औरत की दुनिया -
क्या पुरुष अपने ‘समदुखी मीत’ की व्यथा कथा समानुभूति से लिखेंगे ?
- सुधा अरोड़ा
‘‘ साहित्य समाज का दर्पण है ’’ उक्ति घिस घिस कर पुरानी हो गई , पर साहित्य का समाशास्त्रीय विश्लेषण आज भी साहित्य का एक अनिवार्य हिस्सा नहीं बन पाया । साहित्य और समाजविज्ञान के बीच की इस खाई ने साहित्य और साहित्यिक समीक्षाओं को शुद्ध कलावादी बना दिया और समाजविज्ञान के मुद्दों को एक अलग शोध का विषय , जिसका साहित्य से कोई वास्ता नहीं ।
हिन्दी साहित्य में महिला रचनाकारों की आत्मकथाएँ उँगलियों पर गिनी जा सकती हैं । पुरुषवर्ग यह सवाल पूछता है कि लेखिकाएँ अपनी आत्मकथाएँ क्यों नहीं लिखतीं ? पर लिखी गयी आत्मकथाओं को इस या उस कारण से कटघरे में खड़ा करता रहता है।
हमारा भारतीय लेखक समाज काफी क्रूर और निर्मम है । बाहर बाहर से सहानुभूति जताता हुआ, यह एक लेखिका के पर कतरने को और उसके औरत होने के कारण जन्मे दुख, उसकी तकलीफ, उसकी व्यथा पर ठहाका लगाने की मंशा रखता हुआ, शातिर अंदाज में मंद मंद मुस्कुराता और व्यंग्यात्मक टिप्पणियाँ करता है ।
हंस के
मार्च अंक में
‘‘ आत्मा का आईना ’’ आलेख में वरिष्ठ समीक्षक
मैनेजर पांडे ने बेहद उदारमना होकर
मन्नू जी की किताब
‘ एक कहानी यह भी ’ की एक बेहतरीन विश्लेषणात्मक समीक्षा की है , लेकिन अंत तक आते आते उनकी आलोचकीय दृष्टि पर पुरुषवादी सोच ने धावा बोल दिया है। उनका एक लंबा पैराग्राफ है जिसमें मीता के प्रति गहरी समानुभूति से उन्होंने एक टिप्पणी दी है । वे लिखते हैं -
‘‘ इस कहानी में एक पात्र और उससे जुड़ा प्रसंग ऐसा है जिस पर अगर मन्नू परानुभूति या समानुभूति के साथ सोचतीं और लिखतीं तो उनकी आत्मकथा असाधारण होती. वह पात्र है मीता, जो एक ओर राजेन्द्र यादव के बौद्धिक छल का शिकार हुई है तो दूसरी ओर मन्नू तथा राजेन्द्र के बीच तनाव और अलगाव का कारण भी है. मेरे सामने सवाल यह है कि क्या मीता के कुछ दुख-दर्द नहीं होंगे. अगर वे हैं तो उनकी चिंता किसी को नहीं है, न राजेन्द्र को और न मन्नू को. मन्नू तो एक स्त्री हैं और संवेदनशील लेखिका भी. यही नहीं, वे स्वयं राजेंद्र के छल से पीड़ित स्त्री हैं इसलिए उनसे यह उम्मीद की जा सकती है कि वे मीता की पीड़ा को एक समदुखिनी के दर्द को समझने और व्यक्त करने की कोशिश करतीं लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. मीता तो लेखिका नहीं है फिर उसके दुख दर्द की कहानी कौन कहेगा ? लगता है कि दूसरी असंख्य स्त्रियों की तरह मीता की पीड़ा भी अनकही रह जाएगी . ’’ (हंस: मार्च 2010 - पृष्ठ-54 )
