकतांत्रिक है.



उपभोक्ता संस्कृति इस मामले में उपभोक्ता से चयन और त्याग के विवेक की अपेक्षा रखती है. उपभोक्ता को चाहिए कि वह बाज़ार और विज्ञापन को अथवा फिल्मों तथा उनमें देह प्रदशन करने वाले स्त्री पुरुष मॉडलों को कोसने के बजाय अपने इस नैसर्गिक अधिकार का उपयोग करना सीखे. ग्रहण और त्याग के इस अधिकार के उपयोग की पूरी सुविधा आज का बाज़ार हमें दे रहा है. अनेक सोशल नेटवर्क की साइटें हैं, जहां हमें अपनी कठोर से कठोर प्रतिक्रिया व्यक्त करने की आज़ादी है. यूट्यूब पर अनेक दर्शक जो प्रतिक्रियां व्यक्त करते हैं वे निरर्थक नहीं जातीं. उनका प्रभाव पड़ता है. अगर शशि तरूर साहब की कैटल-क्लास विषयक टिपण्णी को जनमत द्वारा ध्वस्त किया जा सकता है तो बाज़ार की उस नग्नता को क्यों नहीं जो आपको असांस्कृतिक लगती है - शर्मसार करती है? लेकिन उसका ऐसा विरोध न होना इस बात का द्योतक है कि कहीं न कहीं वह उपभोक्ता की मांग के अनुरूप है, उसकी आपूर्ति है.साथ ही यह कहना भी ज़रूरी है कि बाज़ार भले ही सेक्स और शरीर का इस्तेमाल करता हो लेकिन स्त्री केवल सेक्स या देह नहीं है. इसी प्रकार सेक्स या शरीर केवल स्त्री नहीं है - यदि बिकता है तो पुरुष भी उतना ही या उससे भी महँगा सेक्स और शरीर है. 



यहाँ फिर स्त्री की भूमिका आती है. आज इन्टरनेट पर सक्रिय अनेक सोशल नेटवर्कों के अवलोकन से पता चलता है कि उनमें स्त्रियाँ अपेक्षाकृत अधिक संख्या में सम्मिलित हैं और विचारविमर्श तथा बहसमुबाहसों में बढ़चढ़कर भाग ले रही हैं. अनेक ऑनलाइन डिस्कशन फोरम भी इस बात के गवाह हैं. छवि निर्माण वाली उपभोक्ता संस्कृति का एक ही रूप है फैन-कल्चर. आपके चाहने वाले आपको क्या से क्या बना देते हैं - फैन क्लब इसके प्रमाण हैं. देशविदेश के अनेक चैनेल दर्शकों को शामिल करके जो कार्यक्रम चला रहे हैं, उनमें इन चाहने वालों के रूप में बड़ी संख्या में स्त्री उपभोक्ता भी सक्रिय है. स्पष्ट है कि आज स्त्री उत्पादक और उपभोक्ता दोनों रूपों में बाज़ार को प्रभावित कर रही है. जैसा कि पहले कहा गया है, एक समय यह समझा जाता था कि स्त्री मूक-बधिर है लेकिन आज ऐसा नहीं है. आज वह विश्लेषण करके अपनी बात सार्वजनिक रूप से प्रस्तुत कर रही है और सारे समाज को प्रभावित कर रही है. आज के बाज़ार के 'पाठ' का निर्माण निश्चय ही 'प्रशंसकों' द्वारा प्रभावित हो रहा है जिसमें स्त्रियाँ भी पूरी शिद्दत से सक्रिय हैं. फैन कल्चर के प्रभाव का एक प्रबल उदाहरण हैरी-पॉटर उपन्यास शृंखला है जो स्त्री-पुरुषों में समान रूप से लोकप्रिय है. इसमें एल्फ नाम की एक काल्पनिक जाति का संदर्भ मिलता है. यह एक दास जाति है जिसमें अत्यंत छोटे कद के तथा घरेलू काम करने वाले दास शामिल हैं. इसके विवरण से प्रभावित होकर हैरी पॉटर के प्रशंसक समूहों (हैरी पॉटर एलायंस) द्वारा अफ्रीका, अमेरिका और भारत सहित अनेक देशों में समाजसेवा के कार्य किए जा रहे हैं. इस प्रकार की गतिविधियाँ उपभोक्ता संस्कृति की पहचान बन सकती हैं.