इस पैराग्राफ में प्रश्नकर्ता का भी बौद्धिक छल उजागर होता है । वह लेखिका से उस विश्लेषण की माँग कर रहा है जो कृति का अभीष्ट है ही नहीं । हाल ही में मन्नू जी से एक पत्रकार ने साक्षात्कार लिया और `हंस'(मार्च) में प्रकाशित इस आलेख ‘ आत्मा का आईना ‘ के अंतिम पैराग्राफ पर उनकी राय पूछी । मन्नू जी ने कहा - ‘‘ जब मीता ने राजेंद्र जी से सारे सम्बन्ध तोड़ लिए थे, उनके सारे पत्र भी लौटा दिए थे, तो जैसे ही उसे पता चला कि वह मुझसे शादी कर चुके हैं, दोबारा वह उनकी जिन्दगी में दाखिल हो गई । अगर उसकी जगह मैं होती और राजेंद्र किसी और से शादी कर रहे होते या कर चुके होते मैं तो अपने को पूरी तरह उनसे काट लेती, उनकी जिंदगी में कोई दखल न देती और एक पत्नी का अधिकार छीन कर कभी अपना घर बसाने का सपना तो नहीं ही देखती । ’’ मन्नू जी की इस उक्ति से आप स्त्रियों की किस्मों के बीच एक स्पष्ट विभाजक रेखा खींच सकते हैं । इस विभाजक रेखा के दूसरी ओर पड़ी स्त्रियों का दुख उनके अस्तित्व का नहीं, उनकी आकांक्षाओं ( आज के संदर्भ में महत्वाकांक्षाओं ) का है जिसमें प्रेम या भावना से पैदा होने वाली पीड़ा-व्यथा का कहीं नामो निशान नहीं है । अगर कुछ है तो वह तहस नहस करने का एक त्रासजनित सुख है ।
‘ अन्या से अनन्या ' की लेखिका प्रभा खेतान क्या मीता नहीं हैं ? क्या उस ‘मीता’ की भरी पूरी आत्मकथा से अनकही मीताओं के तथाकथित दुख दर्द की भरपाई नहीं हो गई ? मन्नू जी ने तो फिर भी मीता के कोण से कई कहानियाँ लिखीं - जिनमें ‘स्त्री सुबोधिनी’ , ‘एक बार और’ चर्चित भी हुईं क्योंकि उसकी स्थिति में कल्पना का पुट देकर कहानियाँ लिखना ही उनके लिए संभव था । मीता के वास्तविक जीवन की न तो मन्नू जी को जानकारी थी, न वे उसके निजी जीवन से वाकिफ होना चाहती थीं तो वे आत्मकथा जैसी विधा में उसका क्या बयान करतीं - जो पूरी तरह सच और वास्तविकता पर आधारित होती है । जिस ‘व्यथा’ को हाईलाइट करने की बात हमारे वरिष्ठ समीक्षक करते हैं , शायद वे यह नहीं जानते कि यह मीता ‘तनाव’ का कारण जरूर थी पर ‘अलगाव’ का नहीं । मीता - चाहे वह जैसी भी हो - का एकवचन तो पत्नी स्वीकार करके जीवन के तीसेक साल गुजार देती है पर बहुवचन में ‘ मीताओं ’ को स्वीकार करना मुश्किल होता है ।
विडम्बना तो यह है कि इनमें से कुछ मीताओें के भी एक नहीं , कई मीत होते हैं । आज के समय में इन बहुवचन में ‘मीत’ पालने वाली ‘मीताओं’ का दुख दर्द कैसा ? अनकही पीड़ा का अर्थ क्या है ? यह अनकही पीड़ा-व्यथा किस किस्म के समीक्षकों को आलोड़ित करती है ? ऐसी मीताएँ पुरुषों के ‘‘बौद्धिक छल का शिकार’’ नहीं होतीं, वे तो सबकुछ जानते समझते एक पिता और पति के दायित्व से पुरुष को डिगा कर उसका प्रेमी के रूप में खुद शिकार करती हैं । इस शिकार में उसे न सिर्फ विवाहित पुरुष से प्रेम (!) करने का , बल्कि सिर्फ अपनी देह के तांडव के बूते पर एक समर्पित-समझदार-विदुषी औरत को उसके अधिकार से अपदस्थ और उसकी ‘स्पेस’ से बेदखल करने का दोहरा सुख शामिल हो जाता है जो उसे एक त्रासदी निर्मित करने का और संगति में विध्वंस करने का भी क्रूर त्रासजनित आनंद देता है । हमारे समीक्षकों के पास इन देहवादी ‘मीताओं’ को पहचानने की निगाह क्यों नहीं है ? समीक्षकीय दृष्टि की सारी स्पष्टता इस ‘मीता’ के संबंध पर आकर धुंधलके में क्यों बदल जाती है ?