उल्लेखनीय है कि फैन कल्चर के तहत स्त्रियों का समूहबद्ध होना उपभोक्ता जगत में बदलाव का द्योतक है. उपभोक्ता संस्कृति बाज़ार का अपना 'पाठ' गठित करती है. तथ्यों को पुनः व्याख्यायित करना, 'पुनर्पाठ' निर्मित करना इसका एक रूप है. इसे रीमिक्स मीडिया के रूप में भी देखा जा सकता है - उपभोक्ता का उत्पादक बन जाना. प्राचीन साहित्य का पुनर्पाठ भी उपभोक्ता संस्कृति का एक अंग है. शेक्सपीयर के आधुनिक संस्करण के रूप में 'अंगूर', 'मकबूल' और 'ओंकारा' जैसी फिल्मों का आना हो, या रामायण और महाभारत के टीवी संस्करण हों - सब ऐसे ही पुनर्पाठ के उदाहरण हैं. कहना होगा कि इस तरह उपभोक्ता संस्कृति समाज को अधिक भागीदारी पूर्ण लोकतंत्र की दिशा में जाने की प्रेरणा देती है.



उपभोक्ता संस्कृति और स्त्री के संदर्भ में अगर भारतीय लोकतंत्र को देखें तो पता चलता है कि स्त्री वोट की सारी राजनीति का आधार 'लोकतंत्र के उपभोक्ता' समाज का दबाव है. भारत के वार्षिक बजट में रसोई की चर्चा अनिवार्य रूप से होती है. यहाँ प्याज और गैस की कीमतों का सरकारों के बनने बिगड़ने पर गहरा असर कई बार देखा जा चुका है. इसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि अगर स्त्री उपभोक्ता समाज संगठित होकर अपेक्षाकृत अधिक उत्तरदायित्व पूर्ण सामाजिक समूह का निर्माण कर सके तो इसे उपभोक्ता संस्कृति के स्थान पर 'भागीदारी' की संस्कृति के विकास का लक्षण माना जा सकता है जिसका अगला चरण होगा 'सहभागिता पूर्ण लोकतंत्र'. इससे स्त्रियों का और सशक्तीकरण हो सकेगा.



मेरा मानना तो यही है कि आज की स्त्री निरीह और अबला नहीं हैं, वह शक्तिमान है, बुद्धिमान है, पर्याप्त विवेकी है - वह बाज़ार को नचाने का सामर्थ्य रखती है, भले ही यह लगता हो कि बाज़ार उसे नचा रहा है. रही बात उस स्त्री की जो अभी तक सामाजिक विकास के हाशिये पर है तो उसका शोषण आज भी जारी है. वह आज भी भोग्य वस्तु है - पण्य सामग्री है. पर इसके लिए उपभोक्ता संस्कृति नहीं, बल्कि वे सामंती अवशेष जिम्मेदार हैं जो इस उत्तरआधुनिक समय में भी भारत को मध्यकाल में जीने के लिए विवश करते हैं. यहाँ हम उस स्त्री की चर्चा कर रहे हैं जो बाज़ार की शक्तियों को प्रभावित करती है इसलिए जानबूझ कर इस शोषित दमित स्त्री का संदर्भ यहाँ उतना प्रासंगिक नहीं है. तथापि बाज़ार के नियंत्रण की कुछ तो ताकत इस कम क्रयशक्ति वाली स्त्री के पास भी है. उत्पादक कंपनियों की समझ में यह बात आ गई है कि भारत अमेरिका नहीं है. अर्थात यहाँ हर कोई एक साथ बड़ी मात्र में वस्तु नहीं खरीद सकता. जनसंख्या रूपी पिरामिड के ऊपरी भाग में संतृप्ति आने के कारण उन्हें उसके निचले भाग को लक्ष्य करना पड़ रहा है. इसी का परिणाम है कि अब भारत के बाज़ार में कपडे धोने से लेकर सिर धोने तक की सामग्री छोटे और सस्ते सैशे में उपलब्ध है जिनके मुख्य उपभोक्ता समूह का निर्माण निम्नमध्य और निम्न वर्ग की स्त्रियों द्वारा होता है.