संभवतः इसका कारण यह है कि हिन्दी साहित्य मीताओं से अंटा पड़ा है । आज के अधिकांश लेखकों- कवियों-समीक्षकों के जीवन में एक एक मीता है । ये सब मीताओं वाले पुरुष हैं - गाँव में जिनकी बेपढ़ी बीवियाँ या शहर में जिनकी पढ़ी लिखी बीवियाँ उनके बच्चों को बगैर किसी गिले-शिकवे के पाल रही हैं इसलिए अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़कर इन मीताओं के प्रति उनकी सहानुभूति का पलड़ा भारी है ।
हिन्दी साहित्य में पुरुष रचनाकारों ने भी आत्मकथाएँ लिखी हैं । क्या हमारे वरिष्ठ समालोचक पुरुष आत्मकथा लेखक से आग्रह करेंगे कि उनकी पत्नी का अगर कोई ‘मीत’ रहा है तो उस समदुखी ‘मीत’ की व्यथा कथा का वे संवेदनशीलता से बयान करें ? आखिर संवेदनशीलता सिर्फ महिलाओं की बपौती तो नहीं है न !
प्रभा खेतान की ‘‘अन्या से अनन्या’’ की काफी चर्चा हुई क्योंकि खुलकर उन्होंने विवाहित पुरुष से अपने प्रेम संबंध की चर्चा की । राजेंद्र जी ने भी प्रभा खेतान से अपनी मित्रता को सार्त्र और सिमोन के संबंधों के बरक्स रखा और एक साक्षात्कार में यह भी कहा - ‘‘ प्रभा खेतान मेरी बहुत इंटीमेट फ्रेंड रही हैं ।’’ ( 23 लेखिकाएँ और राजेंद्र यादव - पृष्ठ 85) . मुझे हैरानी तब होती है जब मैं देखती हूँ कि प्रभा खेतान की आत्मकथा ‘‘अन्या से अनन्या ’’ के बारे में प्रकाशित तमाम समीक्षाओं में, एक भी आलोचक ने यह सवाल नहीं उठाया कि सहजीवन निभाने वाले जिन अपने प्रेमी डॉ. गोपालकृष्ण सराफ के बारे में उन्होंने इतने विस्तार से लिखा है , वह संवेदनशील लेखिका जरा अपनी समदुखिनी - पाँच बच्चों की माँ, श्रीमती सराफ की पीड़ा, यातना के बारे में भी कुछ लिखतीं कि पति को अन्या के पास जाते देखकर उन महिला पर क्या बीतती होगी ? कलकत्ता के तमाम साहित्यकार ‘जन्नत की हकीकत’ जानते हैं पर जाहिर है , हमें सिर्फ उतना ही दिखाई देगा और उतना ही समझ में आएगा, जो शब्दों में कह दिया गया है । उस आत्मकथा में बस इतना ही जिक्र है कि डॉ. सराफ कहते हैं कि वह हर समय रोती रहती है, उसे तो रोने की आदत पड गयी है । ‘अन्याओं ’ से संबंध रखने वाले अधिकांश लेखक कवि कलाकारों की बीवियों को रोने की आदत पड़ जाती है जिससे बचने के लिए वे साइकिएट्रिस्ट के चक्कर लगाती हैं या एंटी डिप्रेसेंट दवाइयाँ खाती हैं । इनसे हमारे समीक्षक वर्ग का सरोकार नहीं है क्योंकि एक रोने-कलपने वाली, चिड़चिडी, बुझी हुई पत्नी कमोबेश सबके घरों में मौजूद है जो खुद तनाव और बीमारियों से ग्रस्त होते हुए भी, गैर जिम्मेदार पति को बख्शते हुए बच्चों समेत