आरंभ में कहा जा चुका है कि स्त्री आज उपभोक्ता भर नहीं, उत्पादक और प्रबंधक भी है. वास्तव में राजनीति और प्रशासन से लेकर औद्योगिक घरानों तक का संचालन आज अनेक स्त्रियाँ कर रही हैं. मीडिया के क्षेत्र में भारत में अनेक महिलाएँ समाचार संकलन से लेकर कार्यक्रम निर्माण तक का काम संभाल रही हैं. राधिका रॉय एनडीटीवी की प्रबंध निदेशक रह चुकी हैं. एकता कपूर तो घर घर में अपने धारावाहिकों से घर कर चुकी हैं. इसी प्रकार एनडीटीवी की ही समूह संपादक बरखा दत्त जनमत की अभिव्यक्ति का पर्याय बन चुकी हैं. आंकडे बताते हैं कि भारत में बैंकिंग और फाइनेंस सेक्टर में ५४ प्रतिशित मुख्य कार्यकारी अधिकारी(सीईओ) स्त्रियाँ हैं. मीडिया में इनका प्रतिशत ११ है, तो तीव्रगामी उपभोक्ता वस्तूओं (ऍफ़.एम्.सी.जी) - सौंदर्य सामग्री और बिस्कुट आदि - के क्षेत्र में आठ प्रतिशत है. फिल्म उत्पादन के क्षेत्र में आज कौन तनूजा चंद्रा, पूजा भट्ट और एकता कपूर से परिचित नहीं है? इतना ही नहीं, अखिला श्रीनिवासन (एम.ड़ी, श्रीराम इन्वेस्टमेंट), चंदा कोचर(एम.ड़ी. और सीईओ, आइसीआईसीआई), इंदिरा नूई(अध्यक्ष और सीईओ, पेप्सी), ऋतू कुमार(फैशन डिजाइनर ) तथा भारत की सबसे अमीर महिला किरण मजुमदार शा (बायोकोन) जैसी स्त्रियों ने बाज़ार को नियंत्रित करने की भारतीय स्त्री की शक्ति का बखूबी प्रमाण दिया है.



यहाँ यह भी कहना प्रासंगिक होगा कि दुनिया के बाज़ार में स्त्री शक्ति का यह हस्तक्षेप उपभोक्ता संस्कृति के गठन और विकास में और भी प्रभावी भूमिका निभा सकता है बशर्ते कि इसका उपयोग समाज के वंचित वर्गों के कल्याण के लिए किया जाए. इस संबंध में 'वीमेन काइंड' का उदाहरण देखा जा सकता है. यह एक विज्ञापन एजेंसी है जिसे स्त्रियाँ ही संचालित करती हैं. देखा यह गया था कि ब्रांड खरीददारी करने वालों में ८५ प्रतिशत स्त्रियाँ होने के बावजूद ज़्यादातर ब्रांड मेसेज स्त्री दर्शक को आकर्षित करने में असमर्थ रहते थे . इसलिए इस एजेंसी ने प्रतिभाशाली फ्रीलांसर स्त्रियों को जोड़ा और मुख्यतः स्त्रियों को सम्बोधित व्यापार मॉडल प्रस्तुत किया. उल्लेखनीय बात यह है कि यह एजेंसी अपने लाभ का ५ प्रतिशत अंश वंचित वर्ग की स्त्रियों को दान में देती है. 