परिवार के दोनों पहियों को अपने मजबूत (!) कंधों पर यथासंभव भरसक खींचती चली जाती हैं । इसी श्रेणी में आती हैं मन्नू जी । मन्नू जी की किताब एक कहानी यह भी - जिसके बारे में भूमिका में ही उन्होंने स्पष्ट कर दिया है कि यह किताब चौदह साल में टुकड़ों टुकड़ों में लिखी गयी । यह उनके जीवन की लेखकीय यात्रा है, आत्मकथा नहीं है और उन्होंने अपने निजी जीवन के प्रसंग खोलकर नहीं लिखे, एक पूरक प्रसंग भी उन्होंने एक संपादक के दबाव के तहत ही लिखा वर्ना वह उतना भी नहीं लिख पातीं , फिर भी समीक्षक ढिठाई से कहे चले जा रहे हैं कि मीता के बारे में वे परानुभूति या समानुभूति के साथ सोचतीं और लिखतीं तो उनकी आत्मकथा असाधारण होती।.......
आज भारतीय समाज और जीवन में ही नहीं , साहित्य में भी मूल्य बदल रहे हैं । अनैतिकता हमें चौंकाती नहीं है, आकर्षित करती है । उसका बयान हमें रोमांचकारी लगता है । दूसरे तमाम मुद्दों को दरकिनार कर , हम ललक कर उस किताब को पढ़ना चाहते हैं । साहित्य का प्रकाशक इस तथ्य से अच्छी तरह वाकिफ है । मैत्रेयी की आत्मकथा का फ्लैप मैटर देखें -‘‘ मैत्रेयी ने डॉ. सिद्धार्थ और राजेंद्र यादव के साथ अपने संबंधों को लगभग आत्महंता बेबाकी के साथ स्वीकार किया है।’’ अंदर पूरी किताब का एक एक पन्ना पढ़ जाइए , आप उस ‘आत्महंता बेबाकी’ (!) को ढूँढते रह जाएँगे । इसके उत्तर में फरवरी 2009 के आउटलुक में राजेंद्र यादव की अपनी एक टिप्पणी पर्याप्त है -‘‘ मैत्रेयी ने मुझे कुछ जरुर जाना होगा पर लिखने में शायद वह भी चूक गई है । चूकने से ज्यादा कहना चाहिए कि वह छिपा गई है। वह जो इबारत में नहीं झाँकता, पर पीछे से झाँकता जरूर दिखता है। जाने उसने ऐसा क्यों किया ? ’’ ( आउटलुक: फरवरी 2009 - पृष्ठ - 75 )
आत्मकथा लेखन की सबसे बड़ी चुनौती है - अपने जीवन, बल्कि कहना चाहिए, अपनी व्यथा से, अपने झेले हुए से, एक दूरी बनाने की । आत्मकथा लेखन में सेल्फ सेंसरशिप - स्व प्रतिबंध - अपना अंकुश सबसे पहले सबसे आड़े आता है । भारतीय समाज में परिवार एक बहुत महत्वपूर्ण इकाई है । अगर हम सच बोल रहे हैं तो हमारे अपने परिवार के या करीबी लोग नाराज हो सकते हैं। तो मेरा मानना यह है कि इस तरह के प्रतिबंधों के बीच आत्मकथा नहीं लिखी जानी चाहिए । एक ईमानदार आत्मकथा तभी लिखी जा सकती है जब आप यह मानकर चलें कि आपके पास खोने के लिए कुछ नहीं बचा, सिवाय उन जंजीरों के जो समाज ने हमारे इर्द गिर्द जकड़ रखी हैं ।