अंततः यह कहा जा सकता है कि उपभोक्ता संस्कृति के निर्माण में स्त्री समूह अत्यंत रचनात्मक भूमिका निभा सकते हैं तथा स्त्रियाँ आज के बाज़ार में केवल बिकाऊ माल की तरह निष्क्रिय रूप में उपस्थित नहीं हैं, बल्कि प्रबंधन और उत्पादन के क्षेत्र में भी उनका हस्तक्षेप और सक्रिय भागीदारी दृष्टिगोचर हो रही है. विशेष रूप से भारतीय संदर्भ में यह शुभ संकेत है कि भारतीय स्त्री अपनी मध्यकालीन छवि (भोग्या) से बाहर आ रही है और नारी से नागरिक बनने की उसकी चाह फलीभूत हो रही है.


गुरुवार, 17 जून 2010

बच्चियों का ख़तना

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बच्चियों के ख़तना के ख़िलाफ़ अपील

कुर्दिस्तान में स्कूली बच्चियाँ
कई जगहों पर 40 प्रतिशत और कुछ अन्य जगहों पर 70 प्रतिशत तक बच्चियों की ख़तना हुई है


अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संस्था ह्यूमन राइट्स वॉच ने इराक़ के उत्तरी स्वायत्त इलाक़े कुर्दिस्तान में बच्चियों के ख़तना पर प्रतिबंध लगाने के लिए स्थानीय सरकार से अपील की है.

संस्था ने एक रिपोर्ट में कहा है कि ये प्रथा इराक़ी कुर्दिस्तान में व्यापक है और इससे महिलाओं को शारीरिक और मनोवैज्ञानिक रूप से काफ़ी नुक़सान झेलना पड़ता है.

बीबीसी संवाददाता जिम मोयर के अनुसार इराक़ में अन्य जगहों पर बच्चियों के ख़तना का चलन नहीं है लेकिन ये स्पष्ट नहीं है कि कुर्दिस्तान में ये प्रथा इतनी व्यापक क्यों है.

उनके अनुसार इस बारे में स्पष्ट आंकड़े तो नहीं है लेकिन हाल में हुए कई सर्वेक्षणों के अनुसार कुर्दिस्तान में ये कुछ इलाक़ों में 40 प्रतिशत से लेकर 70 प्रतिशत तक प्रचलित है.

स्वास्थ्य को ख़तरा
बच्चियों के स्वास्थ्य को ख़तरा इसलिए भी बढ़ जाता है क्योंकि ख़तना के अधिकतर मामलों में पाया जाता है कि ये अप्रशिक्षित लोगों द्वारा किया जाता है.

इस प्रक्रिया से पहले लड़कियों को ये भी पता नहीं होता कि क्या किया जाना है.

ह्यूमैन राइट्स वॉच के अनुसार इस ऑपरेशन का कोई स्वास्थ्य संबंधी लाभ या मक़सद नहीं है बल्कि इसके नकारात्मक शारीरिक और मनोवैज्ञानिक असर हो सकते हैं.

इस प्रथा का हालाँकि इस्लाम से कोई लेनादेना नहीं है लेकिन कुर्दिस्तान के कुछ मौलवियों ने इसका स्वागत किया है क्योंकि उनका मानना है कि इस ख़तना से युवा होती लड़कियों और महिलाओं में यौनेच्छा मिट जाती है.

इसके बारे में कोई विस्तृत आंकड़े तो मौजूद नहीं हैं लेकिन हाल के कुछ सर्वेक्षणों से पता चलता है कि यह काफ़ी बड़े पैमाने पर मौजूद है.

ह्यूमैनराइट्स वॉच ने इस बारे में जो रिपोर्ट प्रकाशित की है उसे शीर्षक दिया है: "वे मुझे ले गए और कुछ नहीं बताया."

इससे पहले इस प्रक्रिया पर प्रतिबंध लगाने की योजनाएँ तो बनी हैं लेकिन उनका कोई नतीजा नहीं निकला है.(बीबीसी)

मंगलवार, 15 जून 2010

ब्रिटेन में पहला गर्भपात विज्ञापन

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ब्रिटेन में पहला गर्भपात विज्ञापन
गर्भपात का विज्ञापन
गर्भपात की सलाह देनेवाले विज्ञापन पर चर्च और गर्भपात विरोधी समूहों ने आपत्ति की है


ब्रिटेन में टेलीविज़न पर पहली बार गर्भपात सेवाओं के बारे में सलाह देनेवाले एक विज्ञापन का प्रसारण शुरू किया गया है.