जबकि वास्तविकता यह है कि एक औरत का अपनी आत्मकथा लिखना स्त्री सशक्तीकरण की ओर बढ़ता पहला चरण है । ईमानदारी इसकी पहली शर्त है । अपने जीवन को और अपनी कलम को महिमामंडित करने या अपने गुनाहों पर परदा डालने के लिए लेखकीय बुनावट के साथ शब्दों से खेलना , भाषा की कशीदाकारी करना और कला के कीमखाबी लिहाफ में अपनी करतूतों को सजा धजाकर प्रस्तुत करना आत्मकथा की विधा के मकसद को ही डिफ्यूज करना है ।
अंत में कुछ जरूरी बातें --
सबसे पहले मन्नू जी की इस पुस्तक ‘एक कहानी यह भी ’ को पढ़ते हुए यह स्पष्ट कर लिया जाना चाहिए कि यह पुस्तक दाम्पत्य के दैनंदिन के छलावों में मरती खपती एक ईर्ष्यालु स्त्री का सियापा नहीं, बल्कि इसमें एक स्त्री रचनाकार की बौद्धिक दृष्टि और उस दृष्टि का आलोक भी है जो एक ‘सामान्य‘ स्त्री का ‘रचनाकार’ स्त्री में कायांतरण करता है। दाम्पत्य के अलावा भी साहित्यिक और सामाजिक अंतर्विरोधों के कई मुद्दों को रचनात्मकता के पार्श्व में रखकर देखने की इस पुस्तक में वस्तुगत और निरपेक्ष कोशिश है । यहाँ स्त्री के किसी गोपन जगत को खोलकर लोलुप पाठकीय उपभोग के लिए किया गया मुआयना नहीं है बल्कि आत्मसजग भाषा में एक स्त्री रचनाकार के परिवेश की मार्मिक मीमांसा है । लेकिन इसका क्या किया जाए कि हिन्दी साहित्य में आलोचना क्षेत्र के अधिपतियों की आस्वाद ग्रंथि में जादुई यथार्थ ( मैजिकल रिएलिज़्म ) के बदले आभासी यथार्थ ( वर्च्युअल रिएलिज़्म ) का चस्का लग गया है। यह एक दुखद स्थिति है कि वे महिला रचनाकारों की आत्मकथाओं में प्रेम के पुराने त्रिकोण के रोमांच का अतिरेक में आख्यान सुनने की अपेक्षा रखते हैं और ऐसी तमाम मीताओं की मर्मकथा सुनना चाहते हैं ताकि बौद्धिक लंपटई का साहित्यीकरण कर सकें । पुरुष रचनाकारों की आत्मकथा में क्या उन्होंने किसी छूटे हुए प्रसंग या छूटे हुए पात्र को लाने की माँग कभी की, जो लेखक की पत्नी का लंपट प्रेमी रहा हो ?
जहाँ तक संवेदनशीलता के साथ पीड़ा और दुख दर्द को व्यक्त करने का सवाल है तो वे तो क्रिमिनल्स - जघन्य अपराधियों - के भी हो सकते हैं तो इन मीताओं के क्यों नहीं ? मीताएँ बहुत हैं और उनकी आबादी में उत्तरोत्तर इजाफ़ा हो रहा है क्योंकि साहित्य के बाजार का विचार उनकी रचनात्मकता का राजमार्ग बन रहा है । यह मुद्दा अलग है और इस पर विस्तार से फिर कभी लिखा जाएगा । अभी सिर्फ इतना ही कि आत्मकथात्मक रचना से उस ब्यौरे की अनावश्यक माँग बार बार क्यों की जाती है जो उस रचना का अभीष्ट है ही नहीं ?
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1702, साॅलिटेअर, हीरानंदानी गार्डेन्स, पवई, मुंबई - 400 076