इस विज्ञापन पर चर्च और गर्भपात विरोधी समूहों ने नाराज़गी जताई है.


ब्रिटेन में गर्भपात के बारे में पहली बार विज्ञापन टीवी चैनल – चैनल फ़ोर – पर प्रसारित किया गया है.


इस विज्ञापन को एक सहायता संस्था – मेरी स्टोप्स इंटरनेशनल – ने तैयार करवाया है जो ब्रिटेन में हर साल होनेवाले दो लाख से अधिक गर्भपातों में से एक तिहाई गर्भपात करवाने में सहायता करती है.


संस्था का कहना है कि अनचाहे गर्भ के बारे में जागरुकता नहीं होने के कारण इस विज्ञापन का प्रसारण ज़रूरी है.


मगर एक गर्भपात विरोधी संस्था – सोसायटी फ़ॉर द प्रोटेक्शन ऑफ़ अनबॉर्न चिल्ड्रेन – का दावा है कि इस विज्ञापन से गर्भपात की संख्या बढ़ेगी क्योंकि इससे गर्भपात को अगंभीर समझा जाने लगेगा.


रोमन कैथोलिक चर्च का कहना है कि इस तरह के विज्ञापन से गर्भपात एक उपभोक्ता सेवा बन जाएगा.


ब्रिटेन के उत्तरी आयरलैंड प्रदेश में इस विज्ञापन को प्रसारित नहीं किया जाएगा क्योंकि वहाँ गर्भपात को अभी भी अवैध समझा जाता है|


गुरुवार, 13 मई 2010

कि नारी तन मुझे देकर कृतारथ कर दिया ओ माँ !

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कृतारथ कर दिया ओ माँ !



कृतारथ कर दिया ओ माँ !


सृजन की माल का मनका बना कर जो , 
कि नारी तन मुझे देकर कृतारथ कर दिया ओ माँ !

*

सिरजती एक नूतन अस्ति अपने ही स्वयं में रच ,
इयत्ता स्वयं की संपूर्ण वितरित कर परं के हित ,
नए आयाम सीमित चेतना को दे दिए तुमने, 
विनश्वर देह को तुमने सकारथ कर दिया ओ माँ !

*

बहुत लघु आत्म का घेरा, कहीं विस्तृत बना तुमने,
मरण को पार करता अनवरत क्रम जो रचा तुमने ,
कि जो कण-कण बिखर कर विलय हो कर नाश में मिलता ,
नया चैतन्य का वाहन पदारथ* कर दिया ओ माँ !
कि नारी तन मुझे देकर कृतारथ कर दिया ओ माँ !

*पदारथ = मणि

- प्रतिभा सक्सेना 


रविवार, 9 मई 2010

रत्‍नावली का सच

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रत्नावली का सच 


               मैंने चाहा था तुमको प्रियतम!
                मन से, तन से प्रतिपल,
               हर क्षण की थी कामना
                तुम्हे पाने की,
                तुम्ही में खो जाने की,
                लेकिन-
                तुम जिस रात आए,
                मेरे प्रेम-पाश में बंधने,
                मुझे उपकृत करने-
                उस रात,
                मैं मायके में थी न?
                बेटी की मर्यादा
                मेरे पैरों को रोक रही थी
                जंजीर बन कर!

                      उस रात मेरे भीतर बैठी-
                      मर्यादित नारी जाग उठी थी
                      और उस नारी ने कह दिया था--
                      "लाज न आवत आपको"
                       और बस,
                       तुम लौट गए थे हत 'अहम्' लेकर!
                       मैं-
                       मर्यादा में जकड़ी, तड़फती रही!
                       सच कहूँ मेरे प्रिय!
                       उस रात जीत गई थी नारी
                       और हार गई थी तुम्हारी पत्नी-
                       रत्नावली बेचारी!
                      संसार ने पाया महाकवि तुलसी-
                       रत्नावली रह गई युगों से झुलसी-
                       तन और मन की आग से!
                       यही है रत्नावली का सच,
                       जिसे तुम भी नहीं जान सके मेरे प्रिय!
                        --------------------------------


                              डॉ.योगेन्द्र नाथ शर्मा 'अरुण' 
        

शनिवार, 8 मई 2010

कौन है तू

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तेलुगु कविता

कौन है तू 
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मैं एक वरूधिनी हूँ !
भयभीत हरिणेक्षणा हूँ
प्रेम करने के दंड के बदले में
धोखा दी गयी वेश्या हूँ
हिमपर्वतों को साक्षी मानकर कहती हूँ
प्यार के बदले में
वेदना ही मिली आँखों से नींद उड़ जाने की.
प्यार करने वाली स्त्रियों को ठगने वाले
माया प्रवरों के वारिस ही हैं मनु!
+ + +

मैं एक शकुन्तला हूँ!
एक पुरुष की अव्यक्त स्मृति हूँ
मुझे छोड़ सब कुछ याद रखने वाला वह
उसे छोड़ कुछ भी याद न करने वाली मै
दोनों के असीम सुख सागर का
मानो प्रकृति ही मौन साक्षी हो!

पति का प्यार नहीं सिर्फ निशानी पाने वाली मै!
+ + +

पाँच पतियों की पत्नी द्रौपदी हूँ मैं!
वरण कर अर्जुन का बँट गयी पाँच टुकड़ों में
पुरुष के मायाद्यूत में एक सिक्का मात्र हूँ !
भरी सभा में घोर अपमान
पत्नी के पद से वंचित करने वाला युधिष्ठिर!

बँटे दाम्पत्य में बचा तो केवल
जीवन-नाटक का विषाद !
+ + +

मैं ययाति की कन्या माधवी हूँ!
दुरहंकार से भरी पुरुषों की संपत्ति हूँ
संतान को जन्म देनेवाली
सर से पाँव तक सौन्दर्य की मूर्ति हूँ!
अनेक पुरुषों के साथ दाम्पत्य
मेरे लिए अपमान नहीं
वह तो मेरा क्षात्रधर्म है!
नित यौवन से भरी कन्या हूँ मै!
हतभाग्य!
स्त्री का मन न जानने वाले ये ...
ये क्या महाराज हैं? महर्षि हैं?
पुरुष हैं?
+ + +

दो आँखों पर सपनों के नीले साए
समय ने जो कहानियाँ बताईं
उन सबमे स्त्रियाँ व्यथित ही दिखीं!
यह पूरा स्त्रीपर्व ही दुखी स्मृतियों की परंपरा है !
+ + +

अब मैं मानवी हूँ!
अव्यक्ता या परित्यक्ता नहीं हूँ
अयोनिजा या अहिल्या नहीं होऊँगी !
वंचिता शकुन्तला की वारिस कदाचित नहीं हूँ !
अब मैं नहीं रहूँगी स्त्रीव का मापदंड बनकर
मैं अपराजिता हूँ !
अदृश्य शृंखलाओं को तोड़ने वाली काली हूँ !
शस्यक्षेत्र ही नहीं युद्धक्षेत्र भी हूँ !

लज्जा से विदीर्ण धरती भी मैं ही हूँ
उस विदीर्ण धरती को विशाल बाहुओं से ढकने वाला आकाश भी मैं ही हूँ !
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मूल तेलुगु कविता : रेंटाला कल्पना 

अनुवाद : आर. शांता सुंदरी 

मंगलवार, 4 मई 2010

निरुपमा की हत्या की गुत्थियाँ

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अपनी गत प्रविष्टि पर  सुजाता जी के दिए लिंक द्वारा अभी चोखेरबाली पढ़ कर -




यहाँ  "स्त्रीविमर्श" पर कल गत पोस्ट 

शीर्षक के माध्यम से  अपनी बात कह ही चुकी हूँ। फिर भी,  मेरे तईं यद्यपि स्त्री की स्थिति का धर्म से कुछ लेना देना नहीं है, वह पुरुष की सत्तात्मक मानसिकता की यद्यपि सारी कुंठा इस विभेद से हटकर वहन करती आई है, परन्तु निरुपमा की दुर्घटना को साझे "समाज की मानसिकता का प्रतिफल" के रूप में लिया जाना चाहिए अर्थात् सम्प्रदाय -विशेष / जातिविशेष वर्सेज़ स्त्री नहीं अपितु समस्त समाज/सभी सम्प्रदाय वर्सेज स्त्री के रूप में देखा जाना चाहिए।


निरुपमा किसी भी सम्प्रदाय (धर्म ?)  में होती, उसके कुँआरे मातृत्व को स्वीकारने की हिम्मत किसी में न होती।


और इस घटना के दो बिन्दुओं ( जातिभेद के कारण हत्या या कुँआरे मातृत्व के कारण हत्या) को स्पष्ट समझते ही यह धुंध छ्टँ जानी चाहिए,  ऐसी मेरी आशा है।


अब जरा इस दुर्घटना पर विचार कर लिया जाए तो चीजें स्पष्ट हों।


मैं इसे अन्तर्जातीयता के चलते की गई हत्या नहीं अपितु कुआँरे मातृत्व के चलते की गई हत्या ( यदि पितॄकुल के द्वारा हुई है तो ) मानती हूँ। उसका एक कारण है।


वह कारण यहीं स्पष्ट हो जाता है जब यह स्पष्ट हो जाए कि निरुपमा का अपने तथाकथित प्रेमी (?) से विवाह हुआ क्यों न था।

इस विवाह न होने का एकमात्र कारण क्या निरुपमा के माता-पिता थे? या कोई और भी कारण था?

 यह कारण चीन्हना बहुत जरूरी है सुजाता ; क्योंकि जो लड़की महानगर में अकेली रहती है व प्रतिष्ठित पत्रकारिता से जुड़ी है, अपने पैरों पर खड़ी है, और सबसे बढ़कर जो एक पुरुष के साथ सहवास करने का साहस रखती है ( विशेषकर, उस भारतीय समाज में जहाँ विवाहपूर्व यौन सम्बन्ध मानो भयंकरतम जघन्य अपराध मानता है समाज, तिस पर उसमें इतना साहस भी है कि वह लगभग तीन माह का गर्भ वहन कर रही है ( ध्यान रहे यह वह काल होता है जब गर्भावस्था के बाह्य लक्षण सार्वजनिक रूप में दिखाई देने प्रारम्भ होने लगते हैं); ऐसी साहसी व निश्शंक लड़की का  माता-पिता के अन्तर्ज़ातीय विवाह के विरोधी होने के डर-मात्र से विवाह न करना कुछ हजम नहीं होता। यदि कोई माता-पिता के डर / दबाव-मात्र से इतना संचालित होता है तो उसका भरे (भारतीय) समाज में विवाहपूर्व गर्भवती होने का साहस करना   - ये दो एकदम अलग ध्रुव हैं। एक ही लड़की, वह भी बालिग व आत्मनिर्भर, विवाह करने का साहस न रखे किन्तु सहवास व कुंआरे मातृत्व का साहस रखे, यह क्या कुछ सोचने को विवश नहीं करता ?

मुझे तो विवश करता है।

...और फिर यह सोचना मुझे दिखाता है कि एक कुंआरी व सबल तथा आत्मनिर्भर माता द्वारा अपने तथाकथित प्रेमी से विवाह न करने के पीछे और भी कई गुत्त्थियाँ व राज हैं।

ये गुत्त्थियाँ ही/भी वे कारक हो सकती हैं न सुजाता (जी) जिनके कारण परिवार में झगड़ा हुआ होगा।


इसलिए पितृ-परिवार में झगड़े / विरोध / हत्या के लिए केवल अन्तर्जातीयता-मात्र के विरोध को कारक सिद्ध कर के एक सैद्धान्तिकी बनाना और धर्म के नाम पर हिंदुत्व मात्र को दोष देने की प्रथा कम से कम मेरी समझ से ऊपर की चीज है। क्षमा करें।


एक ऐसे अमानवीय समय में जबकि दो व्यक्तियों की हत्या की भर्त्सना करते हुए पूरे समाज को कटघरे में खड़ा किया जाना चाहिए व स्त्री की सुरक्षा और उसके जीवन के मौलिक अधिकार, मातृत्व के मौलिक अधिकार की बात होनी चाहिए, सामाजिक न्यायव्यवस्था की बात होनी चाहिए; वैसे समय में ब्राह्मणवाद आदि  का नाम लेकर हिन्दुत्व को धिक्कारने के प्रसंग निकालना मुझे उसी शैतानी पुरुषवाद की चाल दिखाई देते हैं जो स्त्री को अपने प्यार की फाँस में फँसा कर उसे भोग्या और वंचिता दोनों बनाता है। विवाह की जिम्मेदारी से बचता है और छलना करता है,  दूसरी ओर भाई और अपना परिवार अपना पौरुष दिखाते हैं।

स्त्री क्या करे? कहाँ जाए?

किस न्यायपालिका की शरण ?

उन सब शैतान पुरुषों के लिए तो ऐसे अन्य मुद्दों का उठना बड़ा वरदान है,  आरोप व सारा दोष किसी और की ओर जो हुए  जा रहा है। ऊपर से उनकी लम्पटता निर्बाध चल सकती है, उस से तो सावधान करने के अवसर पर गालियाँ और कटघरे में आया कोई अन्य मुद्दा|


पुनश्च
६ मई २०१०


तथ्यों के आलोक में इन चीजों को भी जोड़ दिया जाना चाहिए -

निरुपमा को लिखा पिता का पत्र किसने जारी किया?
क्या माता पिता ने स्वयं? या प्रियभांशु ने?
प्रियभांशु के पास वह पत्र आया कैसे?

सन्देह यह जाता है कि निरुपमा की हत्या के समाचार के बाद प्रियभांशु निरुपमा के आवास पर गया होगा, तभी तो वह खोजकर पत्र जारी करता है। 

यदि गया तो यह उसका सम्वैधानिक अपराध है, तथ्यों के साथ छेड़छाड़ करने की मंशा और उसे क्रियान्वित करना। अर्थात् प्रियभांशु ने कुछ तथ्य मिटाए भी होंगे, उड़ाए भी होंगे।

क्या यह सम्भव नहीं है कि प्रियभांशु विवाह से मुकर गया हो व निरुपाय निरुपमा अपने माता-पिता के पास इसी दुविधा में गई हो व वहाँ जा कर विवाह न होने की सम्भावना के बावजूद वह प्रियभांशु के गर्भ को नष्ट न करने की जिद्द पर हो... और ऐसी तनातनी, कहासुनी, झगड़े और विवाद का फल हो उसकी मॄत्यु!

प्रियभांशु के मोबाईल के अन्य रेकोर्ड्स की जाँच भी अनिवार्य है।

पिता का पत्र जारी करके सारे कथानक को जातिवाद के रंग में रंगने की साजिश का बड़ा मन्तव्य प्रियभांशु के अपने अपराध से ध्यान हटाने व पुलिस और मीडिया को गुमराह करने की साजिश हो।

वरना मॄत्यु की पहली सूचना के तुरन्त साथ ही प्रियभांशु अपना नाम व चित्र सार्वजनिक न होने की जद्दोजहद में न होता ( जैसा कि कई एजन्सियों ने तब कहा/लिखा/बताया था)।

वस्तुत: यह स्त्री के साथ छलनापूर्ण प्रेम कथा का पारम्परिक दुखान्त व भर्त्सनायोग्य दुष्कृत्य है। जिसकी जितनी निन्दा की जाए कम है। हत्यारों और हत्या की ओर धकेलने वालों को कड़ा दण्ड मिलना ही चाहिए।





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